Friday, May 30, 2008

पुलिस बनाम प्रदर्शनकारी


पुलिस ऐसा क्यों करती है
राजकिशोर



मेरे सामने एक तसवीर है। तीन युवक हैं, जिनमें से एक जमीन पर गिरा हुआ है, दूसरे को पुलिस जबरदस्ती उठाना चाह रही है और तीसरे की पीठ पर एक पुलिसमैन अपना पैर रखे उसे कुचल रहा है। यह घटना मुंबई की है। तीनों ही युवक प्रदर्शनकारियों में हैं -- कर्नाटक के एक सीमावर्ती जिले के, जहां वह महाराष्ट्र से लगता है। ये मराठी भाषी हैं। प्रदर्शन का मुद्दा यह है कि महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा की गई नियुक्तियों में इन्हें प्राथमिकता क्यों नहीं दी गई।

यह तसवीर न तो अजीबोगरीब है और न ही उनसे ज्यादा खूंखार जो आम तौर पर अखबारों में या टेलीविजन पर दिखाई देती हैं। इसे देख कर दिल नहीं दहलता। लेकिन युवक की पीठ पर दबा कर रखा हुआ जूतेदार पैर एक बार फिर वह सवाल पूछने के लिए प्रेरित करता है जो इसके पहले हजारों बार पूछा जा चुका है और शासकों की मानसिकता में सुधार नहीं हुआ तो आगे भी पूछा जाता रहेगा : पुलिस ऐसा क्यों कर रही है? पुलिस ऐसा क्यों करती है? इस संदर्भ में प्रदर्शनकारियों की मांग पर विचार करना अप्रासंगिक है। यह मांग सही भी हो सकती है और गलत भी। दोनों ही स्थितियों में, पुलिस का व्यवहार एक जैसा होना चाहिए। उसे जनता की किसी मांग के औचित्य पर विचार करने के लिए नियुक्त नहीं किया गया है। उसका काम है कानून और व्यवस्था को बनाए रखना। प्रदर्शनकारियों के साथ आम तौर पर पुलिस का जैसा व्यवहार रहता है, क्या वह कानून और व्यवस्था को बनाए रखने का एकमात्र तरीका है? या, उसके सभ्य और लोकतांत्रिक विकल्प हो सकते हैं? पुलिस का काम यह तो हो नहीं सकता कि प्रदर्शन करनेवालों को वह इस कदर धुन दे कि दूसरे लोग सरकार के सामने अपनी मांगें ले कर जाने के पहले सौ बार सोचें। उसका काम यह है कि वह लोकतांत्रिक ढांचा सुरक्षित रहे, जिसमें नागरिकों और सरकार के बीच का संबंध अशिष्ट नहीं होता।

यह तो तय ही है कि भारतीय पुलिस का यह चरित्र कोई नई घटना नहीं है। सामंती काल से ही वह ऐसी या इस जैसी रही है। वह शासन रुआब पर जितना आधारित था, परवर्ती अंग्रेजी शासन उससे कहीं ज्यादा आधारित था। उसके पहले के शासक जैसे भी थे, भारतीय थे। उन्हें भारत में ही रहना था, अपनी जिंदगी गुजारनी थी। अतएव आपवादिक रूप से क्रूर और अदूरदर्शी शासकों को छोड़ कर सामान्य जनता के साथ निबाह करके ही चलना था। ब्रिटिश शासकों के साथ ऐसा नहीं था। वे उपनिवेशवादी थे। उन्हें भारत को अपना देश नहीं बनाना था, यहां से धन-संपत्ति लूट कर ब्रिटेन को समृद्ध करना था। यह भारतीय जनता पर ज्यादा से ज्यादा आतंक स्थापित करके ही किया जा सकता था। इसलिए उसकी पुलिस का चरित्र अगर जन-विरोधी था, तो यह अस्वाभाविक नहीं लगता। जो अस्वाभाविक लगता है, वह यह है कि देशी पुलिस अपने ही भाई-बहनों को इस तरह क्यों सताती थी मानो वे दोनों दो अलग-अलग देशों के नागरिक हों। यह तत्कालीन भारतीय पुलिस में देशभक्ति और मानव संवेदना के अभाव की ओर संकेत करता है। शासन के प्रति वफादारी का मतलब यह नहीं है कि दूसरी और उतनी ही या उससे ज्यादा महत्वपूर्ण वफादारियों को भुला दिया जाए -- उदाहरण के लिए मानव मूल्यों के प्रति वफादारी।

आजादी के बाद की पुलिस व्यवस्था में देशभक्ति और मानव संवेदना के अभाव का ही विस्तार दिखाई देता है। अर्थात सरकार भले ही देशी हो गई हो, पर उसके चरित्र और व्यवहार में विदेशीपन बरकरार रह गया। कह सकते हैं कि प्रशासनिक स्तर पर नई लोकतांत्रिक व्यवस्था का कोई विशेष लाभ भारत की जनता को नहीं मिला। नए शासक लोकतंत्र के माध्यम से सत्ता परिवर्तन की राजनीतिक संस्कृति को तो बनाए रखना चाहते थे, पर उनकी इच्छा यह नहीं थी कि सरकार और नागरिक के संबंधों में कोई बुनियादी फर्क पड़े। यह अनिच्छा नागरिकों के प्रति पुलिस के व्यवहार में लगातार दिखाई देती है। शासन किस दल का है, वामपंथी है या दक्षिणपंथी, ब्राह्मणवादी है या दलितवादी या पिछड़ावादी, इससे पुलिस के मूल आचरण में कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके लिए सभी शासकों का एक ही आदेश है : जो भी व्यक्ति या समूह सरकार के लिए दिक्कत पैदा करता है, उसे पकड़ो और मारो। यूरोप या अमेरिका की पुलिस का आचरण ऐसा नहीं है, क्योंकि वहां सरकार और नागरिकों के संबंध इतने सामंती नहीं हैं। पूर्व सोवियत रूस, चीन, उत्तर कोरिया, वियतनाम आदि का मामला भारत से भी गया-गुजरा है, क्योंकि वहां की सरकारों में तानाशाही के अनेक तत्व हैं।

यहां दूसरे पक्ष पर भी विचार करने की जरूरत है। आजादी के पहले विरोध और प्रदर्शन की एक अहिंसक संस्कृति का विकास हुआ था। दुनिया भर में यह पहली बार हुआ कि सरकार का विरोध करनेवालों ने पुलिस पर हाथ नहीं उठाया और उसकी लाठी-गोली का सामना साहस और धीरज के साथ करते रहे। सत्याग्रह की वह संस्कृति कहां चली गई? आजादी के बाद खूनी दंगों के दौरान गांधी जी ने अपने अनुयायियों से निराशा व्यक्त करते हुए कहा था कि मैं समझता था कि उन्होंने सत्य और अहिंसा को स्वीकार कर लिया है, पर यह मेरा भ्रम था -- अहिंसा उनके लिए रणनीति मात्र थी। आजाद होते ही, मूल चरित्र उभर कर आ गया। आंदोलनकारी भी उतने ही उग्र और खूंखार होने लगे जितनी वह पुलिस थी जो उनका दमन करती थी। बिहार आंदोलन के दौरान पहली बार यह नारा सुनाई दिया : पुलिस हमारा भाई है, उससे नहीं लड़ाई है। यह सीधे और सरल जयप्रकाश के कारण संभव हुआ। लेकिन जल्द ही यह छोटा-सा दीया भी बुझ गया। बिहार आंदोलन से निकले शासकों तथा अन्य शासकों में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दिया। आज भी वही स्थिति जारी है।

अगर आंदोलनकारी एक बेहतर संस्कृति की रचना करना चाहते हैं, तो वे पुलिस को क्रूर होने का मौका ही क्यों देते हैं? उन्हें पुलिस से अनावश्यक मुठभेड़ क्यों करनी चाहिए? पुलिस पर पत्थर फेंकना, उसे अपने ऊपर आक्रमण करने के लिए उकसाना अच्छी बात नहीं। प्रदर्शकारियों को चाहिए कि वे पुलिस को मित्र बनाने का प्रयत्न करें। बेशक इसके बावजूद पुलिस बहुत दिनों तक अपना काम उसी तरह करेगी जिस तरह वह करती आई है, पर धीरे-धीरे उसके स्वभाव और चरित्र में परिवर्तन आएगा। नहीं भी आया, तो शिष्ट और सुसंस्कृत होने में बुराई क्या है?

क्या औरत ऐसी भी होती है


स्त्रियों के महिमान्वयन का सवाल
राजकिशोर


पुरुष क्रूर और निर्दय होते हैं तथा स्त्रियां सहृदय और ममतामयी -- साहित्य और संस्कृति में परंपरागत मान्यता यही है। इस मान्यता को आज भी सार्वजनिक भाषणों में दुहराया जाता है। लेकिन ज्यादातर पुरुष इससे सहमत दिखाई नहीं देते। स्त्रियों को आज तक जिस तरह पद-दलित किया गया है और आज भी किया जा रहा है, उसे देखते हुए यह उम्मीद बेकार है कि स्त्रियों के गुणों और विशेषताओं को सामान्य जन द्वारा स्वीकार किया जाएगा। गुलामों में क्या गुण हो सकता है ! अगर कुछ गुण दिखाई देते हैं, तो इसी कारण कि उन्हें बंधन में रखा गया है। दिलचस्प यह है कि जहां साहित्य और संस्कृति में स्त्री जाति का महिमान्वयन किया गया है, वहीं लोक जीवन में ऐसी अनेक कहावतें प्रचलित हैं, जिनके अनुसार स्त्री बहुत ही धूर्त, बेवफा और मूर्ख प्राणी है। एक कहावत में कहा गया है कि स्त्रियों को नाक न हो, तो वे गू खाएं। दूसरी कहावत त्रिया चरित्र के बारे में : खसम मारके सत्ती होय।

आधुनिक भारत में स्त्रियों के प्रति यह विद्वेष और मजबूत हुआ है। इसका कारण यह है कि शिक्षा और अवसर पाने के बाद स्त्रियां बड़े पैमाने पर ऐसे रोजगारों में उतरी हैं जो पुरुषों के लिए आरक्षित माने जाते रहे हैं। इस तरह पुरुषों के लिए अवसर कुछ कम हुए हैं। यद्यपि दुनिया भर का अनुभव यही है कि स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कम महत्वपूर्ण काम दिए जाते हैं और उन्हें वेतन तथा मजदूरी भी कम मिलती है। फिर भी स्त्रियों का सार्वजनिक जीवन में उतरना मर्दों को नहीं भाता। सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के उतरने से पुरुष-स्त्री के बीच समानता के मूल्य बनते हैं और स्त्रियों में विभिन्न स्तरों पर आत्मनिर्भरता आती है। यह पुरुषों के लिए संकेत है कि सत्ता पर उनका एकाधिकार खत्म हो रहा है और स्त्रियां, जो अब तक उनके कब्जे में रही हंैै, आजाद हो रही हैं। यह बात गैर-प्रबुद्ध पुरुष मंडली को नागवार गुजरती है। मुख्यतः यही कारण है कि महिला आरक्षण विधेयक पुरुष-प्रधान भारतीय संसद में पारित नहीं हो पा रहा है।

हाल ही में जेपीनगर जिला मुख्यालय के पास बाबनखेरी गांव में एक लोमहर्षक कांड हुआ। एक महिला ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर अपने माता-पिता, दोनों भाइयों, भाभी, ममेरी बहन की दोस्त और एक नाबालिग भतीजे की हत्या कर दी। यह इस तरह का शायद पहला कांड है। कारण क्या था, इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ बताया नहीं जा सका है। कारण कितना भी प्रबल हो, पर एक ही रात में सात-सात परिजनों की हत्या एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है। इस करुण घटना पर टिप्पणी करते हुए एक सज्जन 'चोखेर बाली' नामक विख्यात ब्लॉग में 'औरत ऐसी भी होती है क्या' शीर्षक से लिखते हैं : 'मिनटों में इस नारी ने एक प्यार भरे घर को कब्रिस्तान बना डाला। नारी मां होती है, पर इस नारी ने तो एक डायन का रोल अदा किया। क्यों किया उसने यह सब? क्या कमी थी उसे? क्या चल रहा था उसके मन में ? क्या यह सब उसने अपने प्रेमी के लिए किया?'

ये बड़े सवाल हैं। इनका उत्तर विस्तृत जांच के बाद ही मिल सकता है। लेकिन इस तरह की घटनाएं आजकल काफी छपने लगी हैं कि पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर पति को जहर दे दिया या प्रेमी-प्रेमिका दोनों ने मिल कर पत्नी या पति की हत्या कर दी। ऐसी घटनाएं पता नहीं कब से हो रही हैं। इन्हीं की ओर संकेत करने के लिए 'किस्सा तोता मैना' जैसी दिलचस्प किताब लिखी गई थी, जिसमें तोता एक कहानी द्वारा साबित करता है कि औरतें बेवफा होती हैं, तो मैना दूसरी कहानी के माध्यम से साबित करती है कि नहीं, बेवफा तो मर्द होते हैं। सच्चाई यह है कि दोनों ही अर्धसत्य हैं। पहले पुरुष ज्यादा स्वैराचारी होते थे, तो आजादी और खुलापन बढ़ने से अब स्त्रियां भी स्वैराचारी होने लगी हैं और हिंसा को भी अपना रही हैं। इससे पुरुष मानसिकता के अनेक प्रतिनिधि यह कहने लगे हैं कि स्त्रियों का महिमान्वयन ठीक नहीं है, क्योंकि त्रिया चरित्र ही उनका वास्तविक गुण है। जब वे और ज्यादा आजाद होंगी, तो और कहर मचाएंगी।

पश्चिम में जहां स्त्रियां काफी हद तक आजाद हो चुकी हैं, ऐसे प्रमाण नहीं मिलते कि वे बड़े पैमान पर डायन हो चुकी हैं। उनमें से अनेक हिंसा कर रही हैं और परिवारों को बरबाद कर रही हैं, यह तथ्य है। लेकिन यह साबित होना बाकी है कि स्त्री का वास्तविक रूप यही है। सभी समाजों में स्त्रियां अधिक मानवीय दिखाई देती हैं। शायद प्रकृति ने उन्हें ऐसा बनाया ही है, क्योंकि इसके बिना वे संतति परंपरा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर पातीं। बेशक कुछ माताएं भी क्रूर साबित हुई हैं, लेकिन ये घटनाएं अपवाद ही हैं, नियम का रूप नहीं ले पाई हैं। फिर भी यह मानने में कोई हर्ज नहीं दिखाई देता कि हम वास्तविक स्त्री को नहीं जानते। अभी तक स्त्रियों को बनाया गया है। वे अपने स्वाभाविक रूप में प्रस्फुटित नहीं हुई हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरुष भी वैसे बनाए गए हैं जिस रूप में वे उपलब्ध हैं। अर्थात एक ही संस्कृति एक खास तरह के पुरुष और एक खास तरह की स्त्रियों का निर्माण कर रही है। फिर भी इसी संस्कृति में गौतम बुद्ध, ईसा मसीह और गांधी जैसे पुरुष पैदा होते हैं और कैकेयी, तिष्यरक्षिता तथा फूलन जैसी स्त्रियां।
तथ्य यह भी है कि जब पुरुष कोई क्रूर घटना करता है, तो हम दांतों तले उंगली नहीं दबाते। लेकिन जब स्त्री ऐसा करती है, तो हम घोर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। इसी से साबित होता है कि पुरुष की तुलना में स्त्रियों से अधिक मानवीय होने की अपेक्षा की जाती है। क्या इसी बात में स्त्री चरित्र के बेहतर होने की स्थापना निहित नहीं है? आखिर कोई तो वजह है कि अब तक कोई स्त्री हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन या माओ नहीं बनी। इसका यह उत्तर पर्याप्त नहीं है कि स्त्रियों को पर्याप्त राजनीतिक सत्ता नहीं मिली है। जबाब यह भी दिया जा सकता है कि स्त्रियों के हाथ में पहले सत्ता तो दीजिए, फिर देखिए क्या होता है। हो सकता है कि स्त्री-पुरुष के बारे में परंपरागत मान्यताएं ध्वस्त हो जाएं। हो सकता है, व्यवस्था में सुधार आए। जो भी हो, निवेदन है कि पुरुष की तरह स्त्री को भी वैसा बनने का हक दीजिए जैसा वह होना चाहती है। एक वर्ग आजाद हो या नहीं, इसका फैसला करनेवाला दूसरा वर्ग कैसे हो सकता है? 000

मैत्रेयी पुष्पा का साक्ष्य

विवाह की ट्रेजेडी का आख्यान

राजकिशोर


दिल्ली में और दिल्ली के बाहर ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिनका दावा है कि वे 'इदन्नम', 'चाक' और 'अल्मा कबूतरी' जैसे उपन्यासों की लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के बारे में सब कुछ जानते हैं। उनमें से शायद ही किसी को इस बात की जानकारी हो कि मैत्रेयी का एक उपन्यास दांपत्य जीवन की कटुता यानी पति के गुस्से का शिकार हो गया था और पूरा उपन्यास लेखिका को दुबारा लिखना पड़ा था। उस प्रसंग को याद करते हुए मैत्रेयी अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग 'गुड़िया भीतर गुड़िया' में लिखती हैं : 'डॉक्टर साहब की नाराजगी मेरे उपन्यास की पांडुलिपि ले डूबी। चिंदी-चिंदी घर में उड़ रही थी और मैं बिलख-बिलख कर रो रही थी। ऐसे में मां ही होती है जो व्यथा सुन सकती है। मगर वे नहीं आईं, उन्होंने पत्र लिखा।
मां ने अपने पत्र में दो मूल बातें कही थीं। एक, 'तू कुछ न बनी, बस कवि बन गई। इससे किसका भला होगा? तू कुछ कमाती तो पति तेरा वैल्यू समझता। आदमी को रुपया-पैसा औरत से भी ज्यादा प्यारा होता है।' यह बात शायद ठीक से कही नहीं गई थी। पुरुष कमाऊ पत्नी को पसंद करते हैं, लेकिन अपने ही घर में लेखिका की अवहेलना इसलिए नहीं हो रही थी। यह इसलिए हो रही थी, क्योंकि तब लेखिका के पास आय के स्रोत नहीं थे। वे अपने गुजारे के लिए पति पर निर्भर थीं। इसीलिए पति को यह साहस हो सका कि वे अपनी पत्नी की जब-तक ठुकाई करते रहें। दो, 'मैंने तो पहले ही कहा था ब्याह मत करे, तेरे लक्षण ब्याहवाली लड़कियों से अलग हैं।' इसके बाद मैत्रेयी पुष्पा के हृदय से जो उद्गार निकला, वह मनन करने योग्य है --'माताजी की चिट्ठियां या मेरी पांडुलिपि की ËSÉÊnùªÉÉÆ… मेरा कलेजा तार-तार हो गया और दिल से बस यही निकला -- माताजी, मैं अब विधवा कब हूंगी?'
बुरी से बुरी स्थिति में भी कोई स्त्री विधवा होना नहीं चाहती। मैत्रेयी भी नहीं चाहती होंगी कि उनके पति का अचानक देहांत हो जाए और वे पुन: मुक्त स्त्री हो जाएं। वे सिर्फ विवाह के संताप से मुक्त होना चाहती थीं, लेकिन उनके दिल से निकला तो यह क्रूर और हताश वाक्य - माताजी, मैं अब विधवा कब हूंगी? इस वाक्य की थोड़ी चीरफाड़ की जाए, तो रहस्य का एक सिरा हाथ लगता है। हिन्दू स्त्री जानती है कि मृत्यु के पहले उसकी मुक्ति नहीं है। बेशक इस विवाह में अब तलाक की व्यवस्था है, लेकिन तलाक पाना आसान नहीं है। आसान हो, तब भी तलाक के नतीजे, खासकर जब बच्चे हो गए हों, इतने भयावह हैं कि तलाक किसी समाधान की तरह दिखाई नहीं देता। खासकर उन स्त्रियों के लिए जो मैत्रेयी पुष्पा की तरह गांव की पृष्ठभूमि से शहर में आई हैं -- वे भीतर से तो मुक्त और साहसी होती हैं, पर शहर की दुनिया का मुकाबला कैसे करें, यह नहीं जानतीं। अतएव वे तमाम तकलीफें सहते हुए भी विवाह को तोड़ने का जोखिम लेना नहीं चाहतीं। हालांकि इस आत्मकथा के शुरू में ही इल्माना नाम की एक तेजस्वी स्त्री का जिक्र आया है, जिसने विवाह के भीतर घुटते रहने से तलाक लेना बेहतर समझा, लेकिन लेखिका में जद्दो-जहद करने की क्षमता चाहे जितनी हो, उसकी मानसिक पृष्ठभूमि इस तरह की नहीं है कि वह अपने वैवाहिक संबंध को लात मार कर स्वतंत्र जीवन जीने की शुरुआत कर सके। वह स्त्री पहले है, लेखक बाद में। लेकिन वह स्त्रीत्व का क्या करे, जो उसके रचनात्मक विकास में बाधक हो रहा हो? इसीलिए उसके अंतस से यह करुण आवाज उठती है कि अब मेरे स्वतंत्र होने का रास्ता क्या है? जाहिर है, वह अपनी कुमारी अवस्था में लौट जाना चाहती है, जब उस पर किसी प्रकार के बंधन नहीं थे और वह अपना मनचाहा जीवन जी सकती थी। माताजी, मैं अब विधवा कब हूंगी -- के पीछे स्वतंत्रता का यही आर्तनाद है, किसी की मृत्यु की कामना नहीं। वैधव्य का अर्थ कुंआरापन है, वैवाहिक स्थिति के अवसान की कामना है। अन्यथा विधवा होने का चाव किसे हो सकता है?
दरअसल, यह पूरी आत्मकथा विवाह संस्था के विरुद्ध एक लंबी एफआईआर है। विवाहित स्त्री का जीवन कितना दयनीय हो जाता है, यह बात कही तो बार-बार जाती है, पर आत्मकथा के स्तर पर इसके साक्ष्य बहुत ज्यादा उपलब्ध नहीं हैं। बहुत पहले मैंने नयनतारा सहगल की एक किताब पढ़ी थी -- रिलेशनशिप, जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया था कि विवाह के बाद उनकी स्थिति क्या हो गई थी। उन्हें न केवल कैद कर दिया जाता था, बल्कि उन पर हाथ भी उठाया जाता था। इस तरह के छिटपुट वृत्तांत मिल जाते हैं, लेकिन हिन्दी में यह शायद पहली मुकम्मिल किताब है जिसमें वैवाहिक जीवन की घुटन का सिलसिलेवार और विश्वसनीय वर्णन सामने आया है। कहा जा सकता है कि डॉ. रमेशचंद्र शर्मा से उनका संबंध एक बेमेल विवाह था, जिसमें पति की अपेक्षाओं का पत्नी की विकास यात्रा से कोई तारतम्य नहीं था था। इसलिए इस संबंध में अपने-अपने स्तर पर दोनों कसमसा रहे थे। लेकिन सभी नहीं तो अधिकांश विवाह क्या बेमेल विवाह ही नहीं होते? जब राम और सीता का विवाह अंत में बेमेल विवाह ही साबित हुआ, तो साधारण विवाहों की क्या बिसात! मैं तो यह भी कहने के लिए तैयार हूं कि अगर कोई विवाह शुरू में बेमेल नहीं होता, तो विवाह से पैदा होनेवाली स्थितियां ही उसे बेमेल बना देती हैं। दरअसल, यह ऐसा संबंध है, जिसमें प्रेम के बंधन और स्वतंत्रता की मांग के बीच संतुलन बिंदु बना पाना महात्माओं के लिए ही संभव है।विवाह संस्था पर दुनिया भर में विचार-पुनर्विचार चल रहा है। पश्चिमी समाजों में तो विवाह एक खामोश मौत मर रहा है। वहां एकल माताओं और एकल पिताओं की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि भविष्य के बारे में सोच कर डर लगता है। फिर भी विवाह हो रहे हैं और समाज व्यवस्था के स्तर पर विवाह की विदाई का कोई प्रस्ताव उभरता हुआ दिखाई नहीं देता। इसके कारण हैं और ठोस कारण हैं। विवाह के अभ्युदय के पहले मानव समाज लाखों-करोड़ों साल तक उन्मुक्त जीवन बिता चुका था, जैसा कि पशु जगत में अब भी देखा जाता है। पशु जगत में पेयरिंग अब भी होती है, पर पाणिग्रहण का कोई विधान नहीं है। जब से विवाह आया, तभी से स्त्री पराधीन हुई। विवाह का इतिहास वस्तुत: स्त्री की पराधीनता का इतिहास है। कुछ हद तक पुरुष की पराधीनता का भी। अब जबकि स्त्री एक आत्मनिर्भर इकाई हो रही है, वह अपनी खोई हुई आजादी की मांग कर रही है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में विवाह संस्था का अवसान उससे अधिक समस्याएं पैदा करेगा जितनी समस्याओं का वह समाधान करेगा। जब विवाह नहीं था, तब सामुदायिकता थी। अब जब दूसरी बार विवाह नहीं होगा, उसके पहले एक सामुदायिक व्यवस्था की खोज करना आवश्यक होगा। इसे ही समाजवाद कहते हैं। निजी पूंजी और बाजारवाद के रहते हुए विवाहहीनता विवाह से ज्यादा भारी ट्रेजेडी होगी।

तिब्बत की आजादी का संघर्ष

तिब्बत के लिए लड़नेवालों को सलाम
राजकिशोर


तिब्बत की आजादी के लिए इस समय जो संघर्ष चल रहा है, उसे दिए और तूफान की लड़ाई कहा जा सकता है। परंपरागत दृष्टि से देखें, तो दिया तिब्बत है और तूफान चीन। लेकिन भविष्यवादी दृष्टि से देखने पर लगेगा कि तूफान की शक्ति तिब्बत में आ गई है और चीन दिए की तरह टिमटिमा रहा है। दुनिया भर के लोकतंत्र-कामी लोग तिब्बत के साथ हैं और चीन को सिर्फ उनका समर्थन मिल रहा है जो कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही को लोकतंत्र का उच्चतम संस्करण मानते हैं।

तिब्बत की मुक्ति का संघर्ष कम से कम 48 वर्ष पुराना है। छोड़ा पीछे जाएं तो 1949 में ही तिब्बत में एक राष्ट्रीय उभार आया था, जो पड़ोसी चीन की दादागीरी के खिलाफ था। वह 10 मार्च का दिन था। दुनिया भर के तिब्बती इस दिन राष्ट्रीय उभार दिवस मनाते हैं। लेकिन इस बार तिब्बत के लोगों ने इसका चरित्र पूरी तरह बदल दिया। अभी तक जो रस्म-अदायगी होती थी, उसने सचमुच एक राष्ट्रीय उभार का रूप ले लिया। गुलामी को बरदाश्त करने की एक सीमा होती है। चीन ने 49 साल-लंबे अत्याचार के द्वारा तिब्बती लोगों के दिलों में आग भर दी है। इस आग की लपटें दुनिया भर में देखी जा सकती हैं। इस मामले में भारत दुनिया के इस जाग्रत हिस्से का अंग है। दिल्ली के जंतर मंतर में लगभग सौ तिब्बती स्त्री-पुरुषों को चीन सरकार की नृशंसता का विरोध करते हुए और भारत सरकार की अंतरात्मा को जगाने का प्रयास करते हुए देखा जा सकता है। प्रश्न यह उठता है कि भारत सरकार की अंतरात्मा छुट्टी पर तो नहीं चली गई है? कुछ लोग मुसकराते हुए पूछ सकते हैं कि यह अंतरात्मा कभी ड्यूटी पर थी भी?

1950 में जब चीन की सेना तिब्बत में घुसी और चामदो में उसने तिब्बत की सेना को परास्त कर दिया, तभी से चीन ने छल-बल से तिब्बत पर अवैध कब्जा जमा रखा है। यह कब्जा अवैध इसलिए है कि 23 मई 1951 की जिस संधि के तहत तिब्बत की तत्कालीन सरकार ने तिब्बत को चीन के बृहत परिवार का अंग मान लिया था, उस संधि के प्रावधानों का चीन की सरकार ने बार-बार उल्लंघन किया। वह संधि तिब्बत में सामंती और साम्राज्यवादी अवशेषों को खत्म करने के लिए चीन की सेना का सहयोग देने और लेने के लिए की गई थी, पर उसकी बिना पर खुद चीन ने तिब्बत में एक सामंती और साम्राज्यवादी शासन की नींव रख दी। तिब्बत अपने सुदीर्घ इतिहास में पहली बार एक गुलाम देश बना। आठ ही वर्षों में तिब्बत की जनता का इस कदर दमन किया गया कि तिब्बत के धर्मगुरु और सम्राट दलाई लामा को अपना वतन छोड़ कर पलायन करना पड़ा। उन्होंने चीन की किसी जेल में सड़ने से आत्मनिर्वासित जीवन बिताना उचित समझा। उन्होंने भारत में शरण ली। यह दलाई लामा की दूसरी गलती थी।

उनकी पहली गलती थी चीन के साथ उस संधि का समर्थन करना जिसमें तिब्बत की सरकार को तिब्बत की स्थानीय सरकार कहा गया था। इस संधि का समर्थन करने के बजाय उन्हें उसी समय चीन की वर्चस्ववादी कोशिशों के खिलाफ संघर्ष छेड़ देना चाहिए था। जो राजनेता भविष्य का अनुमान न लगा सके, वह राजनेता कैसा? लेकिन दलाई लामा धर्मगुरु भी हैं। उनका धर्म एक ऐसा धर्म है जिसके केंद्र में करुणा है। धार्मिक लोग न लड़ते हैं, न लड़ाते हैं। वे शांति चाहते हैं। उस समय के सत्तासीन दलाई लामा और तिब्बतियों के दूसरे सबसे बड़े नेता पंचेन लामा ने यह सोच कर संघर्ष के बजाय शांति का विकल्प चुना होगा कि अगर तिब्बत की स्वायत्तता को स्वीकार करते हुए चीन तिब्बत को अपना हिस्सा मान लेता है और खून-खराबे की नौबत टल जाती है, तो यही श्रेयस्कर है। इसी कमजोर आधार पर तिब्बत ने चीन के साथ एक शर्मनाक समझौता किया। इस समझौते के बल पर ही चीन मानता है कि तिब्बत चीन का अविच्छेद्य अंग है। लेकिन शोषण और अन्याय पर टिकी हुई शांति हमेशा अल्पजीवी होती है। यही वजह है कि 1959 में तिब्बत की आत्मनिर्वासित सरकार ने इस संधि की मान्यता वापस ले ली।

जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत उन दिनों विश्व नेता बनने का स्वप्न देख रहा था। यद्यपि इसे विश्व यारी बतानेवाले लोहिया लगातार भारत सरकार की दुतरफा अवसरवादी विदेश नीति की धज्जियां उड़ा रहे थे, पर भारत के बुद्धिजीवियों के वामपंथी मोतियाबिंद के कारण नेहरू के आभामंडल में कोई फर्क नहीं पड़ा। उस समय चीन भी अपनी अवसरवादिता के परिणामस्वरूप पंचशील के प्रणेताओं में एक बना हुआ था। भारत को इसका खमियाजा 1962 में भोगना पड़ा और आज तक भोगना पड़ रहा है। दलाई लामा ने 1959 में सोचा होगा कि भारत तिब्बत की आजादी को वापस लौटाने में मदद करेगा। लेकिन एक गरीब देश की आजादी और लोकतंत्र के प्रति भारत की प्रतिबद्धता नाखून भर ही थी। आज तो वह बिलकुल जीरो है। भारत सरकार को यह घोषणा करते हुए शर्म नहीं आई कि हम भारत की जमीन पर चीन-विरोधी राजनीतिक गतिविधियां बर्दाश्त नहीं करेंगे। दूरदृष्टि दिखाते हुए दलाई लामा अगर 1959 में भारत के बजाय इंग्लैंड चले गए होते, तो तिब्बत की आजादी का संघर्ष तुरंत शुरू हो सकता था। तिब्बत के लोग देर से जगे हैं। लेकिन इस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चीन की चांदी है। दुनिया का कोई भी देश उसे नाराज नहीं करना चाहता।

हमारे विद्वान प्रधानमंत्री ऑक्सफोर्ड में अपने इतिहास ज्ञान का परिचय दे चुके हैं। वहां उन्होंने ब्रिटेन के लोगों को याद दिलाया कि भारत पर उनके इतने एहसान हैं। ठीक ही कहा गया है, अल्प विद्या भयंकरी। जंतर मंतर पर तिब्बतियों के जोश-भरे, पर कुम्हलाए चेहरों को देख कर हममें से अनेक को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में और बीसवीं शताब्दी के शुरू के वर्षों में कनाडा, अमेरिका, लंदन, आयरलैंड आदि में होनेवाली उन छोटी-छोटी बैठकों की याद आ रही थी जहां हमारे साहसी पूर्वज हिंदुस्तान को आजाद करने की योजनाएं बनाते थे। ऐसे ही उत्साही लोगों के एक संगठन का नाम था, गदर पार्टी। भारत के स्वाधीनता संघर्ष में इन बहादुरों के योगदान को कम करके आंका गया है। यह भुला देने की बात नहीं है कि विदेश में शुरू होनेवाले इन संघर्षों में ही भारत की आजादी के बीज थे। ऐसे ही बीज जंतर मंतर में दिखाई पड़ रहे हैं। इनके महत्व को भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।

ये बीज सिर्फ भारत में नहीं छटपटा रहे हैं। ओलंपिक की मशाल जिस-जिस देश से गुजरी, वहां-वहां तिब्बत के दुखी, पर साहसी लोगों ने चीन की बर्बरता के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस बर्बरता का पूरा आकलन आज नहीं किया जा सकता, क्योंकि चीन ने ऐसे कठोर उपाय कर रखे हैं जिससे चीन के भीतर क्या घटित हो रहा है, इसकी जानकारी दुनिया को न हो सके। अनुमान है कि चीन के एक हिस्से में जो घटित हो रहा होगा, उसकी पूरी सूचना चीन के दूसरे हिस्सों में रहनेवालों को नहीं मिल रही होगी। चूंकि चीन तिब्बत को अपना ही हिस्सा मानता है, इसलिए वहां भी उसने अपना डिक्केटरशिप वाला रवैया अपना रखा है। फिर भी तिब्बत से विभिन्न स्रोतों से आनेवाली खबरों के अनुसार चीन की सरकार दो सौ से ज्यादा लोगों की जान ले चुकी है और पांच हजार से ज्यादा लोगों को जेल भेज चुकी है। अनगिनत लोगों को तरह-तरह की यातना दी जा रही है। इन सभी का कसूर वही है जो कसूर अपने शुरू के वर्षों में माओ दे चुंग नेता कर चुके थे यानी स्वतंत्रता और जनवाद के लिए संघर्ष। बाद में इन्हीं महाशय ने तिब्बत को गुलामी की आग में झोंक दिया।

चीन और तिब्बत के संबंधों का सबसे कठोर प्रश्न यह है कि अगर चीन तिब्बत को वास्तव में अपना हिस्सा मानता है, तो वह मुख्य भूमि के विकास और तिब्बत के ह्रास के लिए प्रयत्नशील क्यों रहा है। यह सच है कि चीन में तिब्बत में सड़कें बनाई हैं, बिजली का प्रसार किया है, लेकिन उपनिवेशवादी अंग्रेजों ने भी तो भारत में विकास के ये काम किए थे, जिसका एहसान भारत के प्रगतिशील लोग और मध्य वर्ग के पिट्ठू सदस्य आज भी मानते हैं। यह कुछ ऐसी ही घटना है जैसे भारत सरकार ने उत्तर-पूर्व में सड़कों का जाल बिछा दिया है। शासकों द्वारा अपनी सुविधा के लिए किया गया इस तरह का विकास सर्वत्र एक छल होता है। तिब्बत के साथ यही छल किया गया है। वरना तिब्बत की आर्थिक विकास दर और चीन की आर्थिक विकास दर में इतनी बड़ी खाई क्यों है? तिब्बत क्यों चीन का पिछवाड़ा बना हुआ है, जहां प्रदूषण और रेडियोधर्मिता फैलानेवाला कचरा लंबे समय से डंप किया जा रहा है? चीन की जनता को जो आजादियां सुलभ नहीं हैं, वे आजादियां तिब्बत की जनता को नहीं दी जा सकतीं, यह तर्क गलत नहीं है, पर चीन को एक संपन्न देश बनाने के लिए जो निवेश नीति अपनाई जा रही है, वही निवेश नीति तिब्बत में अपनाना पाप है, इसका तर्क क्या हो सकता है? जाहिर है कि तिब्बत के लोग अगर चीन को अपना देश नहीं मानते, तो चीन भी तिब्बत के लोगों को अपना भाई-बहन नहीं मानता। फिर अन्याय और विषमता पर आधारित यह संयुक्त परिवार कब तक टिक सकता है? सेना के बल पर जो एकता हासिल की जाती है और कायम रखी जाती है, उसके पांव के नीचे की जमीन भुरभुरी होती है।

इसीलिए दुनिया भर में स्वतंत्रता के संघर्ष सफल हुए हैं। चीन के बर्बर शासक सोचते हैं कि वे इतिहास की इस अदम्य धारा को उलटा मोड़ सकते हैं, तो वे बहुत भारी संभ्रम के शिकार हैं। उन्हें तो सबसे पहले अपने चीन की फिक्र करनी चाहिए, क्योंकि वहां आधुनिकता सिर्फ उपभोक्तावाद के रूप में नहीं, कुछ सकारात्मक रूपों में भी पहुंच रही है। चीन आज अपने लोगों को अंग्रेजी पढ़ा रहा है, ताकि विश्व अर्थव्यवस्था में वह ज्यादा स्थान घेर सके। उसे याद नहीं है कि भारत के स्वाधीनता संघर्ष में अंग्रेजी के ज्ञान ने बहुत निर्णायक भूमिका अदा की है।
आज अंतरराष्ट्रीय स्थिति ऐसी है कि तिब्बत के मुक्ति-सैनिकों को जल्दी सफलता नहीं मिल सकती। दुनिया भर में स्वतंत्रता और स्वायत्ता के संघर्ष गहरा रहे हैं, तो वर्चस्ववादी ताकतें भी मजबूत और संगठित हो रही हैं। हालात इतने बुरे हैं कि इराक के साथ स्पष्ट रूप से अन्याय होने और जारी रहने के बावजूद उसे स्वतंत्र देखने की इच्छा रखनेवालों पर निराशा के झोंके आते रहते हैं। यह खुशी की बात है कि इस सबसे तिब्बत की आजादी के दीवाने हताश नहीं हुए हैं। वे अपना संघर्ष बहुत ही धीरता और अहिंसक ढंग से चला रहे हैं। आतंकवाद ने उन्हें जरा भी आकर्षित नहीं किया है। उनमें गांधी जी का कुछ तत्व दिखाई देता है। इसलिए उनकी सफलता निश्चित है। उन्हें भारत की जनता का सलाम।

कर्नाटक में भाजपा की जीत

कीचड़ में कमल
राजकिशोर

इस विडंबना पर विचार करना हमें फिलहाल स्थगित कर देना चाहिए कि कम वोट पाने पर भी अधिक सीटें कैसे हासिल हो जाती हैं। यह भारतीय राजनीति का एक ऐसा पेच है, जिसे खोलना सब जानते हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल खोलना नहीं चाहता। इसका कारण यह है कि समय-समय पर सभी दल इससे लाभान्वित होते रहे हैं। इसलिए उन्हें उम्मीद है कि वे आगे भी लाभान्वित होते रहेंगे। इस विडंबना का ही नतीजा है कि कर्नाटक के इस विधान सभा चुनाव में भाजपा को 33.8 प्रतिशत वोट मिले और 110 सीटें और कांग्रेस को उससे कुछ अधिक वोट मिले यानी 34.5 प्रतिशत, लेकिन सीटें मिलीं सिर्फ 80। यानी प्राप्त वोट प्रतिशत में फर्क सिर्फ .7 प्रतिशत का और सीटों की संख्या में फर्क 30 का। फिर भी क्या इसे लोकतंत्र ही कहेंगे? हां, लोकतंत्र ही कहेंगे, क्योंकि भारत की राजनीतिक व्यवस्था इसी दोषयुक्त चुनाव प्रणाली के पक्ष में है। वह चुनाव प्रणाली में ऐसा कोई संशोधन नहीं कना चाहती जिससे विभिन्न राजनीतिक दलों की वास्तविक शक्ति ही उन्हें मिलनेवाली सीटों की संख्या में व्यक्त हो।

इसके बावजूद यह तो स्वीकार करना ही होगा कि कर्नाटक में भाजपा की जीत हुई है और वही सरकार बनाएगी। लेकिन इस जीत का अर्थ यह लगाया जाए कि भाजपा के गुणों को देख कर मतदाताओं ने उसे अपना विश्वास बख्शा है, तो यह अनर्थ होगा। 2004 के विधान सभा चुनाव की तुलना में इस बार सिर्फ अधिक 5.3 मतदाताओं ने उसके पक्ष में वोट दिया है। यह मत परिवर्तन इतना बड़ा नहीं है कि भाजपा उस पर इतरा सके। लोकतंत्र के बुनियादी उसूल के हिसाब से देखा जाए, तो वोट प्रतिशत के हिसाब से वह घोर अल्पमत में है। सिर्फ एक-तिहाई वोटों के आधार पर वह अगर विधान सभा में अपना बहुमत कायम कर लेती है, तो यह उन दो-तिहाई मतदाताओं का अपमान है जिन्होंने कांग्रेस तथा अन्य राजनीतिक दलों का अपमान है। इस तथ्य का महत्व इस बात में है कि राजीव गांधी को छोड़ कर कांग्रेस की किसी भी सरकार को आज तक 50 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिल सका है। यानी भारत में प्रायः सभी सरकारें अल्पमत की सरकारें रही हैं। इसी आधार पर कर्नाटक में भाजपा की सरकार को भी अल्पमत सरकार कहा जा सकता है। विधान सभा में अपनी स्थिति की कसौटी पर भी वह साफ अल्पमत में है। भाजपा को सिर्फ 110 सीटें मिली हैं और कांग्रेस (80) तथा जनता दल (28) को मिला कर 128 सीटें बनती हैं। लेकिन इससे क्या ! सरकार तो भाजपा ही चलाएगी।

जो लोग बार-बार यह लिख रहे हैं कि दक्षिण भारत में पहली बार कमल खुला है, वे इसे रेखांकित नहीं करना चाहते कि यह कमल भारतीय राजनीति के कीचड़ में खिला है। कर्नाटक में शुरू से ही कांग्रेस का राज रहा है। यहां तक कि इमरजेंसी के बाद 1977 में होनेवाले लोक सभा चुनाव में भी उसने इंदिरम्मा का ही साथ दिया था। बाद में यह जनता पार्टी की प्रयोग भूमि बना। लेकिन जनता पार्टी का शासन उस तरह स्थिरता प्राप्त नहीं कर सका जिस तरह पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा ने, जैसे-तैसे, स्थिरता प्राप्त कर ली है। कुछ समय तक वहां केरल जैसी स्थिति रही, जहां दो मोर्चा अदल-बदल कर सत्ता में आते रहे हैं। वैसे, यह हो भी जाता, तो खुशी की कोई बात नहीं थी। इस प्रणाली ने भले ही कुछ समय तक केरल का भला किया हो, पर त्वरित राजनीतिक पतन के इस समय में दोनों ही मोर्चों की राजनीतिक पवित्रता का क्षय हुआ है और केरल इस समय एक नए ढंग के राजनीतिक संकट का सामना कर रहा है। इसका समाधान आसान नहीं, क्योंकि केरल में किसी नई विचारधारा के उदय की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। इसलिए आनेवाले समय में अगर इस प्रगतिशील राज्य में भी भाजपा को बढ़त मिलने लगे, तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए।

कर्नाटक में कमल का फूल उसी कीचड़ में खिला है जो आगे चल कर केरल को अपनी गिरफ्त में ले सकता है। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल की राजनीति में कीचड़ का तत्व बढ़ता गया। पूर्व प्रधानमंत्री एस.डी. देवगौड़ा के पुत्र प्रेम और सत्ता लिप्सा ने इस कीचड़ को दलदल का रूप दे दिया, जिसमें उनकी पार्टी किसी पागल हाथी की तरह धंसती चली गई। दूसरी ओर कांग्रेस ने कर्नाटक में किसी नई राजनीति का परिचय नहीं दिया। उलटे उसने देवगौड़ा और उनके सत्ता-लिप्सु पुत्र कुमारस्वामी के साथ मोलभाव करके यह साबित कर दिया कि उसका भी अपना एक कीचड़ है, जिससे वह बाहर निकलना नहीं चाहती। अपने इसी कीचड़ में वह उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को और बिहार में नीतीश कुमार के उतारना चाहती है। इस तरह कर्नाटक में दोनों सेकुलर विकल्प क्रमशः अपने आपको बदनाम करते चले गए। इसी का रणनीतिक लाभ मिला भारतीय जनता पार्टी को, जो धीरे-धीरे अपना प्रसार कर रही है। उस वक्त वह सत्ता में आ बैठी जब दोनों सेकुलर दलों ने यह साबित कर दिया कि वे सत्ता दिए जाने लायक नहीं हैं।

इस तरह, कर्नाटक में कोई नई राजनीतिक घटना नहीं हुई है। अभी तक देखने में यह आया है कि कमल का यह फूल वहीं-वहीं खिला है जहां कांग्रेस का पतन हुआ है और उस खाली जगह को भरने के लिए कोई अन्य धर्मनिरपेक्ष दल सामने नहीं आया है। उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थिति को देख कर इस स्थापना की परीक्षा की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की तरह भाजपा के पांव उखड़े तो उखड़ते चले गए। बिहार में कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प ने अपनी जमीन इस कदर मजबूत कर ली कि वहां भाजपा को पनपने का ज्यादा मौका नहीं मिला। कुछ मौका जरूर मिला, क्योंकि लालू प्रसाद के लंबे शासन ने सवर्णों को राजनीतिक दायरे से लगभग बाहर कर दिया था। फिर भी बिहार में इस समय सरकार मुख्यतः नीतीश कुमार की ही है। इसके विपरीत राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा की अदला-बदली होती रही है।

इसलिए उन महानुभावों को शक की निगाह से देखा जाना चाहिए जो सांप्रदायिक भाजपा को कमजोर करने के लिए धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को मजबूत करना चाहते हैं। इनका सबसे बड़ा अपराध यह है कि ये कांग्रेस से यह मांग बिलकुल नहीं करते कि वह अपने में रेडिकल परिवर्तन लाए, वंशवाद कोे छोड़े और अपनी सरकारों को जन हितैषी बनाए। वे वर्तमान कांग्रेस को ही स्वीकार करने के लिए राजी हैं ताकि उन्हें उनके मनचाहे स्थान और पद मिलते रहें। ऐसी कांग्रेस भाजपा को बढ़ने से रोक नहीं सकती। जब तक कीचड़ मौजूद है, भाजपा का कमल जहां-तहां खिलता रहेगा।

एक निर्णायक प्रश्न

समाजवाद क्या मानव स्वभाव के प्रतिकूल है
राजकिशोर




मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है -- युवा होते-होते यह वाक्य हम इतनी बार पढ़ चुके होते हैं कि इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। अर्थ इसलिए भी नहीं रह जाता कि जैसे-जैसे हम दुनिया देखते जाते हैं, इस बात का प्रमाण मिलना कम होता जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम कायल होते जाते हैं कि मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था तो हमें यह सिखाती भी है कि स्वार्थी बनो, नहीं तो मारे जाओगे। इस तरह हम यह मानने लगते हैं कि जिस तरह जीव ही जीव का भोजन है, उसी तरह मनुष्य ही मनुष्य का आहार है। तुम अपने प्रतिद्वंद्वी को नहीं खाओगे, तो वह तुम्हें खा जाएगा।

जब हम अपने अनुभव से पाते हैं कि मनुष्य ठीक से सामाजिक प्राणी भी नहीं है, तो वह समाजवादी प्राणी कैसे हो सकता है? ऐसे कई विचारक भी पैदा हो चुके हैं जिनका मानना है कि सामूहिक हित को साधने से व्यक्तियों के हित नहीं सधते, बल्कि व्यक्तिगत हित साधने से समाज का हित सध जाता है। व्यक्ति का स्वभाव ही ऐसा है कि जब वह सामाजिक काम करता है, तो ढिलाई बरतता है या चोरी करता है, पर अपने निजी काम में अपना पूरा चित्त और पूरी कुशलता झोंक देता है। इसलिए सरकार को कम से कम काम करना चाहिए और अधिकांश काम उद्यमी व्यक्तियों या उनके व्यावसायिक समूहों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इस निष्कर्ष को पुष्ट करने में उन समाजशास्त्रियों ने भी काफी मदद की है जो मूलतः जीववैज्ञानिक या जंतुवैज्ञानिक हैं। ये मछलियों, चींटियों, मधुमक्खियों, लोमड़ियों, सियारों, भेड़ियों और हाथियों की जिंदगी का अध्ययन करते हैं और बताते हैं कि मनुष्य भी एक जानवर ही है, इसलिए उससे बहुत अधिक परोपकारी होने की आशा नहीं करनी चाहिए। यानी समाजवाद को तो छोड़िए, सहज सामाजिकता की भी उम्मीद मत कीजिए।

मूल मानव स्वभाव क्या है? यह हम नहीं जानते। जानना संभव भी नहीं है। हम जिस मनुष्य को जानते हैं, वह हमेशा किसी न किसी व्यवस्था के अंग के रूप में दिखाई पड़ता है। कृषि संस्कृति का मनुष्य एक तरह का था, तो औद्योगिक संस्कृति का मनुष्य और तरह का है। अभी भी जो आदिवासी समूह बचे हुए हैं, वहां का मनुष्य इन दोनों से भिन्न होता है। साम्यवादी समाजों ने एक विचित्र तरह का मनुष्य बनाया था पति पत्नी से डरता था कि कहीं वह मेरी जासूसी तो नहीं कर रही है और पत्नी को भी पति से इसी तरह का डर था। सभी इतने डरे हुए थे कि कोई किसी से भी दिल की बात नहीं बता पाता था। इस तरह हर व्यक्ति हर व्यक्ति का दुश्मन हो गया था, जैसे पूंजीवादी समाजों में वह एक अन्य स्तर पर हो जाता है। फुटबाल की टीम में या रामकृष्ण मिशन तथा अच्छे धार्मिक संगठनों में हमें एक और तरह का मनुष्य देखने को मिलता है, जिसमें वैयक्तिकता कम और सामूहिकता ज्यादा मिलती है। सेना में एक अन्य प्रकार की सामूहिक चेतना दिखाई देती है। इनमें से कौन मूल मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है?

मनुष्य सामाजिक प्राणी है या नहीं और है तो किस अर्थ में, यह हम नहीं जानते। लेकिन यह जरूर जानते हैं कि मनुष्य एक सांस्कृतिक प्राणी है। उसका व्यक्तित्व जिस हद तक एक प्राकृतिक घटना है, उस हद तक या उससे कुछ ज्यादा हद तक वह अपनी संस्कृति की उपज है। पशुओं को ईश्वर के बारे में कोई सूचना नहीं है। वे ईश्वरविहीन दुनिया में रहते हैं। पर लगभग पूरी मानव आबादी ईश्वर पर भरोसा करती है। पशु झूठ बोलना नहीं जानता, पर कौन-सा आदमी है जिसने कभी न कभी झूठ न बोला हो? पूर्वी संस्कृतियों के मनुष्य का आचरण पश्चिमी संस्कृतियों के मनुष्य से भिन्न है। मांसाहार सामाजिक और पारिवारिक प्रवृत्तियों से नियंत्रित होता है। आज भी लगभग आधे भारतीय ऐसे हैं जो आदतन मांस नहीं खाते। बिशनोई जीव हत्या नहीं कर सकते, बल्कि जीवों की रक्षा करते हैं।

यह सांस्कृतिक विविधता आश्वस्त करती है कि समाजवाद कोई असंभव कल्पना नहीं है। अगर एक प्रकार के सांस्कृतिक दबावों से मनुष्य को धूर्त और मतलबी बनाया जा सकता है, तो दूसरे प्रकार के दबावों से उसकी सामाजिक चेतना को इतना उद्बुद्ध किया जा सकता है कि समाजवादी व्यवस्था उसे बेहतर लगनने लगे। इस प्रस्ताव के विरुद्ध ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि यह एक स्वप्न लोक है। यह आरोप मुझे स्वीकार है। दूसरे समाजवादियों को भी यह आरोप सिर झुका कर स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन इसका जवाब भी है। जवाब यह है कि हर सुंदर चीज एक स्वप्न लोक है। क्या लोकतंत्र एक स्वप्न लोक नहीं है? आपने किसी ऐसे समाज के बारे में पढ़ा या सुना है जो पूर्णतः लोकतांत्रिक है या जो इस तरफ बढ़ने का संघर्ष कर रहा हो? क्या धर्म एक स्वप्न लोक नहीं है? कई हजार वर्षों की सशक्त धार्मिक परंपरा कितने प्रतिशत लोगों को धार्मिक या धर्मभीरु बना पाई है? क्या स्वतंत्रता एक स्वप्न लोक नहीं है? वास्तव में हम कितने स्वतंत्र होते हैं? और समानता -- अखिल मानवता का सबसे बड़ा सपना ?


दुनिया स्वप्नजीवियों से ही उन्नत होती है, आगे बढ़ती है -- शहंशाहों, सेनापतियों और सेठों से नहीं। समाजवाद भी एक स्वप्न है। शायद आदर्श समाजवाद कही स्थापित नहीं होगा। लेकिन उस ओर बढ़ना हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है। हममें से हरएक को अपने आपसे पूछना चाहिए ः हम उधर नहीं बढ़े, तो किधर बढ़ें? जिधर चोर, बदमाश, बलात्कारी और लुटेरे बढ़ते हैं?एक स्वप्न लोक नहीं है? वास्तव में हम कितने स्वतंत्र होते हैं? और समानता -- अखिल मानवता का सबसे बड़ा सपना ?
दुनिया स्वप्नजीवियों से ही उन्नत होती है, आगे बढ़ती है -- शहंशाहों, सेनापतियों और सेठों से नहीं। समाजवाद भी एक स्वप्न है। शायद आदर्श समाजवाद कही स्थापित नहीं होगा। लेकिन उस ओर बढ़ना हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है। हममें से हरएक को अपने आपसे पूछना चाहिए ः हम उधर नहीं बढ़े, तो किधर बढ़ें? जिधर चोर, बदमाश, बलात्कारी और लुटेरे बढ़ते हैं?

Saturday, May 10, 2008

माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही

जिनका गुनहगार हूं मैं
राजकिशोर


दुनिया भर में जिस व्यक्ति का मैं सबसे ज्यादा गुनहगार हूं, वह है मेरी मां। जिस स्त्री ने मेरे सारे नखरे उठाए, जिसने मुझे सबसे ज्यादा भरोसा दिया, जिसने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की, उसे मैंने कोई सुख नहीं दिया। दुख शायद कई दिए। अब जब वह नहीं है, मेरा हृदय उसके लिए जार-जार रोता है।

लगभग साल भर से अकसर रात को सपने के वक्त या सपने में मेरी मां, मेरे पिता, मेरी भौजी, मेरे बड़े भाई किसी न किसी दृश्य में मेरे सामने आ उपस्थित होते हैं। बड़े भाई की मृत्यु पिछले साल ही हुई। वे मेरे पूर्व पारिवारिक जीवन की एकमात्र जीवित कड़ी थे। शायद उनकी मृत्यु के बाद से ही पुराने पारिवारिक दृश्य बार-बार मेरी स्मृति में या मेरे स्वप्न जगत में मुझे घेर ले रहे हैं। उस समय न कोई विषाद होता है, न कोई आनंद। बस मैं उस दृश्यावली का सामान्य अंग बना अपने अतीत को जीता रहता हूं। लेकिन आंख खुलने पर या वर्तमान में लौटने पर मुझे अपनी मां और पिता दोनों की बहुत याद आती है । यह ग्लानि घेर लेती है कि मैंने उनके साथ बहुत अन्याय किया। खासकर मां के साथ, जिसने मुझे अपने ढंग से बहुत प्यार दिया।

परिश्रमी तो मेरे पिता भी थे, पर मां के मेहनती होने को मैं अधिक गाढ़ी स्याही से रेखांकित करना चाहता हूं। हमारे समुदाय में स्त्रियों का मुख्य काम होता है खाना बनाना, कपड़े धोना और घर को साफ-सुथरा रखना। शुरू में यह सब करते हुए मैंने अपनी मां को कभी नहीं देखा, क्योंकि जब मैंने होश संभाला, मेरी ममतामयी भौजी घर का चार्ज ले चुकी थीं। मां मेरे और मेरे छोटे भाई और बहन के कपड़े जरूर धो देती थी। लेकिन बाद में जब पारिवारिक कलह के कारण मेरे बड़े भाई ने अपनी अलग इकाई बना ली, तो मां ने गजब जीवट का परिचय दिया। वह हम सबके लिए खाना बनाती थी, कपड़े भी धोती थी और दुकानदारी में पिताजी के साथ सहयोग भी करती थी। एक पल के लिए भी बेकार बैठना उसे गवारा नहीं था।

मैं उन दिनों आधुनिक साहित्य पढ़-पढ़ कर ऐसा उल्लू का पट्ठा हो चुका था कि एक छोटी-सी बात पर नाराज हो कर मैंने घर छोड़ दिया और अलग अकेले रहने लगा। वह दृश्य मुझे कभी नहीं भूलेगा जब करीब ग्यारह बजे अपने दो-चार कपड़े और कुछ किताबें एक छोटे-से सूटकेस में भर कर मैं घर छोड़ रहा था। पिताजी देख रहे थे, मां देख रही थी, पर किसी ने भी मुझे नहीं रोका। यह दुख अभी तक सालता है। वैसे तो थोड़ा बड़ा होते ही मुझे यह एहसास होने लगा था कि मेरा कोई नहीं है, पर उस घटना के बाद इसका फैसला भी हो गया।

दरअसल, मुझे न तो पिता पसंद थे, न मां। वे दोनों बहुत ही साधारण भारतीय थे। उन्हें न तो बच्चों से लाड़-प्यार करना आता था और न उनकी देखभाल करना। घर-द्वार सजाने में भी उनकी कोई रुचि नहीं थी। कपड़े फट जाने पर सिल-सिल कर पहने जाते थे -- जब तक वे एकदम खत्म न हो जाएं। गरीबी थी, पर उससे ज्यादा मानसिक गरीबी थी। एक तरह से मैं अपने आप ही पला, जैसे सड़क पर पैदा हो जानेवाले पिल्ले पल जाते हैं या मोटरगाड़ियों के रास्ते के किनारे के पौधे पेड़ होते जाते हैं। इसीलिए मेरे मानसिक ढांचे में काफी खुरदरापन है। प्रेम पाने की इच्छा है, प्रेम देने की इच्छा है, भावुकता भी है, लेकिन कुछ अक्खड़पन, कुछ लापरवाही, कुछ व्यंग्यात्मकता और कुछ गुस्सा भी है। आज मैं इस बात की सच्चाई को अच्छी तरह समझता हूं कि जिसे बचपन में दुलार नहीं मिला, उसका व्यक्तित्व जीवन भर के लिए कुंठित हो जाता है। मैं बहुत मुस्तैदी से इस कुंठाग्रस्तता से लड़ता हूं, फिर भी पार नहीं पाता।

दरअसल, मेरे कॉलेज जाने तक मेरे शेष परिवार और मेरे बीच एक भयानक खाई उभर आई थी। मैं पढ़ते-लिखते हुए मध्यवर्गीय जीवन के सपने देख रहा था और इसमें मेरे माता-पिता की कोई भूमिका नहीं थी। मैं एक नई भाषा सीख रहा था और वे भाषा और संस्कृति की दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए थे। वे न अखबार पढ़ते थे न रेडियो सुनते थे। मां पिता की तुलना में और भी पिछड़ी हुई थी। इस तरह के तथ्य मध्यवर्गीय चाहतों वाले मेरे मन में हीन भावना भरते थे। जब से उसे देखने की मुझे याद है, वह बूढ़ी ही थी और स्त्रीत्व की कोई चमक उसमें नहीं थी। शुरू में उसके प्रति मेरे मन में बहुत चाव था। जब चांद से लाए हुए पत्थर के टुकड़ों में से एक टुकड़े का प्रदर्शन कोलकाता में किया जा रहा था, मैं उसे अपने साथ वह टुकड़ा दिखाने ले गया था। लेकिन धीरे-धीरे मैं उससे उदासीन होने लगा, हालांकि वह अपने ढंग से मेरी चिंता करती रही। मैं जब घर के पास एक छोटा-सा कमरा ले कर रहने लगा, तो उसने ग्वाले से कह कर मेरे लिए रोज एक पाव दूध का इंतजाम कर दिया था।

विवाह होने के बाद मुझमें थोड़ी पारिवारिकता आई। मैंने दो कमरों का एक फ्लैट लिया और उसमें रहने के लिए मां-पिता और छोटे भाई-बहन को आमंत्रित किया। वे कुछ दिन कितने सुंदर थे। लेकिन एक बार पिताजी द्वारा एक मामूली-सी घटना के बाद, जो हिन्दू परिवारों के लिए सामान्य-सी बात है, पर उन दिनों मेरे सिर पर लोहिया सवार होने के कारण मैंने उन्हें कहला दिया कि जब तक वे मेरी पत्नी से माफी नहीं मांगते, अब वे मेरे घर में खाना नहीं खा सकते। माफी मांगना मेरे घरेलू परिवेश में एक सर्वथा नई बात थी, जिसका अर्थ समझ या समझा पाना भी मुश्किल था। सो पिताजी अलग हो गए। उनके साथ ही दूसरे सदस्य भी उनके साथ हो लिए। मैंने उस समय मुक्ति की सांस ली थी, पर अब लगता है कि वह मेरी हृदयहीनता थी। जवानी में आदमी बहुत-से ऐसे काम करता है जिनके अनुपयुक्त होने का पछतावा बाद में होता है जब प्रौढ़ता आती है। ऐसे कितने ही पछतावे मेरे सीने में दफन हैं। कभी-कभी वे कब्र से निकलते हैं और रुला देते हैं।

बाद में मां से मेरा संपर्क बहुत कम रहा। एक बार जब वह बीमार पड़ी, मैं उसे अपने घर ले आया और उसका इलाज कराया। एक बार जब वह गांव में मेरे मामा के साथ रह रही थी, 'रविवार' के लिए किसी रिपोर्टिंग के सिलसिले में मेरा उत्तर प्रदेश जाना हुआ और मैं जा कर उससे मिल आया। मां को लकवा मार गया था। कुछ घंटे उसके साथ बैठ कर चलने को हुआ, तो मैंने उसकी मुट्ठी में दो सौ रुपए रख दिए था। वैसा आनंद न उसके पहले मिला था. न उसके बाद मिला। कोलकाता में जब उसे हृदयाघात हुआ, यह मैं ही था जिसके प्रयास से उसे अस्पताल में भरती कराया गया। अस्पताल में उसकी सुश्रूषा के लिए मैंने एक नर्स रख दी थी। उन दिनों मेरी पत्नी ने भी मां की बहुत सेवा की। यह मेरे लिए चिरंतन अफसोस की बात रहेगी कि जिस दिन उसका देहांत हुआ, मेरे दफ्तर, आनंद बाजार पत्रिका समूह, में अचानक हड़ताल हो गई थी और मैं दफ्तर के लिए घर से निकला, तो दोस्तों-सहकर्मियों के साथ गप-शप करते हुए काफी समय बीत गया और मैं देर रात गए घर लौटा। उन दिनों मोबााइल नहीं था, नहीं तो इतनी बडा अघटन नहीं होता कि मैं मां के शवदाह में शामिल न हो सका। यह सारा दायित्व मेरी पत्नी ने लगभग अकेले संभाला।

जब से मैं भारत के हिन्दी प्रदेश में आधुनिकता की सीमाएं समझने लगा, तभी से मेरी पिछली गलतियां बुरी तरह मुझे हांट कर रही हैं। मैं परिवार में एकमात्र उच्च शिक्षित लड़का था। मुझे संयुक्त परिवार को ढहने से रोकने की पूरी कोशिश करनी चाहिए थी। मुझे अपने मां-बाप की, खासकर बूढ़ी मां की, सेवा और मदद करनी चाहिए थी। लेकिन यह मैंने नहीं किया। उन दिनों मेरी जो आमदनी थी, वह खुद मेरे लिए ही काफी नहीं थी। लेकिन यह मुख्य कारण नहीं था। मां से मेरा मन उचट चुका था। मैं उसकी दुनिया से निकल आया था और अपनी दुनिया में पूरी तरह रम चुका था। मुझे यह याद भी नहीं रहता था कि मेरी कोई मां भी है। उसे शायद याद आता रहता हो, पर वह क्या कर सकती थी? अगर कुछ कर सकती होती, तब भी उसने नहीं किया। लेकिन इसमें सारा दोष मैं अपना ही मानता हूं (अब मानता हूं; उन दिनों दोष की बात दिमाग में भी नहीं आती थी)। यह एक ऐसा पाप था, जिसकी कोई माफी नहीं है। मैं माफी मांगना भी नहीं चाहता -- मांगूं भी तो किससे। मैं अपने हृदयस्थल में अपने उस पाप को ढोना चाहता हूं, ताकि उसके अनुताप की रोशनी में अपने सत्यों का लगातार संशोधन और परिमार्जन कर सकूं।

मुझे इस बात का एहसास है कि मेरे साथ जो बीती है, वह सिर्फ मेरी कहानी नहीं है। वह लाखों (शायद करोड़ांें) लोगों की बदबूदार कहानी है। निम्न वर्ग या निम्न-मध्य वर्ग से आनेवाले नौजवान जब थोड़ी-बहुत सफलता अर्जित कर लेते हैं, तो उनके पुराने पारिवारिक रिश्ते धूमिल होने लगते हैं। इनमें सबसे ज्यादा उपेक्षा मां की होती है। वह सिर्फ देती ही देती जाती है, पाती कुछ नहीं है। यहां तक कि कृतज्ञता का स्वीकार भी नहीं। मैं मां को ले कर भावुकता का वह वातावरण नहीं बनाना चाहता जो हिन्दी कविता में एक दशक से बना हुआ है (इसके पहले यह दर्जा पिता को मिला हुआ था)। लेकिन मां-बेटे या मां-बेटी का रिश्ता एक अद्भुत और अनन्य रिश्ता है। इस रिश्ते का सम्मान करना जो नहीं सीख पाया, वह थोड़ा कम आदमी है। मेरी मां जैसी भी रही हो, 'साकेत' में मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्ति मेरे सीने में खुदी हुई है कि माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही। मैं कुपुत्र साबित हुआ, मेरा यह दुख कोई भी चीज कम नहीं कर सकती। उसका प्रायश्चित यही है, अगर कोई प्रायश्चित हो सकता है, कि मैं एक ऐसी संस्कृति की रचना करने में अपने को होम कर दूं जिसमें मां का स्थान जीवन के शीर्ष पर होता है।

जो अपनी मां को प्यार नहीं कर पाया, वह दुनिया में किसी और को प्यार कर सकेगा, इसमें गहरा संदेह है।

Wednesday, May 7, 2008

आया चुनाव, आया चुनाव

एक दलित की डायरी
राजकिशोर

आज राहुल भइया हमारे घर आए। हमें इतनी खुशी हुई कि का कहें। राज परिवार के आदमी हैं। आज तक इस गांव में राज परिवार के किसी भी आदमी का आना नहीं हुआ। पहले तब राजा-महाराजा राज करते थे, हमारे गांव में उनके आने की बात तो हम सोच भी नहीं सकते थे। यहां तक कि जमींदार भी आसपास नहीं फटकते थे। जब उन्हें बेगार लेना होता था, तो वे खबर भिजवा देते थे। हम नंगे पांव दौड़ते हुए उनके दरवज्जे पर हाजिर हो जाते थे। यह रीत पता नहीं कब से चली आई है। बापू कहते हैं, हमारे बाप-दादों ने पता नहीं क्या पाप किया था कि यह नरक भोगना पड़ रहा है। … हम कभी-कभी सोचते हैं कि पाप हमने नहीं, ठाकुर-बाभनों ने किया है। अभी भी कर रहे हैं। मान्यवर कांशीराम और मायावती दीदी का तो यही कहना है। । अब हमारे दिन बहुर रहे हैं। इन ऊंची जात वालों की नानी मर रही है।

क्या इसीलिए राजीव भइया ने हमारे गांव का दौरा किया? दौरा ही नहीं किया, बल्के हमारी कुटिया में भी पधारे। पहले हम सोचते थे कि राजीव भइया अंगरेज हैं। उनकी मां तो अंगरेजिन हैं ही। उनका रंग कितना सफेद है। साड़ी में भी हमारे मुल्क के लोगों की तरह नहीं लगतीं। उनकी बोली भी अलग है। जब वे हमारी जबान में बोलती हैं, तब भी लगता है कोई फिरंगी औरत बोल रही है। इसी से हम यह मान लिए थे कि राहुल गांधी भी अंगरेज ही होंगे। लेकिन कसम से, वे अपने लोगों जैसे ही लग रहे थे। बस बोल-चाल शहरी थी। … होगी नहीं? डिल्ली शहर में रहते हैं, जहां पहले बड़े-बड़े मुसलमान बादशाह रहते थे। बाद में नेहरू जी रहे। इंदिरा गांधी रहीं। इसमें कुछ हरज भी नहीं है। बड़े लोग बड़ी जगहों में न रहें, तो उन्हें कौन पूछेगा? … एक बार मेरे मामा जलूस में शामिल होने के लिए डिल्ली गए थे। … रास्ते, बिल्डिंग, मोटरगाड़ी -- यह सब देख कर उनकी आंखें चौंधिया गईं। बोले, जल्दी घर चलो। यह तो स्वरग जैसा लगता है। हमें कहीं कोई पकड़ न ले कि इधर कैसे चले आए? भागो इहां से। …

जब राजीव भइया चले गए, तो सरपंच साहब ने बताया कि बेटा, ये बाभन परिवार के हैं। नेहरू जी भी बाभन थे। पहले छत्री लोग राज करते थे। अब बाभनों का नंबर है। समय सबसे बलवान है। तभी तो यूपी में मायावती दीदी ने दिखा दिया कि चमार-भंगी भी राज कर सकते हैं। सुनते हैं, नीतीश कुमार कुर्मी हैं। जो भी हो, धन्न भाग कि बाभन कुमार ने हमारी कुटिया में पैर रखा। पुराना जमाना होता, तो हम उनके पांव पानी से पखारते। आसपास के लोगों ने बताया कि यह सब नाटक मत करना, नहीं तो राजकुमार नाराज हो जाएंगे… वे आजकल के स्कुलिया बच्चों की तरह हैं जो कोई नेम-धरम नहीं मानते। जूता पहन कर रसोई में घुस जाते हैं। … चाहे जो कहो भइया, हमने अपना धरम नहीं छोड़ा। एक तो बाभन, ऊपर से राज परिवार के। हाथ झोड़ कर दुबके रहे … कि स्वागत में कोई तुरटी न हो जाए।

रात भर हमको नींद नहीं आई। हमारी घरवाली भी खुसुर-फुसुर करती रही। उसे तो यकीन ही नहीं हो रहा था। कल से उसके पंख लग जाएंगे। गांव भर में इतराती फिरेगी। … औरत जात ठहरी। उसको पालटिस मालूम नहीं है। जब बाभन झुक कर बोले, तो समझ जाओ कि कुछ गड़बड़ है। संसद का चुनाव आने वाला है। यूपी में उनकी हालत खस्ता है। उन्हें हमारा वोट चाहिए। नहीं तो वे किसी और राज्य में काहे नहीं गए? दलित तो देश भर में हैं। सभी की हालत हमारे जैसी ही है। … एक बात है। लड़का भला है। उसने एक बार भी नहीं पूछा कि भोट किसे दोगे? यही तो बड़े लोगों का बड़प्पन है। वे साफ-साफ कुछ भी नहीं कहते। यह हमारी ड्यूटी होती है कि हम उनका मन टोह टोह लें… हम तो भैया कुछ ही घड़ी में पहचान लिए… बाबू को हम शेडूल कास्ट लोगों का वोट चाहिए।

हमने भी मन ही मन ठाना हुआ है। दुआर पर आए मेहमान का सागत-सतकार करना चाहिए। वह हमने जी भर किया। वे भी खुशी-खुशी हमारे यहां रात बिताए। … सबेरे उनका चेहरा कितना खिला हुआ था। बात-बात पर मुसका रहे थे। हमें भी तसल्ली हुई कि हमसे कोई तुरटी नहीं हुई। … जब वे अपने लाव-लशकर के साथ चले गए, तब जी में जी आया। कहीं वे हमारे यहां हफता भर रह जाते, तो हमारा तो दिवाला ही निकल जाता। साहू जी से पैसा उधार लेना पड़ता। कहां से चुकाते? राजीव भइया कोई अशरफी बांटने तो निकले नहीं थे। हमारी हालत अपनी आंखों से देखना चाहते थे। … वे हमारे मेहमान थे। नहीं तो जाते-जाते हम उनसे कह बैठते कि भइया, तुम तो भले आदमी हो, पर तुम्हारी पारटी ने हमारे लिए क्या किया? खाली हमारा भोोट लेते रहे। अब बहन जी ने हुंकारा भरा है कि भोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।

सो भइया, भोट तो हम बसपा को ही देंगे। ऊंची जात के लोग दो बार बहन जी को गद्दी पर बैठा कर गिरा चुके हैं। इस बार यह खेल हम नहीं होने देंगे। … हमारे घर आओ। हम अपने कपार पर बैठाएंगे। पर भोट? ना बाबा ना! हम अपने लोगों से दगा नहीं कर सकते। मुशकिल में तो यही न काम आएंगे !

अमिताभ बच्चन का अरमान


लेखक की स्मृति को कैसे बचाएं
राजकिशोर

हरिवंशराय बच्चन का देहान्त एक राष्ट्रीय घटना बन गई थी। मीडिया में कवरेज के लिए अच्छी-खासी प्रतिद्वंद्विता चल पड़ी थी। दो दिनों तक बच्चन जी टीवी पर छाए रहे। हिन्दी लेखकों और साहित्य प्रेमियों के जीवन में इस तरह का यह पहला अवसर था। इसके पहले महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, त्रिलोचन, रामविलास शर्मा आदि की मृत्यु की मीडिया ने नोटिस ही नहीं ली थी। इनमें से कोई भी लेखक बच्चन जी से कम नहीं था। बहुत-से लोगों की राय में ये सभी बच्चन से बड़े लेखक थे। फिर मृत्यु के बाद बच्चन की ही क्यों धूम मची? इसका उत्तर कोई बच्चा भी दे सकता है। इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा।

जिस बात पर टिप्पणी किए बिना मैं रह नहीं सकता कि वह यह है कि अमिताभ बच्चन ने अपने पिता की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए कुछ ठोस काम करने की इच्छा व्यक्त की है। यह इच्छा भारत में नहीं, लंदन में व्यक्त की गई। वहां के लोग अपने लेखकों और विचारकों का स्मारक बनाना जानते हैं। जिस पत्रकार ने अमिताभ की नई फिल्म भूतनाथ के सिलसिले में उनका इंटरव्यू लिया होगा, उसने चलते-चलते हरिवंशराय बच्चन की चर्चा छेड़ दी होगी +Éè®ú अमिताभ को कहना पड़ा होगा कि मैं अपने कवि-पिता की समृति को बनाए रखने के लिए जरूर कुछ करूंगा। चूंकि अमिताभ इस प्रश्न के लिए प्रस्तुत नहीं थे, इसलिए वे बता नहीं पाए कि वे क्या करेंगे। हिन्दी के पत्रकार इस तरह के प्रश्न नहीं पूछते। शायद इसलिए कि उन्हें उत्तर पहले से ज्ञात होता है और वे किसी बड़े आदमी को दुखी नहीं करना चाहते। वे शायद चाहते भी नहीं कि किसी लेखक या कवि का भव्य स्मारक बने। शायद प्रेमचंद स्मारक की दीर्घकालीन दुर्दशा ने उनके हृदय को इतना सुखा दिया है कि इस तरह के सवाल उनके मन में उठते ही नहीं।

अगर अमिताभ बच्चन अपने कवि-पिता की स्मृति में कुछ करते हैं, तो यह जितनी खुशी की होगी, उतनी ही दुख की। अमिताभ के पास इतना पैसा होगा कि वे बच्चन जी को राष्ट्र कवि का दर्जा दिलवा दें। उनका भव्य स्मारक, उनकी स्मृति में व्याख्यानमाला, फेलोशिप, छात्रवृत्तियां, पुरस्कार, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चेअर, निबंध प्रतियोगिता -- क्या-क्या नहीं किया जा सकता। लेकिन अमिताभ शायद इस प्रकृति के व्यक्ति नहीं हैं कि किसी साहित्यिक उद्देश्य के लिए इतना पैसा खर्च करें। अभी तक तो उन्होंने ऐसी कोई उदारता नहीं दिखाई है। उत्तर प्रदेश में उन्होंने अभी-अभी एक कन्या विद्यालय खोला है, लेकिन इसका संबंध परोपकार वृत्ति से कम, पंचायत की जमीन की हेराफेरी से पैदा होनेवाले विवाद से उत्पन्न अपनी छवि-हानि की भरपाई करना था। अमिताभ बच्चन महान अभिनेता हैं, इस उम्र में भी उनकी फिल्म पर फिल्म आ रही है, विज्ञापनों के लिए वे सर्वाधिक लोकप्रिय मॉडल हैं, उनकी पत्नी वर्षों से सांसद है, उनका पुत्र भी सफल अभिनेता है, उनकी पुत्रवधू के पास भी अपार पैसा है, फिर भी इस कुनबे ने सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई अवदान नहीं किया है। यह चिंता की बात है। सामाजिक अवदान की दृष्टि से तो हरिवंशराय बच्चन अकेले अपने सभी उत्तराधिकारियों से बड़े साबित हुए। वे मूलतः साहित्य के जीव थे और सब कुछ के बावजूद साहित्यकर्मी ही बने रहे।

बहरहाल, उम्मीद करनी चाहिए कि अमिताभ बच्चन अपने पिता की स्मृति में कुछ करेंगे जरूर। लेकिन यह भी दुख की बात होगी। दुख की बात इसलिए कि काफी समय से लेखकों की स्मृति को जीवित रखने की जिम्मेदारी मृत लेखकों के परिवारों पर ही आ पड़ी है। भारतभूषण अग्रवाल, श्रीकांत वर्मा, देवीशंकर अवस्थी, रमाकांत आदि की स्मृति में जो पुरस्कार दिए जाते हैं, उनकी आर्थिक व्यवस्था उनके पारिवारिक जन ही करते हैं। अगर वे कुछ समय के लिए पीछे हट जाएं, तो ये सभी पुरस्कार तत्काल बंद हो जाएंगे। रघुवार सहाय की स्मृति में एक पुरस्कार दिल्ली के कवियों और लेखकों के तत्वावधान में दिया जाता था। आर्थिक व्यवस्था करते थे साहित्यिक पत्रिका पल-प्रतिपल के संपादक और आधार प्रकाशन के मालिक देश निर्मोही। जब तक देश निर्मोही पैसे का इंतजाम करते रहे, रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार जारी रहा। जब निर्मोही ने मोह त्याग दिया, तो पुरस्कार का कार्यक्रम ठप हो गया। विडंबना यह है कि इस पुरस्कार से जुड़े जितने कवि-लेखक थे, उनमें से कोई भी बीपीएल परिवार का नहीं था। वे सभी अच्छा खाते-पीते मध्यवर्गीय लोग थे। रघुवीर जी के प्रति इन सभी के मन में बहुत आदर था। इनमें से कई तो उनके सहकर्मी भी रह चुके थे। वे चाहते तो सामूहिक चंदे से ही इस महत्वपूर्ण पुरस्कार को जारी रख सकते थे। लेकिन उन्होंने यह कर्तव्य नहीं निभाया। इसलिए अगर अमिताभ बच्चन अकेले अपने पिता की स्मृति में कुछ करते हैं, तो यह हिन्दी समाज के लिए शर्म की बात होगी।

हरिवंशराय बच्चन क्या सिर्फ अमिताभ बच्चन के पिता थे? वे हिन्दी समाज के कुछ भी न थे? तो फिर अमिताभ ही बच्चन के लिए कुछ क्यों नहीं करें? स्मरणीय है कि प्रेमचंद के जन्म-स्थान लमही गांव में प्रेमचंद का मामूली-सा स्मारक भी अरसे से दुर्दशाग्रस्त था। सुना है, इधर उसका कुछ कायाकल्प हुआ है। लेकिन इतना काम तो प्रेमचंद के साहित्यिक और कमाऊ पूत, श्रीपत राय और अमृतराय, भी कर सकते थे। किंतु उन्होंने नहीं किया। उनका मानना था कि यह काम प्रेमचंद के परिवार का नहीं, हिन्दी जगत का है। वामपंथियों के दबाव से यूपीए सरकार ने प्रमचंद स्मारक के लिए पैसा निकाला, नहीं तो समही में प्रेमचंद स्मारक की दुर्गति अभी तक जारी रहती। इन सारे प्रकरणों से जो बात जाहिर होती है, वह है साहित्य से हिन्दी समाज की दूरी तथा स्वयं लेखकों की अपने पूर्वजों के प्रति कृतघ्नता। आज हिन्दी के सभी प्रसिद्ध लेखक और कुछ कम प्रसिद्ध लेखक भी कार में चलते हैं। उनमें से आधे के बेडरूम में एअरकंडीशनर लगा हुआ है। कुछ नियमित रूप से विदेश आते-जाते रहते हैं। लेकिन अपने साहित्यिक पूर्वजों की स्मृति को जीवित रखने के लिए उनकी गहरी जेबों में एक कौड़ी भी नहीं है।

Sunday, May 4, 2008

नेपाल में परिवर्तन


आशा और निराशा के बीच
राजकिशोर


नेपाल में परिवर्तन को महान और ऐतिहासिक मान लेना विवाद से परे नहीं है। कायदे से वहां राजशाही बहुत पहले ही खत्म हो जानी चाहिए थी। भारतीय महादेश में यह घटना उन्नीसवीं शताब्दी में ही संपन्न हो चुकी थी। बीसवीं शताब्दी के मध्य में उसने उपनिवेशवाद से मुक्ति पाई। यह नेपाल का सौभाग्य था कि उसे उपनिवेशवादी शोषण और दमन नहीं देखना पड़ा। दरअसल, वहां का राजा स्वयं उपनिवेशवादी था। उसने नेपाल को अपना उपनिवेश बनाए रखा और उसका विकास नहीं होने दिया। बेशक नेपाल में राजशाही की समाप्ति में नेपाली कांग्रेस और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी की निर्णायक भूमिका रही है, किन्तु इसमें स्वयं राजशाही के चारित्रिक पतन की भूमिका नगण्य नहीं है। राजपरिवार के षड्यंत्रपूर्ण वातावरण तथा हत्या-प्रतिहत्या के दौर ने नेपाल की राजशाही को उस बिन्दु पर पहुंचा दिया था जहां वह अपने ही बोझ से लड़खड़ा रही थी। इस गिरती हुई दीवार को सिर्फ कुछ धक्कों की जरूरत थी। इससे यह सबक मिलता है कि कोई भी संस्था तब तक ही चल सकती है जब तक उसे जन समर्थन मिलता रहे। इस दृष्टि से भूटान की राजशाही ज्यादा दृष्टि-संपन्न प्रतीत होती है। समय की मांग को देखते हुए वह खुद अपने आपको समेट रही है।

नेपाल की स्थिति से आशा की जो लहर फैलती हुई प्रतीत हो रही है, उस भ्रम का कारण माओवाद नाम की संज्ञा है। यह खुशी की बात है कि माओवादियों ने संसदीय राजनीति को अपना लिया है, लेकिन इससे उनकी पार्टी भी लोकतांत्रिक हो उठी है, यह दूर की कौड़ी है। जब स्वयं माओ जे दुंग लोकतांत्रिक नहीं थे और उन्होंने अपने देश में जो राजनीतिक व्यवस्था कायम की वह भी लोकतांत्रिक नहीं है और आज भी वह लोकतांत्रिक होने का साहस नहीं दिखा पा रही है, तो नेपाल के माओवाद में लोकतंत्र की संभावना कहां से आ कर बैठ गई है? माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किसी सैनिक तंत्र की तरह रहा है और यही ढांचा आज भी मौजूद है। मेरा खयाल है कि नेपाल का नया और लोकतांत्रिक संविधान बनाने के पहले माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को अपना लोकतांत्रिक संविधान बना लेना चाहिए। नहीं तो दो प्रकार के समानांतर निजाम चलते रहेंगे। देश में लोकतंत्र होगा और देश की सबसे बड़ी सत्तारूढ़ पार्टी में लोकतंत्र नहीं होगा। इस पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता प्रचंड नेपाल में राष्ट्रपति प्रणाली लागू करना चाहते हैं, इसका संकेत खतरनाक भी हो सकता है। एशियाई समाजों में तानाशाही को स्वीकार करने की अद्भुत क्षमता है।

राजशाही और सामंतशाही से मुक्त होने पर नेपाल का आर्थिक विकास होगा, इसमें कोई शक नहीं है। किन्तु वह विकास कैसा होगा? माओवादी नेता प्रचंड ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आह्वान किया है कि वे नेपाल में बड़े पैमाने पर निवेश करें। ऐसा होने की संभावना ज्यादा नहीं है, क्योंकि चीन अभी भी विदेशी निवेश का प्यासा है और वहां इसके लिए इंफ्रास्ट्रकचर भी मौजूद है। अगर विदेशी कंपनियां नेपाल का आर्थिक कौमार्य तोड़ने के लिए आती भी हैं, तो वे एक छोटे-से हिस्से को ही अमीर बनाएंगी। अभी ही काठमांडू चंद्रमा के सामनेवाले हिस्से की तरह चमक रहा है और बाकी नेपाल चंद्रमा के पिछले हिस्से की तरह है, जहां सतत अंधेरा मौजूद होता है। काठमांडू का ऐश्वर्य और बढ़ा, तो शेष नेपाल का अंधेरा और घना हो जाएगा। चीन में पूंजीवादी विकास का वातावरण बनने के पूर्व वहां समता पर आधारित एक खास आर्थिक-सामाजिक ढांचा बन चुका था। शिक्षा का प्रसार, बिजली और सड़क निर्माण, दूरसंचार के साधन -- किसी भी देश में यह स्थानीय ढांचा न होने पर विदेशी कंपनिया भी वहां पांव रखने से हिचकती हैं। वे ठूंठे पेड़ों पर नहीं, फलदार शाखाओं पर बैठती हैं। इस मामले में नेपाल उन्हें कितना आकर्षित कर सकता है? इसके बजाय नेपाल को अगर खेतिहर, पशुपालक और लघु उद्योंगों के देश के रूप में विकसित करने की योजना बनाई जाती, तो विकास तेजी से होता और उसका चरित्र लोकतांत्रिक हो सकता था। लेकिन आजकल सादगी किसे पसंद आती है?

इसीलिए नेपाल में परिवर्तन से आशा की जो वापसी हुई दिखाई देती है, उसके फलवती होने के बारे में संदेह होता है। इस महादेश में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से कई बार आशा का संचार हुआ है और हर बार निराशा झेलनी पड़ी है। भारत को अगर अगुआ के रूप में देखे, तो क्या हम उस तरह का समाज बना पाए हैं या बना रहे हैं जिसका स्वप्न स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देखा गया था? क्या स्वयं जवाहरलाल ऐसा ही भारत बनाना चाहते थे? अगर पेड़ की पहचान फल से होती है, तो माफ कीजिए, हम स्वतंत्रता के बाद के भारत निर्माताओं के काम से संतुष्ट नहीं हैं। हमने 1977 का दौर भी देखा जब देश भर में एक नई आशा का संचार हुआ था। उसका अंतिम नतीजा यह निकला कि संपूर्ण राजनीति ही निरर्थक हो गई। उसके बाद राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी आशा बंधाई, पर वही ढाक के तीन पात। निराश का यह सिलसिला अभी तक थमा नहीं है। बगल के बांग्लादेश ने खून की राह पर चल कर आजादी हासिल की। देशबंधु मुजीबुर्रहमान ने एक नए बांगलादेश की नींव रखने की उम्मीद बंधाई, किन्तु उनका सोने का देश आज किस स्थिति में है? पाकिस्तान की राजनीति में भुट्टो परिवार का उदय एक महत्वपूर्ण घटना थी, पर उसका भी नतीजा क्या निकला? खुशहाल श्रीलंका अभी तक अपने गृह युद्ध से उबर नहीं सका है।

ऐसा लगता है कि दक्षिण एशिया के साथ कोई मूलभूत समस्या है। पूर्वी एशिया ने इसी दौर में जबरदस्त प्रगति की है। उस प्रगति के साथ कई विकृतियां भी जुड़ी हुई है, फिर भी उसकी चमकदार उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता। चीन एक महाशक्ति बन चुका है। जापान बिना शोर मचाए दुनिया के बड़े औद्योगिक देशों की श्रेणी में आ गया है। यूरोप और अमेरिका में उसकी तूती बोल रही है। कोरिया और वियतनाम भी अच्छी-खासी प्रगति कर रहे हैं। यह हम दक्षिण एशिया के लोग ही हैं जो इतिहास और प्रकृति द्वारा प्रदत्त किए गए अवसरों को खो देने में माहिर हो चुके हैं। इस दृष्टि से नेपाल के माओवादियों की एक खास ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। दक्षिण एशिया में पहली बार एक कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने की मजबूत स्थिति में है। लेकिन क्या वहां समता और संपन्नता का फूल खिल सकेगा?