Sunday, March 30, 2008

लेखक का रास्ता

तुम समय के साथ नहीं चलोगे
राजकिशोर

बाइबल के सात परमादेशों (तुम लालच नहीं करोगे, तुम गर्व नहीं करोगे, तुम ईर्ष्या नहीं करोगे आदि) की तरह मुझे पता नहीं कि लेखकों के लिए भी कहीं कुछ परमादेश जारी हुए हैं या नहीं। यह संतों के बाद दूसरी प्रजाति है, जिसके सदस्य किसी के हुक्म से बंधे हुए नहीं होते। वे अपना रास्ता खुद बनाते हैं। इसमें यह थोड़-सा संशोधन जरूरी लगता है कि जो संत किसी संगठन में शामिल हो जाता है, उसे उस संगठन के अनुशासन में रहना पड़ता है। इसी तरह, जो लेखक किसी संगठन में शामिल हो जाता है, उसे अपने संगठन के निर्देशों का आदर करना पड़ता है। न तो अनुशासन बुरा है और न संगठन। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में इनकी जरूरत होती है। लेकिन जब वे स्वतंत्रता के दूसरी ओर खड़े होने की कोशिश करते हैं, तो वे अपनी भूमिका पर कोलतार पोत देते हैं। इसीलिए रचनात्मकता के क्षेत्र में संगठनों को प्राय: शक की निगाह से देखा जाता है।

फिर भी, कुछ अनौपचारिक परमादेश तो जारी किए ही जा सकते हैं। इनकी सूची बनाना दिलचस्प काम होगा। कभी रुचि हुई, तो यह काम करूंगा। दरअसल, ये परमादेश नहीं, समाज की अंतरात्मा के चीत्कार हैं। हर व्यक्ति में यह अंतरात्मा निवास करती है। मेरी अंतरात्मा जो कह रही है, उसे मैं यहां व्यक्त करना चाहता हूं। मेरे खयाल से, इस समय लेखकों को जो पहला परमादेश दिया जा सकता है, वह यह है कि तुम समय के साथ नहीं चलोगे। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में समय के साथ चलना बुद्धिमानी मानी जाती है। उद्योगपति समय के साथ नहीं चलता, तो वह मारा जाता है। नागरिक समय का साथ छोड़ देता है, तो वह अपने ही लोगों के बीच बासी हो जाता है। समय को अकसर प्रगति का चिह्न माना जाता है। लेकिन कभी-कभी ऐसा दौर भी आता है, जब समय के साथ चलना मूर्खतापूर्ण हो सकता है। पराधीन भारत में जब सभी संपन्न लोग अंग्रेजी पोशाक अपना रहे थे, एक अधेड़ आदमी ने तय किया कि वह अधनंगा रहेगा। और भी मामलों में उसने अपने समय के साथ चलने से इनकार कर दिया। लोगों ने उसे महात्मा कहा। आज दुनिया भर के विचारशील लोग कह रहे हैं कि वह अधनंगा बूढ़ा उन सभी से ज्यादा प्रासंगिक है जिन्होंने समय के साथ चल कर सत्ता पाई और मौज किया।

लेखकों में भी समय के अनुसार चलने की ख्वाहिश होती है। यहां तक कि वे अपनी भाषा-शैली और मुहावरा ही नहीं, विषयवस्तु भी समय के अनुसार उठाते हैं। वे इस पर कम विचार कम करते हैं कि समय की वास्तविक जरूरत क्या है। वे देखते यह है कि इस समय लेखन की दिशा क्या है और फिर उसी के अनुसार लिखने लग जाते हैं ताकि जल्दी मान्यता मिल सके। युवा लेखक जब ऐसा करता है, तो बात समझ में आती है। वह अभी अपनी दिशा खोज रहा होता है। लेकिन जो लेखक आगे भी नकलची बना रहता है, वह जितनी जल्द पैदा होता है, उतनी ही जल्द मर भी जाता है। किसी भी नए साहित्यिक आंदोलन के दौरान ऐसे बहुत-से लेखक पैदा होते हैं जो समय के साथ चलने की कोशिश में वह थोड़ी-बहुत रचनात्मकता भी खो बैठते हैं जो उनमें मौजूद होती है। इतिहास उनका उल्लेख 'इत्यादि' में भी नहीं करता।
यह जरूर है कि जो लेखक समय के अनुसार नहीं चलते, उन्हें इसका हरजाना चुकाना पड़ सकता है। जैसे अज्ञेय और निर्मल वर्मा को चुकाना पड़ा। कुछ समय तक रेणु भी इसके शिकार रहे। लेकिन आज उनके अवदान को कोई झुठला नहीं सकता। यिद्दिश भाषा में लिखनेवाले सिंगर ने अपनी निराली ही राह बनाई और उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत में इसके इतने ही जबरदस्त उदाहरण विजयदान देथा हैं। वे जिस शैली में कहानी लिखते हैं, वह किसी भी दृष्टि से आधुनिक नहीं है। लेकिन ऐसा माननेवालों की संख्या बढ़ती जाती है कि इस समय उनके जैसा आधुनिक लेखक भारत में कोई और नहीं है।

इसीलिए मैं यह कहना चाहता हूं कि मित्र, तुम लेखक हो, सचमुच लेखक हो, तो समय के साथ चलने से इनकार कर दोगे। बेशक तुम समय को गधा नहीं समझोगे। उसकी मांगों पर गहराई से विचार करोगे। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि यह भटका हुआ समय है, तो तुम उसके पीछे-पीछे नहीं दौड़ोगे। शक्तिशाली लोग चिल्ला रहे हों -- स्त्री-स्त्री, दलित-दलित, तो तुम भी इन्हीं विषयों पर लिखने नहीं बैठ जाओगे। लिखोगे भी तो विचार करोगे कि क्या कोई नया कोण उपस्थित करने की जरूरत है। पिटा-पिटाया सत्य समय का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। वह समय को अपने छाते से ढकने का प्रयास करता है। कई कारणों से साहित्य में हुआं-हुआं खूब चलता है और उसके बीच सत्य सुनाई नहीं देता। अकसर साहित्य में हुआं-हुआं सियार नहीं, खुद शेर करते हैं। खासकर जब वे बूढ़े हो चुके हों और नए सत्यों को या अपने से अलग सत्यों को देखने की क्षमता खो बैठे हों। तुम लेखक हो, तो इस भीड़ में शामिल होने से इनकार कर दोगे। तुम समय की एक ही आवाज नहीं सुनोगे। सभी आवाजें सुनने की कोशिश करोगे। वे आवाजें भी, जो किसी और को सुनाई नहीं पड़ रही हों। और फिर, तुम भी तो अपने समय का हिस्सा हो। तुम्हारी अपनी भी कोई आवाज हो सकती है। उसे तुम नहीं सुनोगे, तो और कौन सुनेगा?

माना जाता है कि साहित्य में लोकतंत्र सबसे ज्यादा होता है। होता है। लेकिन यहां भी राजनीतिक लोकतंत्र की तरह बहुमत के राज की समस्या खड़ी हो सकती है। जो बहुमत कह रहा हो, वही सत्य है, यह मान लिया जाए तो साहित्य में अल्पसंख्यक का क्या होगा? साहित्य किसी भी समाज में स्वयं अल्पसंख्यक होता है। उसकी दुनिया में भी बहुमतवाद? यह तो अपने स्वभाव के साथ ही जुल्म है। साहित्य के आंतरिक लोकतंत्र का तकाजा यह है कि यहां संप्रदाय न बनें। दोस्तियां और दुश्मनियां न निभाई जाएं। लेखकों को भेड़ की तरह हांका न जाए। आंदोलन चलें। अभियान चलाए जाएं। लेकिन लेखक के एकांत पर हमला न किया जाए। वहां अगर एक छोटी-सी कंदील झिलमिला रही है, तो उसकी रोशनी पर भी भरोसा किया जाए -- हो सकता है, उसका सच दोपहर के सूरज के सच से बड़ा हो।

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