Sunday, March 23, 2008

तारे जमीन पर

सभ्यता के विरुद्ध एक फिल्म

राजकिशोर

ऐसे परिपक्व और समझदार लोगों की कमी नहीं है जो किसी भी बात पर नहीं रोते। लेकिन कहते हैं, जो भी तारे जमीन पर देखने गया, वह रोते हुए ही लौटा। यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी की आंखें भी गीली हो आईं। ये आंसू किसके लिए थे? मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि वे सिर्फ फिल्म के बाल नायक ईशान के साथ जो बदकिस्मती हुई, उसके लिए थे। फिल्म के अंत में एक सहृदय कला शिक्षक उसे समझने की कोशिश करता है और आखिरन से जीवन की ओर वापस लाने में सफल होता है, जिसके बाद सभी ईशान की प्रतिभा का लोहा मानने लगते हैं, यह तो फिल्म की थीम हुई। संवेदना की जीत और रूढ़िबद्ध मानसिकता की हार, यह भी एक ऐसे रोने की वस्तु है जिसमें हर्ष और विषाद, दोनों का सुंदर घोल होता है। फिर भी, मेरे खयाल से तारे जमीन पर की मुख्य सफलता इस बात में नहीं है। फिल्म की सबसे बड़ी सफलता शायद यह है कि यह हम सभी को अपने बचपन में वापस ले जाती है और यह याद कर हमारे आंसू छलक पड़ते हैं कि काश, हमें भी बचपन में निकोन जैसा कोई अध्यापक मिला होता। प्रिय पाठक, यह अद्वितीय फिल्म देखते हुए मैं तो इसीलिए रोया।

अगर कोई यह समझता है कि यह फिल्म उस मानसिक बीमारी के बारे में है जिसके कारण अनेक बच्चे भरपूर प्रतिभा होते हुए भी पढ़-लिख नहीं पाते और अपने माता-पिता, आध्यापकों, सहपाठियों और पड़ोसियों की नजर में मूर्ख और जिद्दी बने रहते हैं, तो वह गलत नहीं है, पर वह पूरी तरह सही भी नहीं है। फिल्म निर्देशक ने यह दिखा कर हमारी जानकारी बढ़ाई है कि लियानार्दो विंची और अलबर्ट आइंस्टाइन प्रतिभाशाली लोग भी बचपन में इस बीमारी से ग्रस्त थे। लेकिन मामला सिर्फ यह नहीं कि कुछ खास बच्चों का अनादर क्यों होता है। मामला यह है कि जहां तक किसी बच्चे को समझने का सवाल है, सभी बच्चों का अनादर क्यों होता है। हममें से हर एक याद कर सकता है कि जब वह बच्चा था, तब उसे समझने की कितनी कोशिश हुई और उसकी संवेदनाओं का कितना खयाल रखा गया। शायद किसी भी बच्चे को ठीक से नहीं समझा जाता। तारे जब तक आसमान पर रहते हैं, वे एक सुनहली ज्योति से जगमगाते रहते हैं। लेकिन जब वे जमीन पर उतरते हैं, तो यहां की धूल-गर्द उन्हें धूसर कर देती है। एक खिल रहे व्यक्तित्व को सभ्यता के कठोर बंधन में बांधने की तैयारी उसके शैशव से ही शुरू हो जाती है। सभ्यता का यह बंधन इतना कठोर होता है कि वह शिशु के प्राकृतिक अस्तित्व को पीस कर उसे एक फार्मूला मानव में तब्दील कर देती है, जिसके बाद वह स्वत:स्फूर्त और स्वत:प्रेरित व्यक्ति नहीं रह जाता, इंजीनियर, डॉक्टर, मैनेजर, अफसर, शिक्षक, क्लर्क, सेल्समैन आदि बन जाता है। ऐसा नहीं है कि यह सब बनने में कोई हर्ज या बुराई है। सभ्यता को चलाना है, तो हमें सभी तरह की भूमिकाओं को सुंदर ढंग से निभानेवाले लोग चाहिए। फिल्म की मांग बस इतनी है कि मनुष्य बनने की कीमत पर जो कुछ भी बना जाता है, वह हमारे स्वाभाविक विकास को कुचलता है, हमें अपनी भावनाओं को गोपन में डाल देना सिखाता है और इस तरह समाज की मानवीय नींव को बरबाद कर देता है। फ्रायड ने इस विकट सभ्यता को जितनी अच्छी तरह समझाया है, किसी और ने नहीं। वे हमारी सभ्यता की बहुत-सी बीमारियों के सच्चे नब्जकार थे। यह और बात है कि उनका भी उपयोग सभ्यता की कुछ बीमारियों को बढ़ाने के लिए ही किया गया। वे समाधि से संभोग की ओर के प्रतीक बना दिये गए।

ध्यान देने की बात है कि इस फिल्म में सिर्फ एक बच्चे का बंद कर दिया गया भविष्य ही नहीं खुलता, बल्कि बहुत-से बालिग लोग भी सुबह होने पर सूरजमुखी की तरह खुलने लगते हैं। सबसे पहले तो वे तीन अध्यापक खुलते हैं जिनका पहले का व्यवहार जल्लाद की तरह था। कला मेले में वे अपने पर हंसना सीखते हैं और अपनी खोई हुई मनुष्यता को वापस पा लेते हैं। फिर ईशान को जिस बोर्डिंग स्कूल में दाखिल कराया गया, उसके प्रधानाध्यापक खुलते है जो पहले यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि नियम-कानून और अनुशासन से मुक्त हो कर भी कोई पढ़ाई हो सकती है। अंत में ईशान के बाप-मां खुलते हैं जिन्होंने मान लिया था कि उनके बच्चे का कोई भविष्य ही नहीं है। कहा जा सकता है कि जो चीज बच्चों को मुक्त करती है, वही बड़ों को भी मुक्त करती है। वस्तुत: बच्चों पर निषेध-प्रतिषेध का एक खास वातावरण लाद दिया जाता है, इसलिए बड़े हो कर वे भी आरोपण की भाषा में ही अपना जीवन व्यवहार चलाते हैं और अपने बच्चों से भी इसी भाषा में संवाद करते हैं। यह अधम सिलसिला कब से चला रहा है, मालूम नहीं। लेकिन अब तो यह हमारी सभ्यता का एक केंद्रीय मर्ज बन चुका है। निर्देशक ने महापुरुषों में से ऐसे उदाहरण दिए हैं जिन्हें वह बचपन में पढ़ने की वही तकलीफ थी जिससे ईशान परेशान था। लेकिन हम चाहें तो याद कर सकते हैं कि गांधी जी ने भी बचपन में स्पेलिंग की गलतियां की थीं और रवीन्द्रनाथ को भी स्कूली शिक्षा रास नहीं आई।

किसी भी सभ्यता की एक विशेषता यह होती है कि वह हमेशा अंतर्विरोधों से भरी हुई होती है। हम देख सकते हैं कि तारे जमीन पर जैसी खूबसूरत फिल्म इसी सभ्यता का पेट फाड़ते हुए निकली है। गांधी, रवींद्रनाथ, कार्ल मार्क्स, फ्रायड आदि महापुरुष इसी सभ्यता की देन हैं जिन्होंेने इसे सीधा कर पैर के बल खड़ा करने की कोशिश की। ऐसे ही एक महापुरुष हुए गिज्जू भाई, जिनकी शिक्षाओं पर गौर किए बिना कोई अच्छा अभिभावक बन सकता है अच्छा शिक्षक। लेकिन ये सभी हस्तियां सभ्यता के हाशिए पर खड़ी दिखाई देती हैं। आमिर खान की यह फिल्म भी ऐसी है। कुछ और समय तक इसकी सराहना होती रहेगी। फिर लोग इसे भूल जाएंगे और इश्क, अपराध तथा हास्य-विनोद की सुपरिचित दुनिया में रम जाएंगे। सभ्यताएं अपने घुनों को इसी तरह सक्रिय रखती है। तारे जमीन पर दुर्दशा हो, इसके पहले क्या यह मांग की जा सकती है कि सरकारी खर्च पर, सामाजिक संगठनों के माध्यमों से और लोगों की अपनी मांग पर यह फिल्म प्रत्येक स्कूल-कॉलेज और गांव-मुहल्ले में दिखाई जाए?


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