Wednesday, March 26, 2008

अंधेरे में नियुक्तियां

गुप्त नियुक्तियों का मतलब
राजकिशोर

हाल ही में कई युवकों और युवतियों ने मुझसे संपर्क किया। वे चाहते थे कि मैं किसी टीवी चैनल में उनके लिए सिफारिश कर दूं। वे सभी अच्छे और होनहार लगे। कायदे से उनकी नियुक्ति बहुत पहले ही हो जानी चाहिए थी। लेकिन यह न हो सका तो इसीलिए कि दुनिया भर को उपदेश देवाले टीवी चैनलों में, जो रक्तबीज की तरह पैदा हो रहे हैं. नियुक्ति की कोई विवेकसंगत या पारदर्शी प्रणाली नहीं है। सभी जगह सोर्स चल रहा है सरकारी क्षेत्र में हवलदार, चपरासी या सफाई कर्मचारी जैसे साधारण पदों पर नियुक्ति के लिए भी कई महीनों तक चलनेवाली परीक्षण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इन पदों पर काम कर रहे व्यक्तियों को पांच-सात हजार रुपयों से ज्यादा माासिक वेतन क्या मिलता होगा। लेकिन मीडिया जगत में दस हजार से पचास हजार रुपए महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती हैं कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो चुकी होती हैं। किसी भी पद के लिए और स्थानों की संख्या चाहे जितनी हो, कोई पारदर्शी या समझ में आनेवाली प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती। यह बात सिर्फ मीडिया पर ही नहीं, प्राय: सभी गैर-सरकारी संस्थानों पर लागू होती है।
संपादक या किसी कंपनी के प्रमुख की नियुक्ति के मामले में गोपनीय चयन का तर्क कुछ हद तक समझ में आता है। प्रमुख होने के लिए रुटीन योग्यताओं की नहीं, कुछ विलक्षण गुणों की जरूरत होती है। सेना में कोई भी औसत आदमी भर्ती हो सकता है, लेकिन हर किसी को सेनापति नहीं बनाया जा सकता। इस पद के योग्य व्यक्ति को तो दीया ले कर खोजना पड़ता है। यहां प्रश्न यह है कि सैनिकों, सेना के रसोइयों और पहरेदारों की नियुक्ति भी क्या इसी तरह होगी? सेनापति कोई एक होता है, सेना में तो हजारों और लाखों व्यक्ति शामिल होते हैं। इन नियुक्तियों के लिए कोई परीक्षा नहीं होगी, तो ऐसे ही लोग नियुक्त होंगे जो सेनापति या जूनियर अफसरों से कोई परिचय निकाल लें। सामंती युग में ऐसा ही होता था। पर आधुनिक सेना में भर्ती का कुछ सुनिश्चित आधार तथा तौर-तरीका होता है। सभी को एक निर्दिष्ट प्रक्रिया से गुजरना होता है। यह कमाल लोकतंत्र और कानून के राज का है। अगर किसी की नियुक्ति जांच-प्रक्रिया से गुजरे बगैर या उनमें अधूरी सफलता पाने के बावजूद हो जाए, तो संसद में तहलका मच सकता है और मामले को न्यायालय तक भी ले जाया जा सकता है। इसके विपरीत, निजी क्षेत्र में किसी भी स्तर पर कोई भी नियुक्तियां होती रहें, न कोई भूंकता है न काटता है। कौन-सी व्यवस्था है जो बिना वाचडॉग के चल सकती है?
सरकारी और गैरसरकारी नियुक्तियों के मामले में यह जमीन-आसमान का फर्क क्यों है? क्या सरकारी प्रतिष्ठानों को चलाने के लिए एक तरह के गुणों की जरूरत होती है और गैरसरकारी प्रतिष्ठानों को चलाने के लिए दूसरी तरह के गुणों की ? सरकारी मशीन चलानेवाले और वही मशीन निजी क्षेत्र में चलानेवाले के बीच क्या योग्यता की खाई होती है, जिसे भरा नहीं जा सकता है? फिर उनकी नियुक्ति, वेतन, सेवा शर्तों आदि में इतनी विभिन्नता क्यों? 'समान काम के लिए समान वेतन' -- इस सिद्धांत को देश की सबसे बड़ी आदालत द्वारा मान्यता दी जा चुकी है। यही संविधान-सम्मत भी है। यही नैतिक भी है। सरकारी बस और निजी मालिकाने की बस, दोनों में ही चलनेवाले यात्रियों से एक निश्चित दूरी के लिए एक समान किराया वसूल किया जाता है। लेकिन इन्हीं बसों या रेलगाड़ियों को चलानेवाले ड्राइवरों की नियुक्ति और सेवा शर्तों में इतना फर्क क्यों? क्या यह निजी क्षेत्र की दादागीरी नहीं है?
सामंतवाद और पूंजीवाद में यह प्रमुख फर्क बताया जाता है कि पूंजीवाद अधिक कार्य कुशल है। वह संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करता है। अर्थात पूंजीवाद में गुणतंत्र के अनेक तत्व हैं। लेकिन व्यवहार में ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। पिता की संपत्ति पुत्र को मिलेगी, यह एक स्वाभाविक नियम माना जाता है। पूंजीवाद में यह नियम सामंतवाद से आया है। संसाधनों के कुशल उपयोग की दृष्टि से यह नियम कारगर प्रतीत नहीं होता। पिता अच्छा व्यापारी था, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बेटा भी उतना ही कुशल व्यापारी होगा। संभावना यह भी है कि वह पूरे व्यापार को ही नष्ट कर दे। पहले भी अच्छे राजाओं के अयोग्य पुत्र राज्य की बरबादी का कारण बन जाते थे। अगर पूंजीवाद भी, जो ज्यादा बुद्धिसंगत होने का दावा करता है, अपने को इसी नियम का शिकार बनाए रखता है, तो मानना पड़ेगा कि वह बहुत-से मामलों में बुद्धिहीन, पिछड़ा हुआ और सामंती है। इस बात को हमारे पूर्वजों ने अच्छी तरह समझ रखा था। एक बहुत प्रचलित कहावत है कि पूत कपूत तो क्या धन संचय, पूत सपूत तो क्या धन संचय अर्थात पुत्र अयोग्य है, तो उसके लिए धन का संचय क्यों करे? वह तो इसे बरबाद करके छोड़ेगा। दूसरी ओर, अगर पुत्र योग्य है, तो उसके लिए क्या धन जमा करना? वह अपनी व्यवस्था खुद कर लेगा। लेकिन उत्तराधिकार के नियम इस तार्किक व्यवस्था के कायल नहीं हैं।
अब हम नियुक्तियों में कार्य कुशलता की दृष्टि से अतार्किकता की बात करें। पूंजीवाद को कुशलतम कर्मचारियों की जरूरत होती है। उसके लिए प्रत्येक कर्मचारी की कार्य कुशलता महत्वपूर्ण है। अयोग्य कर्मचारी मुनाफे की मात्रा को कम ही करेगा, बढ़ा नहीं सकता। उसकी नियुक्ति से समाज में यह धारणा बनेगी कि नौकरी पाने के लिए गुणों की नहीं, परिचय और पैरवी की जरूरत है। इससे समाज में गुणवत्ता के प्रति आग्रह कम होता जाएगा। लोग नौकरी पाने के लिए अपनी योग्यता नहीं बढ़ाएंगे, बल्कि सोर्स की खोज करेंगे। पत्रकारिता की एक कक्षा में कई विद्यार्थियों ने कहा कि वे सोर्स भिड़ा रहे हैं, ताकि संस्थान से पास हो कर निकलने के बाद उन्हें मीडिया में ठीकठाक नौकरी मिल सके। वे अयोग्य नहीं थे। उन्हें खूब पता था कि संस्थान का छात्र बनने में उन्हें भले ही कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं से गुजरना पड़ा हो, पर मीडिया में नियुक्ति पत्र पाने में संस्थान की अंतिम परीक्षा में उनके बेहतर अंक कुछ भी मदद नहीं कर पाएंगे। एक तगड़ा सोर्स सभी प्रमाणपत्रों पर भारी पड़ेगा।
सवाल है कि ऐसे समाज में योग्यता का मूल्य क्या है? संसार चक्र में प्रवेश करने के पहले ही अगर सोर्स की महिमा समझ ली जाती है, तो कोई नियोक्ता यह दावा कैसे कर सकता है कि बाजार में उपलब्ध सबसे अच्छे लोग उसके पास हैं?

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