Friday, March 21, 2008

तसलीमा का भारत से पलायन

हम सबके माथे पर शर्म
राजकिशोर

तसलीमा नसरीन ने उन्नीस मार्च की अर्धरात्रि को करीब आठ महीने के अपने कारावास ले मुक्त होने के लिए भारत छोड़ दिया और फिर यूरोप में जा बसीं। अब भारत किस मुंह से दावा कर सकता है कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद का देश है? तसलीमा के भारत प्रवास के इन आठ महीनों में उनके साथ जो सलूक किया गया, वह बताता है कि एक देश के तौर पर हम दुनिया के निकृष्टतम मेजबान हैं। हम लेखक की इज्जत करना नहीं जानते, हम स्त्री का सम्मान करना नहीं जानते, हम विमत का आदर करना नहीं जानते। इसके बाद भी क्या हम दावा कर सकते हैं कि भारत एक सभ्य देश है? इसके बाद हम किस जुबान से यह कह सकते हैं कि दक्षिण एशिया में भारत लोकतंत्र का एक हरा-भरा द्वीप है ?

हमारी प्रचीन सभ्यता ने हमें यही सिखाया है कि विमत का सम्मान करो, यहां तक कि उसका खंडन करना हो, तब भी उसे गौर से सुनो। खंडन-मंडन की हर किताब में पूर्व पक्ष भी रखा जाता है और उत्तर पक्ष भी। पूर्व पक्ष यानी वह मत जिसका खंडन किया जाना है। उत्तर पक्ष यानी उस मत का जवाब। तसलीमा नसरीन को देश छोड़ने का हुक्म दे कर हमने इस महान परंपरा का अनादर किया है। शास्त्रार्थों की परंपरा वाले इस देश मेंें एक लेखिका को अपनी बात कहने का अधिकार नहीं है। फिर हम अकबर ग्रेट क्यों लिखते हैं; इस बात पर क्यों गर्वित होते हैं कि वह सभी मतों को गौर से सुनता था और खुद मुसलमान होते हुए भी इसलामी मत को सर्वोपरि नहीं मानता था? हमें कबीर पर नाज क्यों है और हम जगह-जगह अनहद का आयोजन क्यों करते हैं? इसीलिए तो कि वह विचारों की दुनिया में सबसे बड़ा फकीर-योद्धा था, कि वह ईश्वर और अल्लाह को मंदिर-मस्जिद में रखनेवाले, दोनों की भरपूर खिंचाई कर सकता था? हम मिर्जा गालिब को, जिन्होंने बड़े प्यार से लिखा था कि हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल को बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है, भारत का सबसे बड़ा शायर होने का खिताब क्यों दिए हुए हैं? क्या स्वामी दयानंद सरस्वती इसी देश में हुए थे जिन्होंने उन सभी धर्मों और मतवादों पर लट्ठ प्रहार करने का साहस दिखाया था जो उन्हें तर्क के अनुकूल नहीं जान पड़े? क्या 'मैं नास्तिक क्यों हूं' की सार्वजनिक घोषणा करनेवाले भगत सिंह हमारे ही युवा पूर्वज थे? लानत है हम पर, जो अपने पुरखों की ख्याति पर कलंक लगा कर भी अशांत नहीं हैं। लानत है उन पर जिन्होंने हमने कुछ मुस्लिम वोटों को बचाने के लिए इतना बड़ा जुआ खेला है। हमारे शासकों ने साबित कर दिया है कि वे इस महान देश के शासक बनने के काबिल नहीं हैं। उन्हें यही सब करना है, तो अपने लिए कोई और देश खोज लेना चाहिए।

हमारे ये शासक केवल हमारी परंपरा की बेकदरी करनेवाले हैं, बल्कि वे आधुनिक भी नहीं हैं। आधुनिक सभ्यता का केंद्रीय मूल्य है विचार, तर्क और अभिव्यक्ति की आजादी। साम्यवाद के घोर विरोधी देश संयुक्त राज्य अमेरिका में साम्यवादी साहित्य खुलेआम बिकता है। वहां अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का एलान किया जा सकता है। यूरोप के अधिकांश देशों में, खासकर इंग्लिस्तान में, सभी तरह के विद्रोहियों को स्थान मिल सकता है। इन सभी देशों में सभी धर्मों और संप्रदायों के खिलाफ वैचारिक अभियान चलाया जा सकता है। खरी परंपरा की तरह खरी आधुनिकता भी मनुष्य के इन मौलिक अधिकारों की इज्जत और रक्षा करती है। लेकिन हमें टेक्नोलॉजी तो आधुनिकतम चाहिए भी, हथियार भी लेटेस्ट चाहिए, हम नवीनतम फैशन को खुशी-खुशी ढो सकते हैं, लेकिन आधुनिक विचार की अनिवार्य मांगों से कोसों दूर रहना चाहते हैं।

जैसे देश के बहुत-से मामलों में, वैसे ही तसलीमा नसरीन के मामले में भी भारत सरकार ने साबित कर दिया है कि वह भारत के संविधान को कुछ स्याह-सफेद पन्नों से ज्यादा नहीं समझती है। उसके संचालक देश भर के सामने यह शपथ ले कर पद ग्रहण करते सत्ता में आते हैं कि 'मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा और मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा।' लेकिन अपनी सत्ता को बचाने के लिए भारतीयों को उनकी अपनी आंख में और दुनिया के सभी सभ्य लोगों की आंख में गिराने में उन्हें थोड़ी-सी भी झिझक नहीं होती। मंत्री पद की शपथ में जिनके प्रति न्याय करने की प्रतिज्ञा करने का विधान है, वे सिर्फ भारत के नागरिक नहीं हैं। वे हैं 'सभी प्रकार के लोग' (अंगरेजी में 'ऑल मैनर ऑफ पीपल') इनमें देशी लोग भी शामिल हैं और विदेशी लोग भी। नागरिक भी, अनागरिक भी। अच्छे लोग भी, अपराधी भी। अगर इनकी नजर में तसलीमा ने कोई अपराध किया था, तो उनके साथ न्याय क्या यही था कि उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से इतना प्रताड़ित किया जाता कि वे अपनी जान बचाने के लिए रात के अंधेरे में वह देश छोड़ दें जहां वे इस उम्मीद में आई थीं कि यह उनका दूसरा घर है? बांग्लादेश माता ने उन्हें त्याग दिया था, तो भारत माता तो उनका खयाल रख सकती थीं तसलीमा का दिल तोड़ कर भारत सरकार ने उन सभी लोगों का दिल तोड़ दिया है जो मानते हैं कि भारत में और चाहे जो हो जाए, विचार और अभिव्यक्ति की आजादी तो बरकरार रहेगी। गनीमत यह है कि एक धरती माता भी है, जो अपने बच्चों के लिए कहीं कहीं जगह निकाल लेती है।

तसलीमा नसरीन के साथ तीन भिन्न रंगों की सरकारों की राजधानियों कोलकाता, जयपुर और दिल्ली ने एक जैसा सलूक किया। कोलकाता ने उन पर दो-चार दिन की बंदिश लगाई और फिर बिना उनकी अनुमति या सहमति लिए उन्हें राजस्थान रवाना कर दिया। दिल्ली के आस-पास और भी कई राज्य थे। रमणीय हिमाचल प्रदेश भी था, जहां उन दिनों कांग्रेस का राज था। एक लेखक के लिए उससे अच्छी जगह क्या हो सकती है? लेकिन नहीं, कोलकाता के तथाकथित वामपंथियों को साबित करना था कि तसलीमा तो भाजपा की चहेती हैं। जब उन्हें अंतत: दिल्ली ही लाना था, तो सीधे दिल्ली क्यों नहीं? क्या ये तथकथित वामपंथी नहीं मानते हैं कि भारत एक और अखंड देश है? तसलीमा के जो मानव अधिकार जयपुर में थे, दिल्ली में थे, वही कालकाता में थे। जब नंदीग्राम में कानून का राज स्थापित करने के लिए वाम मोर्चा बेचैन था, तो वह कोलकाता में कानून के राज का सम्मान करने से क्यों पीछे हट गया? क्या कानून का राज तभी तक मंजूर है, जब तक निहित राजनीतिक स्वार्थों को चोट नहीं लगती?

राजस्थान में भाजपा की सरकार है। भाजपा प्रमुदित है कि तसलीमा ने 'लज्जा' लिख कर बांग्लादेश में हिन्दुओं की दुर्गत को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है, कि वे मुस्लिम मतांधता पर आक्रमण करती रहती हैं। लेकिन जयपुर के आधुनिक नवाबों ने भी तसलीमा को आजाद नहीं किया और उन पर वे प्रतिबंध जारी रखे जो कोलकाता में लगे हुए थे। भाजपा मानती है कि दिल्ली की मौजूदा सरकार देश का सर्वनाश कर रही है। भाजपा की राज्य सरकारें जब-तब दिल्ली की हुकूमत के खिलाफ मोर्चा खोलती रहती हैं। फिर तसलीमा को मानवोचित शरण देने में जयपुर ने कोलकाता और दिल्ली से अलग रुख क्यों नहीं अख्तियार किया? तसलीमा भारत में अवैध रूप से नहीं रह रही थीं। उनके पास वैध वीसा था। कम से कम इस वीसा के सम्मान में जयपुर तसलीमा को आजाद कर सकता था और देख सकता था कि दिल्ली क्या करती है। राजस्थान की मुख्य मंत्री एक महिला हैं। महिला होने के नाते भी वे एक दूसरी महिला के अधिकारों की रक्षा करने में आगे सकती थीं। राजस्थान परंपरा से वह इलाका रहा है जहां आश्रय लेनेवाले की रक्षा जान दे कर भी की जाती है। वसुंधरा राजे स्वयं भी राजपूत हैं। मुख्य मंत्री के रूप में उनके हाथ बंधे हुए थे, तो एक राजपूत और एक स्त्री के रूप में तो वे स्वतंत्र थीं? राणा प्रताप की ख्याति यह है कि उन्होंने घास की रोटी खा कर भी अपने मूल्यों की रक्षा की। तसलीमा के मूल्यों और अधिकारों की रक्षा करने में अगर वसुंधरा राजे को मुख्य मंत्री पद खोना भी पड़ जाता, तो उन्हें घास की रोटी भी नहीं खानी पड़ती और वे देश भर की लाड़ली बन जातीं। अगर हम दो-चार सौ मतांधों से हार गए, तो यह जान कर हम क्या करेंगे कि हम पाकिस्तान या चीन का मुकाबला कर सकते हैं? युद्ध सिर्फ वही नहीं होते, जो सीमा पर लड़े जाते हैं। युद्ध हमारे मनों में, हमारे परिवारों में, हमारे गांवों और शहरों में और देश के भीतर भी छिड़े जाते हैं।

दिल्ली ने तसलीमा के साथ क्या किया? भारत छोड़ने के पहले तसलीमा ने ईमेल के जरिए दुनिया भर को बताया कि 'सुरक्षा कारणों से' -- (1) मुझे आठ महीने तक एक गुमनाम जगह में नजरबंद रखा गया, जहां मैं किसी से मिल सकती थी कोई और मुझसे मिल सकता था। (2) गंभीर रूप से बीमार होने पर भी मैं किसी डॉक्टर से नहीं मिल सकती थी। (3) मेरा रक्तचाप जब बहुत ऊंचा हो गया, तो पोशीदा तरीके से मुझे एम्स में भरती करा दिया गया वहां के डॉक्टरों ने कहा कि आपको दो-तीन हफ्ते अस्पताल में ही विश्राम करना चाहिए, फिर भी सरकारी मुलाजिमों ने कई दिनों के बाद मुझे वहां नहीं रहने दिया। (4) एक दिन मुझे अचानक कॉर्डियक केयर यूनिट से निकाल कर विदेश मंत्री के पास ले जाया गया, जिन्होंने मुझे देश छोड़ने के लिए धमकाया।

कहते हैं, लोकतंत्र हमें मजबूत बनाता है। तसलीमा प्रकरण ने साबित किया कि लोकतंत्र कमजोर भी करता है। तसलामा के साथ कोलकाता, जयपुर और दिल्ली में अगर वही व्यवहार किया गया जो हमारी पुलिस की नृशंस हिरासत में अपराधियों या संदिग्ध व्यक्तियों के साथ किया जाता है, तो इसीलिए कि सभी को डर है कि मुस्लिम वोटों का एक टुकड़ा कहीं हमसे छिटक जाए। इस लोकतंत्र में इतना नैतिक बल नहीं है कि वह हमारे गुमराह मुसलमान भाई-बहनों को बताए कि इसलाम की उच्चतम शिक्षाएं क्या हैं। सबसे ज्यादा अफसोस की बात यह है कि दिल्ली के लेखक समाज ने भी, जो तसलीमा की गुप्त जेल से, सौ-पचास किलोमीटर की दूरी पर ही रहते हैं, उनकी रिहाई के लिए वक्तव्य देने के अलावा कुछ नहीं किया। शायद वे संसद भवन के सामने सत्याग्रह कर सकते थे। शायद वे जुलूस बना कर विदेश मंत्री से मिलने जा सकते थे। शायद वे खुद भी गिरफ्तार हो सकते थे कि जब तक वे जेल में हैं, तब तक हमारे रहने की उचित जगह जेल ही है। जिससे प्रेम है, उसके लिए त्याग करना शक पैदा करता है कि प्रेम कहीं झूठा तो नहीं

या, तसलीमा बंद जेल में रह रही थीं, तो हम खुली जेल में रह रहे हैं, जहां हमारे मनोबल को इस तरह तोड़ दिया गया है कि हम दूसरों के मानव अधिकारों की रक्षा करने के अपने मानव अधिकार (और कर्तव्य) को भुला देने के लिए मजबूर हैं? या, हमने अपने लिए यह जेल खुद तैयार की है, ताकि हमें स्वतंत्र मनुष्य की जिम्मेदारियों के साथ जीना पड़े और दाल-रोटी मिलती रहे?

7 comments:

Ghost Buster said...

आपसे सहमत हैं. शर्मनाक घटना है तसलीमा का भारत से जाना.

फॉण्ट साइज़ कुछ कम कीजिये. लंबा स्क्रोल करना पड़ता है.

दिलीप मंडल said...

राजकिशोर जी, तस्लीमा पर आपने हमारे दिल की बात लिखी है। धन्यवाद।

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने खरी बात लिख दी है। लेकिन अब तो सोच बननी चाहिए कि यह सिस्टम लोगो को क्या बना रहा है।

subhash Bhadauria said...

आदरणीय राजकिशोरजी
आपका तस्लीमाजी के बारे में आलेख सियासत के दोगले पन को ही उजागर नहीं करता अदीबों की बुज़दिली,मौकापरस्ती,काइंयापन की भी पोल खोल रहा है.ये सब धिक्कारने के योग्य भी नहीं.
मैंने उनकी भारत त्याग कि विवशता को अपनी एक ग़ज़ल में इस पते पर महसूस किया था.
http://subhashbhadauria.blogspot.com/2008/02/blog-post_24.html

जैसे नागनाथ वैसे सांपनाथ दोनों की फितरत किसी से छिपी नहीं.अफ़सोस तो कलमकारों की कायरता का है जो इस हादसे पर मौन हैं वे भी कहीं पुरस्कार की जुगाड़ में खीसें निपोरने में लगे होंगे.

बोधिसत्व said...

मुझे तो लगता है कि देश में अभिब्यक्ति की आजादी नाम की कोई चिड़िया रहती ही नहीं....हम सब तभी तक आजाद हैं जब तक किसी की राह में रोड़े न बने....

अफ़लातून said...

बोधिसत्व से सहमति ।

Anshu Mali Rastogi said...

तसलीमा पर इस लेख को पढ़कर यह आसानी से समझा जा सकता है कि हिंदी समाज कितना नंपुसक और डरपोक है। तसलीमा की सुरक्षा के लिए हाथों में मोंमबत्तियां थामकर प्रगतिशील अगर यह समझते हैं कि वो कोई क्रांति करने निकले हैं तो यह उनकी खुशफहमी भर है।