Friday, May 30, 2008

तिब्बत की आजादी का संघर्ष

तिब्बत के लिए लड़नेवालों को सलाम
राजकिशोर


तिब्बत की आजादी के लिए इस समय जो संघर्ष चल रहा है, उसे दिए और तूफान की लड़ाई कहा जा सकता है। परंपरागत दृष्टि से देखें, तो दिया तिब्बत है और तूफान चीन। लेकिन भविष्यवादी दृष्टि से देखने पर लगेगा कि तूफान की शक्ति तिब्बत में आ गई है और चीन दिए की तरह टिमटिमा रहा है। दुनिया भर के लोकतंत्र-कामी लोग तिब्बत के साथ हैं और चीन को सिर्फ उनका समर्थन मिल रहा है जो कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही को लोकतंत्र का उच्चतम संस्करण मानते हैं।

तिब्बत की मुक्ति का संघर्ष कम से कम 48 वर्ष पुराना है। छोड़ा पीछे जाएं तो 1949 में ही तिब्बत में एक राष्ट्रीय उभार आया था, जो पड़ोसी चीन की दादागीरी के खिलाफ था। वह 10 मार्च का दिन था। दुनिया भर के तिब्बती इस दिन राष्ट्रीय उभार दिवस मनाते हैं। लेकिन इस बार तिब्बत के लोगों ने इसका चरित्र पूरी तरह बदल दिया। अभी तक जो रस्म-अदायगी होती थी, उसने सचमुच एक राष्ट्रीय उभार का रूप ले लिया। गुलामी को बरदाश्त करने की एक सीमा होती है। चीन ने 49 साल-लंबे अत्याचार के द्वारा तिब्बती लोगों के दिलों में आग भर दी है। इस आग की लपटें दुनिया भर में देखी जा सकती हैं। इस मामले में भारत दुनिया के इस जाग्रत हिस्से का अंग है। दिल्ली के जंतर मंतर में लगभग सौ तिब्बती स्त्री-पुरुषों को चीन सरकार की नृशंसता का विरोध करते हुए और भारत सरकार की अंतरात्मा को जगाने का प्रयास करते हुए देखा जा सकता है। प्रश्न यह उठता है कि भारत सरकार की अंतरात्मा छुट्टी पर तो नहीं चली गई है? कुछ लोग मुसकराते हुए पूछ सकते हैं कि यह अंतरात्मा कभी ड्यूटी पर थी भी?

1950 में जब चीन की सेना तिब्बत में घुसी और चामदो में उसने तिब्बत की सेना को परास्त कर दिया, तभी से चीन ने छल-बल से तिब्बत पर अवैध कब्जा जमा रखा है। यह कब्जा अवैध इसलिए है कि 23 मई 1951 की जिस संधि के तहत तिब्बत की तत्कालीन सरकार ने तिब्बत को चीन के बृहत परिवार का अंग मान लिया था, उस संधि के प्रावधानों का चीन की सरकार ने बार-बार उल्लंघन किया। वह संधि तिब्बत में सामंती और साम्राज्यवादी अवशेषों को खत्म करने के लिए चीन की सेना का सहयोग देने और लेने के लिए की गई थी, पर उसकी बिना पर खुद चीन ने तिब्बत में एक सामंती और साम्राज्यवादी शासन की नींव रख दी। तिब्बत अपने सुदीर्घ इतिहास में पहली बार एक गुलाम देश बना। आठ ही वर्षों में तिब्बत की जनता का इस कदर दमन किया गया कि तिब्बत के धर्मगुरु और सम्राट दलाई लामा को अपना वतन छोड़ कर पलायन करना पड़ा। उन्होंने चीन की किसी जेल में सड़ने से आत्मनिर्वासित जीवन बिताना उचित समझा। उन्होंने भारत में शरण ली। यह दलाई लामा की दूसरी गलती थी।

उनकी पहली गलती थी चीन के साथ उस संधि का समर्थन करना जिसमें तिब्बत की सरकार को तिब्बत की स्थानीय सरकार कहा गया था। इस संधि का समर्थन करने के बजाय उन्हें उसी समय चीन की वर्चस्ववादी कोशिशों के खिलाफ संघर्ष छेड़ देना चाहिए था। जो राजनेता भविष्य का अनुमान न लगा सके, वह राजनेता कैसा? लेकिन दलाई लामा धर्मगुरु भी हैं। उनका धर्म एक ऐसा धर्म है जिसके केंद्र में करुणा है। धार्मिक लोग न लड़ते हैं, न लड़ाते हैं। वे शांति चाहते हैं। उस समय के सत्तासीन दलाई लामा और तिब्बतियों के दूसरे सबसे बड़े नेता पंचेन लामा ने यह सोच कर संघर्ष के बजाय शांति का विकल्प चुना होगा कि अगर तिब्बत की स्वायत्तता को स्वीकार करते हुए चीन तिब्बत को अपना हिस्सा मान लेता है और खून-खराबे की नौबत टल जाती है, तो यही श्रेयस्कर है। इसी कमजोर आधार पर तिब्बत ने चीन के साथ एक शर्मनाक समझौता किया। इस समझौते के बल पर ही चीन मानता है कि तिब्बत चीन का अविच्छेद्य अंग है। लेकिन शोषण और अन्याय पर टिकी हुई शांति हमेशा अल्पजीवी होती है। यही वजह है कि 1959 में तिब्बत की आत्मनिर्वासित सरकार ने इस संधि की मान्यता वापस ले ली।

जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत उन दिनों विश्व नेता बनने का स्वप्न देख रहा था। यद्यपि इसे विश्व यारी बतानेवाले लोहिया लगातार भारत सरकार की दुतरफा अवसरवादी विदेश नीति की धज्जियां उड़ा रहे थे, पर भारत के बुद्धिजीवियों के वामपंथी मोतियाबिंद के कारण नेहरू के आभामंडल में कोई फर्क नहीं पड़ा। उस समय चीन भी अपनी अवसरवादिता के परिणामस्वरूप पंचशील के प्रणेताओं में एक बना हुआ था। भारत को इसका खमियाजा 1962 में भोगना पड़ा और आज तक भोगना पड़ रहा है। दलाई लामा ने 1959 में सोचा होगा कि भारत तिब्बत की आजादी को वापस लौटाने में मदद करेगा। लेकिन एक गरीब देश की आजादी और लोकतंत्र के प्रति भारत की प्रतिबद्धता नाखून भर ही थी। आज तो वह बिलकुल जीरो है। भारत सरकार को यह घोषणा करते हुए शर्म नहीं आई कि हम भारत की जमीन पर चीन-विरोधी राजनीतिक गतिविधियां बर्दाश्त नहीं करेंगे। दूरदृष्टि दिखाते हुए दलाई लामा अगर 1959 में भारत के बजाय इंग्लैंड चले गए होते, तो तिब्बत की आजादी का संघर्ष तुरंत शुरू हो सकता था। तिब्बत के लोग देर से जगे हैं। लेकिन इस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चीन की चांदी है। दुनिया का कोई भी देश उसे नाराज नहीं करना चाहता।

हमारे विद्वान प्रधानमंत्री ऑक्सफोर्ड में अपने इतिहास ज्ञान का परिचय दे चुके हैं। वहां उन्होंने ब्रिटेन के लोगों को याद दिलाया कि भारत पर उनके इतने एहसान हैं। ठीक ही कहा गया है, अल्प विद्या भयंकरी। जंतर मंतर पर तिब्बतियों के जोश-भरे, पर कुम्हलाए चेहरों को देख कर हममें से अनेक को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में और बीसवीं शताब्दी के शुरू के वर्षों में कनाडा, अमेरिका, लंदन, आयरलैंड आदि में होनेवाली उन छोटी-छोटी बैठकों की याद आ रही थी जहां हमारे साहसी पूर्वज हिंदुस्तान को आजाद करने की योजनाएं बनाते थे। ऐसे ही उत्साही लोगों के एक संगठन का नाम था, गदर पार्टी। भारत के स्वाधीनता संघर्ष में इन बहादुरों के योगदान को कम करके आंका गया है। यह भुला देने की बात नहीं है कि विदेश में शुरू होनेवाले इन संघर्षों में ही भारत की आजादी के बीज थे। ऐसे ही बीज जंतर मंतर में दिखाई पड़ रहे हैं। इनके महत्व को भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।

ये बीज सिर्फ भारत में नहीं छटपटा रहे हैं। ओलंपिक की मशाल जिस-जिस देश से गुजरी, वहां-वहां तिब्बत के दुखी, पर साहसी लोगों ने चीन की बर्बरता के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस बर्बरता का पूरा आकलन आज नहीं किया जा सकता, क्योंकि चीन ने ऐसे कठोर उपाय कर रखे हैं जिससे चीन के भीतर क्या घटित हो रहा है, इसकी जानकारी दुनिया को न हो सके। अनुमान है कि चीन के एक हिस्से में जो घटित हो रहा होगा, उसकी पूरी सूचना चीन के दूसरे हिस्सों में रहनेवालों को नहीं मिल रही होगी। चूंकि चीन तिब्बत को अपना ही हिस्सा मानता है, इसलिए वहां भी उसने अपना डिक्केटरशिप वाला रवैया अपना रखा है। फिर भी तिब्बत से विभिन्न स्रोतों से आनेवाली खबरों के अनुसार चीन की सरकार दो सौ से ज्यादा लोगों की जान ले चुकी है और पांच हजार से ज्यादा लोगों को जेल भेज चुकी है। अनगिनत लोगों को तरह-तरह की यातना दी जा रही है। इन सभी का कसूर वही है जो कसूर अपने शुरू के वर्षों में माओ दे चुंग नेता कर चुके थे यानी स्वतंत्रता और जनवाद के लिए संघर्ष। बाद में इन्हीं महाशय ने तिब्बत को गुलामी की आग में झोंक दिया।

चीन और तिब्बत के संबंधों का सबसे कठोर प्रश्न यह है कि अगर चीन तिब्बत को वास्तव में अपना हिस्सा मानता है, तो वह मुख्य भूमि के विकास और तिब्बत के ह्रास के लिए प्रयत्नशील क्यों रहा है। यह सच है कि चीन में तिब्बत में सड़कें बनाई हैं, बिजली का प्रसार किया है, लेकिन उपनिवेशवादी अंग्रेजों ने भी तो भारत में विकास के ये काम किए थे, जिसका एहसान भारत के प्रगतिशील लोग और मध्य वर्ग के पिट्ठू सदस्य आज भी मानते हैं। यह कुछ ऐसी ही घटना है जैसे भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व में सड़कों का जाल बिछा दिया है। शासकों द्वारा अपनी सुविधा के लिए किया गया इस तरह का विकास सर्वत्र एक छल होता है। तिब्बत के साथ यही छल किया गया है। वरना तिब्बत की आर्थिक विकास दर और चीन की आर्थिक विकास दर में इतनी बड़ी खाई क्यों है? तिब्बत क्यों चीन का पिछवाड़ा बना हुआ है, जहां प्रदूषण और रेडियोधर्मिता फैलानेवाला कचरा लंबे समय से डंप किया जा रहा है? चीन की जनता को जो आजादियां सुलभ नहीं हैं, वे आजादियां तिब्बत की जनता को नहीं दी जा सकतीं, यह तर्क गलत नहीं है, पर चीन को एक संपन्न देश बनाने के लिए जो निवेश नीति अपनाई जा रही है, वही निवेश नीति तिब्बत में अपनाना पाप है, इसका तर्क क्या हो सकता है? जाहिर है कि तिब्बत के लोग अगर चीन को अपना देश नहीं मानते, तो चीन भी तिब्बत के लोगों को अपना भाई-बहन नहीं मानता। फिर अन्याय और विषमता पर आधारित यह संयुक्त परिवार कब तक टिक सकता है? सेना के बल पर जो एकता हासिल की जाती है और कायम रखी जाती है, उसके पांव के नीचे की जमीन भुरभुरी होती है।

इसीलिए दुनिया भर में स्वतंत्रता के संघर्ष सफल हुए हैं। चीन के बर्बर शासक सोचते हैं कि वे इतिहास की इस अदम्य धारा को उलटा मोड़ सकते हैं, तो वे बहुत भारी संभ्रम के शिकार हैं। उन्हें तो सबसे पहले अपने चीन की फिक्र करनी चाहिए, क्योंकि वहां आधुनिकता सिर्फ उपभोक्तावाद के रूप में नहीं, कुछ सकारात्मक रूपों में भी पहुंच रही है। चीन आज अपने लोगों को अंग्रेजी पढ़ा रहा है, ताकि विश्व अर्थव्यवस्था में वह ज्यादा स्थान घेर सके। उसे याद नहीं है कि भारत के स्वाधीनता संघर्ष में अंग्रेजी के ज्ञान ने बहुत निर्णायक भूमिका अदा की है।
आज अंतरराष्ट्रीय स्थिति ऐसी है कि तिब्बत के मुक्ति-सैनिकों को जल्दी सफलता नहीं मिल सकती। दुनिया भर में स्वतंत्रता और स्वायत्ता के संघर्ष गहरा रहे हैं, तो वर्चस्ववादी ताकतें भी मजबूत और संगठित हो रही हैं। हालात इतने बुरे हैं कि इराक के साथ स्पष्ट रूप से अन्याय होने और जारी रहने के बावजूद उसे स्वतंत्र देखने की इच्छा रखनेवालों पर निराशा के झोंके आते रहते हैं। यह खुशी की बात है कि इस सबसे तिब्बत की आजादी के दीवाने हताश नहीं हुए हैं। वे अपना संघर्ष बहुत ही धीरता और अहिंसक ढंग से चला रहे हैं। आतंकवाद ने उन्हें जरा भी आकर्षित नहीं किया है। उनमें गांधी जी का कुछ तत्व दिखाई देता है। इसलिए उनकी सफलता निश्चित है। उन्हें भारत की जनता का सलाम।

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