Wednesday, May 7, 2008

अमिताभ बच्चन का अरमान


लेखक की स्मृति को कैसे बचाएं
राजकिशोर

हरिवंशराय बच्चन का देहान्त एक राष्ट्रीय घटना बन गई थी। मीडिया में कवरेज के लिए अच्छी-खासी प्रतिद्वंद्विता चल पड़ी थी। दो दिनों तक बच्चन जी टीवी पर छाए रहे। हिन्दी लेखकों और साहित्य प्रेमियों के जीवन में इस तरह का यह पहला अवसर था। इसके पहले महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, त्रिलोचन, रामविलास शर्मा आदि की मृत्यु की मीडिया ने नोटिस ही नहीं ली थी। इनमें से कोई भी लेखक बच्चन जी से कम नहीं था। बहुत-से लोगों की राय में ये सभी बच्चन से बड़े लेखक थे। फिर मृत्यु के बाद बच्चन की ही क्यों धूम मची? इसका उत्तर कोई बच्चा भी दे सकता है। इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा।

जिस बात पर टिप्पणी किए बिना मैं रह नहीं सकता कि वह यह है कि अमिताभ बच्चन ने अपने पिता की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए कुछ ठोस काम करने की इच्छा व्यक्त की है। यह इच्छा भारत में नहीं, लंदन में व्यक्त की गई। वहां के लोग अपने लेखकों और विचारकों का स्मारक बनाना जानते हैं। जिस पत्रकार ने अमिताभ की नई फिल्म भूतनाथ के सिलसिले में उनका इंटरव्यू लिया होगा, उसने चलते-चलते हरिवंशराय बच्चन की चर्चा छेड़ दी होगी +Éè®ú अमिताभ को कहना पड़ा होगा कि मैं अपने कवि-पिता की समृति को बनाए रखने के लिए जरूर कुछ करूंगा। चूंकि अमिताभ इस प्रश्न के लिए प्रस्तुत नहीं थे, इसलिए वे बता नहीं पाए कि वे क्या करेंगे। हिन्दी के पत्रकार इस तरह के प्रश्न नहीं पूछते। शायद इसलिए कि उन्हें उत्तर पहले से ज्ञात होता है और वे किसी बड़े आदमी को दुखी नहीं करना चाहते। वे शायद चाहते भी नहीं कि किसी लेखक या कवि का भव्य स्मारक बने। शायद प्रेमचंद स्मारक की दीर्घकालीन दुर्दशा ने उनके हृदय को इतना सुखा दिया है कि इस तरह के सवाल उनके मन में उठते ही नहीं।

अगर अमिताभ बच्चन अपने कवि-पिता की स्मृति में कुछ करते हैं, तो यह जितनी खुशी की होगी, उतनी ही दुख की। अमिताभ के पास इतना पैसा होगा कि वे बच्चन जी को राष्ट्र कवि का दर्जा दिलवा दें। उनका भव्य स्मारक, उनकी स्मृति में व्याख्यानमाला, फेलोशिप, छात्रवृत्तियां, पुरस्कार, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चेअर, निबंध प्रतियोगिता -- क्या-क्या नहीं किया जा सकता। लेकिन अमिताभ शायद इस प्रकृति के व्यक्ति नहीं हैं कि किसी साहित्यिक उद्देश्य के लिए इतना पैसा खर्च करें। अभी तक तो उन्होंने ऐसी कोई उदारता नहीं दिखाई है। उत्तर प्रदेश में उन्होंने अभी-अभी एक कन्या विद्यालय खोला है, लेकिन इसका संबंध परोपकार वृत्ति से कम, पंचायत की जमीन की हेराफेरी से पैदा होनेवाले विवाद से उत्पन्न अपनी छवि-हानि की भरपाई करना था। अमिताभ बच्चन महान अभिनेता हैं, इस उम्र में भी उनकी फिल्म पर फिल्म आ रही है, विज्ञापनों के लिए वे सर्वाधिक लोकप्रिय मॉडल हैं, उनकी पत्नी वर्षों से सांसद है, उनका पुत्र भी सफल अभिनेता है, उनकी पुत्रवधू के पास भी अपार पैसा है, फिर भी इस कुनबे ने सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई अवदान नहीं किया है। यह चिंता की बात है। सामाजिक अवदान की दृष्टि से तो हरिवंशराय बच्चन अकेले अपने सभी उत्तराधिकारियों से बड़े साबित हुए। वे मूलतः साहित्य के जीव थे और सब कुछ के बावजूद साहित्यकर्मी ही बने रहे।

बहरहाल, उम्मीद करनी चाहिए कि अमिताभ बच्चन अपने पिता की स्मृति में कुछ करेंगे जरूर। लेकिन यह भी दुख की बात होगी। दुख की बात इसलिए कि काफी समय से लेखकों की स्मृति को जीवित रखने की जिम्मेदारी मृत लेखकों के परिवारों पर ही आ पड़ी है। भारतभूषण अग्रवाल, श्रीकांत वर्मा, देवीशंकर अवस्थी, रमाकांत आदि की स्मृति में जो पुरस्कार दिए जाते हैं, उनकी आर्थिक व्यवस्था उनके पारिवारिक जन ही करते हैं। अगर वे कुछ समय के लिए पीछे हट जाएं, तो ये सभी पुरस्कार तत्काल बंद हो जाएंगे। रघुवार सहाय की स्मृति में एक पुरस्कार दिल्ली के कवियों और लेखकों के तत्वावधान में दिया जाता था। आर्थिक व्यवस्था करते थे साहित्यिक पत्रिका पल-प्रतिपल के संपादक और आधार प्रकाशन के मालिक देश निर्मोही। जब तक देश निर्मोही पैसे का इंतजाम करते रहे, रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार जारी रहा। जब निर्मोही ने मोह त्याग दिया, तो पुरस्कार का कार्यक्रम ठप हो गया। विडंबना यह है कि इस पुरस्कार से जुड़े जितने कवि-लेखक थे, उनमें से कोई भी बीपीएल परिवार का नहीं था। वे सभी अच्छा खाते-पीते मध्यवर्गीय लोग थे। रघुवीर जी के प्रति इन सभी के मन में बहुत आदर था। इनमें से कई तो उनके सहकर्मी भी रह चुके थे। वे चाहते तो सामूहिक चंदे से ही इस महत्वपूर्ण पुरस्कार को जारी रख सकते थे। लेकिन उन्होंने यह कर्तव्य नहीं निभाया। इसलिए अगर अमिताभ बच्चन अकेले अपने पिता की स्मृति में कुछ करते हैं, तो यह हिन्दी समाज के लिए शर्म की बात होगी।

हरिवंशराय बच्चन क्या सिर्फ अमिताभ बच्चन के पिता थे? वे हिन्दी समाज के कुछ भी न थे? तो फिर अमिताभ ही बच्चन के लिए कुछ क्यों नहीं करें? स्मरणीय है कि प्रेमचंद के जन्म-स्थान लमही गांव में प्रेमचंद का मामूली-सा स्मारक भी अरसे से दुर्दशाग्रस्त था। सुना है, इधर उसका कुछ कायाकल्प हुआ है। लेकिन इतना काम तो प्रेमचंद के साहित्यिक और कमाऊ पूत, श्रीपत राय और अमृतराय, भी कर सकते थे। किंतु उन्होंने नहीं किया। उनका मानना था कि यह काम प्रेमचंद के परिवार का नहीं, हिन्दी जगत का है। वामपंथियों के दबाव से यूपीए सरकार ने प्रमचंद स्मारक के लिए पैसा निकाला, नहीं तो समही में प्रेमचंद स्मारक की दुर्गति अभी तक जारी रहती। इन सारे प्रकरणों से जो बात जाहिर होती है, वह है साहित्य से हिन्दी समाज की दूरी तथा स्वयं लेखकों की अपने पूर्वजों के प्रति कृतघ्नता। आज हिन्दी के सभी प्रसिद्ध लेखक और कुछ कम प्रसिद्ध लेखक भी कार में चलते हैं। उनमें से आधे के बेडरूम में एअरकंडीशनर लगा हुआ है। कुछ नियमित रूप से विदेश आते-जाते रहते हैं। लेकिन अपने साहित्यिक पूर्वजों की स्मृति को जीवित रखने के लिए उनकी गहरी जेबों में एक कौड़ी भी नहीं है।

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