कीचड़ में कमल
राजकिशोर
इस विडंबना पर विचार करना हमें फिलहाल स्थगित कर देना चाहिए कि कम वोट पाने पर भी अधिक सीटें कैसे हासिल हो जाती हैं। यह भारतीय राजनीति का एक ऐसा पेच है, जिसे खोलना सब जानते हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल खोलना नहीं चाहता। इसका कारण यह है कि समय-समय पर सभी दल इससे लाभान्वित होते रहे हैं। इसलिए उन्हें उम्मीद है कि वे आगे भी लाभान्वित होते रहेंगे। इस विडंबना का ही नतीजा है कि कर्नाटक के इस विधान सभा चुनाव में भाजपा को 33.8 प्रतिशत वोट मिले और 110 सीटें और कांग्रेस को उससे कुछ अधिक वोट मिले यानी 34.5 प्रतिशत, लेकिन सीटें मिलीं सिर्फ 80। यानी प्राप्त वोट प्रतिशत में फर्क सिर्फ .7 प्रतिशत का और सीटों की संख्या में फर्क 30 का। फिर भी क्या इसे लोकतंत्र ही कहेंगे? हां, लोकतंत्र ही कहेंगे, क्योंकि भारत की राजनीतिक व्यवस्था इसी दोषयुक्त चुनाव प्रणाली के पक्ष में है। वह चुनाव प्रणाली में ऐसा कोई संशोधन नहीं कना चाहती जिससे विभिन्न राजनीतिक दलों की वास्तविक शक्ति ही उन्हें मिलनेवाली सीटों की संख्या में व्यक्त हो।
इसके बावजूद यह तो स्वीकार करना ही होगा कि कर्नाटक में भाजपा की जीत हुई है और वही सरकार बनाएगी। लेकिन इस जीत का अर्थ यह लगाया जाए कि भाजपा के गुणों को देख कर मतदाताओं ने उसे अपना विश्वास बख्शा है, तो यह अनर्थ होगा। 2004 के विधान सभा चुनाव की तुलना में इस बार सिर्फ अधिक 5.3 मतदाताओं ने उसके पक्ष में वोट दिया है। यह मत परिवर्तन इतना बड़ा नहीं है कि भाजपा उस पर इतरा सके। लोकतंत्र के बुनियादी उसूल के हिसाब से देखा जाए, तो वोट प्रतिशत के हिसाब से वह घोर अल्पमत में है। सिर्फ एक-तिहाई वोटों के आधार पर वह अगर विधान सभा में अपना बहुमत कायम कर लेती है, तो यह उन दो-तिहाई मतदाताओं का अपमान है जिन्होंने कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक दलों का अपमान है। इस तथ्य का महत्व इस बात में है कि राजीव गांधी को छोड़ कर कांग्रेस की किसी भी सरकार को आज तक 50 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिल सका है। यानी भारत में प्रायः सभी सरकारें अल्पमत की सरकारें रही हैं। इसी आधार पर कर्नाटक में भाजपा की सरकार को भी अल्पमत सरकार कहा जा सकता है। विधान सभा में अपनी स्थिति की कसौटी पर भी वह साफ अल्पमत में है। भाजपा को सिर्फ 110 सीटें मिली हैं और कांग्रेस (80) तथा जनता दल (28) को मिला कर 128 सीटें बनती हैं। लेकिन इससे क्या ! सरकार तो भाजपा ही चलाएगी।
जो लोग बार-बार यह लिख रहे हैं कि दक्षिण भारत में पहली बार कमल खुला है, वे इसे रेखांकित नहीं करना चाहते कि यह कमल भारतीय राजनीति के कीचड़ में खिला है। कर्नाटक में शुरू से ही कांग्रेस का राज रहा है। यहां तक कि इमरजेंसी के बाद 1977 में होनेवाले लोक सभा चुनाव में भी उसने इंदिरम्मा का ही साथ दिया था। बाद में यह जनता पार्टी की प्रयोग भूमि बना। लेकिन जनता पार्टी का शासन उस तरह स्थिरता प्राप्त नहीं कर सका जिस तरह पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा ने, जैसे-तैसे, स्थिरता प्राप्त कर ली है। कुछ समय तक वहां केरल जैसी स्थिति रही, जहां दो मोर्चा अदल-बदल कर सत्ता में आते रहे हैं। वैसे, यह हो भी जाता, तो खुशी की कोई बात नहीं थी। इस प्रणाली ने भले ही कुछ समय तक केरल का भला किया हो, पर त्वरित राजनीतिक पतन के इस समय में दोनों ही मोर्चों की राजनीतिक पवित्रता का क्षय हुआ है और केरल इस समय एक नए ढंग के राजनीतिक संकट का सामना कर रहा है। इसका समाधान आसान नहीं, क्योंकि केरल में किसी नई विचारधारा के उदय की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। इसलिए आनेवाले समय में अगर इस प्रगतिशील राज्य में भी भाजपा को बढ़त मिलने लगे, तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए।
कर्नाटक में कमल का फूल उसी कीचड़ में खिला है जो आगे चल कर केरल को अपनी गिरफ्त में ले सकता है। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल की राजनीति में कीचड़ का तत्व बढ़ता गया। पूर्व प्रधानमंत्री एस.डी. देवगौड़ा के पुत्र प्रेम और सत्ता लिप्सा ने इस कीचड़ को दलदल का रूप दे दिया, जिसमें उनकी पार्टी किसी पागल हाथी की तरह धंसती चली गई। दूसरी ओर कांग्रेस ने कर्नाटक में किसी नई राजनीति का परिचय नहीं दिया। उलटे उसने देवगौड़ा और उनके सत्ता-लिप्सु पुत्र कुमारस्वामी के साथ मोलभाव करके यह साबित कर दिया कि उसका भी अपना एक कीचड़ है, जिससे वह बाहर निकलना नहीं चाहती। अपने इसी कीचड़ में वह उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को और बिहार में नीतीश कुमार के उतारना चाहती है। इस तरह कर्नाटक में दोनों सेकुलर विकल्प क्रमशः अपने आपको बदनाम करते चले गए। इसी का रणनीतिक लाभ मिला भारतीय जनता पार्टी को, जो धीरे-धीरे अपना प्रसार कर रही है। उस वक्त वह सत्ता में आ बैठी जब दोनों सेकुलर दलों ने यह साबित कर दिया कि वे सत्ता दिए जाने लायक नहीं हैं।
इस तरह, कर्नाटक में कोई नई राजनीतिक घटना नहीं हुई है। अभी तक देखने में यह आया है कि कमल का यह फूल वहीं-वहीं खिला है जहां कांग्रेस का पतन हुआ है और उस खाली जगह को भरने के लिए कोई अन्य धर्मनिरपेक्ष दल सामने नहीं आया है। उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति को देख कर इस स्थापना की परीक्षा की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तरह भाजपा के पांव उखड़े तो उखड़ते चले गए। बिहार में कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प ने अपनी जमीन इस कदर मजबूत कर ली कि वहां भाजपा को पनपने का ज्यादा मौका नहीं मिला। कुछ मौका जरूर मिला, क्योंकि लालू प्रसाद के लंबे शासन ने सवर्णों को राजनीतिक दायरे से लगभग बाहर कर दिया था। फिर भी बिहार में इस समय सरकार मुख्यतः नीतीश कुमार की ही है। इसके विपरीत राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा की अदला-बदली होती रही है।
इसलिए उन महानुभावों को शक की निगाह से देखा जाना चाहिए जो सांप्रदायिक भाजपा को कमजोर करने के लिए धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को मजबूत करना चाहते हैं। इनका सबसे बड़ा अपराध यह है कि ये कांग्रेस से यह मांग बिलकुल नहीं करते कि वह अपने में रेडिकल परिवर्तन लाए, वंशवाद कोे छोड़े और अपनी सरकारों को जन हितैषी बनाए। वे वर्तमान कांग्रेस को ही स्वीकार करने के लिए राजी हैं ताकि उन्हें उनके मनचाहे स्थान और पद मिलते रहें। ऐसी कांग्रेस भाजपा को बढ़ने से रोक नहीं सकती। जब तक कीचड़ मौजूद है, भाजपा का कमल जहां-तहां खिलता रहेगा।
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