Wednesday, March 26, 2008

सभ्यता और साहित्य

शहर में किताब की जगह
राजकिशोर


क्या आपने कोई सभ्य शहर देखा है? मैंने तो नहीं देखा। न ऐसे किसी शहर के बारे में मैंने सुना है। मैं समझता हूं कि किसी भी युक्तिसंगत परिभाषा में सभ्य शहर उसे ही कहा जाएगा जहां किताबों का, कला का, साहित्य का पूरे शहर में सम्मान हो। लोग खाली वक्त में सिर्फ खान-पान की या कपड़ों की या फिल्म स्टारों की बात न किया करें। उनकी बातचीत का कुछ संबंध किताबों की संस्कृति से भी हो। किताबी कीड़ा बन जाना कोई अच्छी बात नहीं है, लेकिन ऐसा कीड़ा बनने पर भी गर्व नहीं होना चाहिए जिसके जीवन में किताबों ने कोई अहम भूमिका न निभाई हो। ऐसा लगता है कि तथाकथित सभ्यता का जैसे-जैसे विकास हो रहा है, लोगों के जीवन में किताब के लिए जगह कम से कमतर होती जा रही है।
बेशक, कुछ देशों में आज भी किताबों की खपत काफी है। लेकिन इनका एक बड़ा हिस्सा मनोरंजन प्रदान करनेवाली या सफलता के नुस्खे बतानेवाली किताबों का है। ऐसी किताबों की भी बड़े पैमाने पर जरूरत है। हर समय गंभीर रहना गधे को ही शोभा देता है। जीवन में थोड़ा चुलबुलापन, थोड़ी किस्सागोई, थोड़ा रहस्य-रोमांच भी होना चाहिए। उपदेशों की भी जरूरत है। लेकिन यह किताब नहीं, किताब का हाशिया है। यह हाशिया बड़ा होता रहे, इस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। डर बस यही है कि कहीं यह मुख्य स्थान की जगह न ले ले। यह कुछ ऐसी ही घटना होगी जैसे कोई सब कुछ छोड़ कर दिन भर समोसा-जलेबी ही खाता रहे। यह तो समोसा-जलेबी का भी दुरुपयोग है। गुलाब रंग, खुशबू और बनावट के लिए होता है न कि सब्जी बनाने के लिए। आज मुझे लगता है कि गुलाबों का इस्तेमाल सब्जी बनाने के लिए हो रहा है। इसी को सौंदर्याभिरुचि कहा जा रहा है।
कहा जा सकता है कि बीते जमाने में भी लोगों के जीवन में किताबों की कौन-सी बहुतायत थी! एकदम सही बात है। इसीलिए उस जमाने को कोई सभ्य जमाना नहीं मानता। उस समय सभ्यता का विकास हो रहा था। विकास की इस प्रक्रिया में आगे जाने और पीछे ठेलने की रस्साकशी कायम थी। कुछ लोग ज्ञान और कला को विमुक्त करना चाहते थे, तो दूसरे उनके प्रसार को रोकना चाहते थे। लेकिन मनुष्य के मूल संवेग किसी के रोके नहीं रुकते। जमींदार के डर से लोगों का सपना देखना बंद नहीं हो जाता। यही कारण है कि जिसे प्रॉपर साहित्य कहते हैं, उसे जनता के बीच जाने से रोक दिया गया, तो जनता ने लोक कथाओं, लोक गीतों, लोकोक्तियों आदि के माध्यम से अपनी रचनात्मक आकुलता को तृप्त करना शुरू कर दिया। इस तरह उच्च साहित्य और निम्न साहित्य, ये दो कोटियां बन गईं। मजे की बात यह है कि उच्च साहित्य में कई निम्नताएं थीं और निम्न साहित्य में कई ऊंचाइयां थीं। शुरू में सभ्यता के कला और साहित्य आयाम में इस तरह की ऊंचाइयां और नीचाइयां नहीं थीं। ले-दे कर जीवन समतल था। बाद में, निजी पूंजी के संचय से सांस्कृतिक स्तर में भी फर्क आ गया। भाषा कुछ लोगों की गुलाम हो कर रह गई। बड़े चित्रकारों का काम राजमहलों या व्यापारियों के घर में ही देखा जा सकता था। राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के असमान वितरण ने संस्कृति के क्षेत्र में भी असाधारण विषमताएं पैदा कर दीं। इसी से जनता का अपना साहित्य पैदा हुआ। यह साहित्य अभी भी गांवों और कस्बों में न केवल कायम है, बल्कि विकसित भी होता जा रहा है। शहरीकरण इसका सबसे बड़ा शत्रु है।

जीवन की खूबी ही यह है कि इसकी सभी धाराएं अंतत: एक-दूसरे को प्रभावित करती है, जैसे सारी नदियां या तो आपस में विलीन हो जाती है या समुद्र में जा कर पर्यवसित हो जाती हैं। सभ्यता के इतिहास में यह घटित हुआ लोकतंत्र से, टेक्नोलॉजी के विस्तार से और आम जनता में खुशहाली आने से। ग्लोब का एक बड़ा हिस्सा -- अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका -- अभी भी इन तीन नियामतों से वंचित है। लेकिन एक बड़े हिस्से में क्रांति भी आ गई है। इन क्रांतिकारी देशों को ही आधुनिक कहा जाता है। आधुनिक जीवन की एक विडंबना यह है कि उसमें आर्थिक सुविधाओ के विस्तार और व्यक्तिगत जीवन की स्वच्छंदता के लिए जितना स्कोप पैदा किया, उतना साहित्य और कला के लिए नहीं किया। पहले की कोई भी संस्कृति इतनी एकायामी नहीं थी।
आधुनिक संस्कृति में दो ध्रुव बन गए हैं। एक ध्रुव गंभीर और संवेदनशील साहित्य का है। इस ध्रुव पर बहुत कम लोग रहते हैं। दूसरा ध्रुव है मास मीडिया का, जिसमें टीवी, सीडी और डीवीडी प्लेयर, सिनेमा, वीडियो फिल्में, नाच-गाना आदि आते हैं। इसमें भी कहीं-कहीं गुण दिखाई देता है, पर यह मुख्यत: एक सतही और छिछोरी दुनिया है। दुर्भाग्य यह है कि पहले जो काम लोक साहित्य और लोक कलाएं किया करती थीं, वही काम अब मास मीडिया कर रहा है। लोक साहित्य जितना सादा और असली था, यह छिछोरी दुनिया उतनी ही कृत्रिम और सतही है, क्योंकि इसमें पूंजी का बड़े पैमाने पर प्रवेश हुआ है। जीवन के पवित्र पक्ष भी शेयर बाजार की मारामारी से भर गए हैं।
सभ्यता का एक केंद्रीय सवाल यह है कि यह छिछोरी संस्कृति कब खत्म होगी। इसके खत्म होने के बाद ही वास्तविक संस्कृति का प्रसार हो सकता है। या, वास्तविक संस्कृति के प्रसार से मास मीडिया की यह धुंध कट सकती है। यह कैसे होगा? इसे कौन संभव करेगा? दस गुणीजन जहां इकठ्ठा हों, वहां इस सवाल पर विचार होना चाहिए। जब चारों ओर सूखा पड़ा हो, तब अपने छोटे-से तालाब में नहा कर तृप्त होने की कोई खास मजा या सार्थकता नहीं है। बेशक सतहीपन में इतना दम कभी नहीं आ सकता कि वह गंभीरता को नष्ट ही कर डाले। कवि के शब्दों में, सब कुछ होना बचा रहेगा। लेकिन कितना और किस हद तक? इस बारे में कोई खास सचेतनता नहीं है तथा प्रयास तो और भी कम है, इसीलिए दिल्ली में इतना बड़ा पुस्तक मेला चल रहा है और राजधानी के नब्बे प्रतिशत नागरिकों में इसे ले कर कोई उत्सुकता नहीं है। क्या इसके बावजूद हमें अपने शहर को सभ्य शहर मानना होगा?

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

राजकिशोर जी। आप का यह आलेख समय की आवश्यकता थी। एक तो पुस्तकों के बारे में भी लिखा जाना चाहिए कि कौन सी अच्छी पुस्तकें हैं और वे बाजार में उपलब्ध हैं। दूसरा पुस्तकें जिस प्रकार महंगी हुई हैं उन के प्रति लगाव होते हुए भी उन्हें खरीद कर पढ़ पाना लोगों को विलासिता दिखाई देता है। वे इसे पुस्तकालय से या किराए पर लाकर पढ़ना पसंद करते हैं। नैट-पाठकों के लिए पुस्तकें आसान सबस्क्रिप्शन पर उपलब्ध हों तो वे वहाँ उन्हें पढ़ सकते हैं।
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