Sunday, September 23, 2007

राजनीति में नए लोग

बदलाव हो तो कैसे
राजकिशोर

यह कहना पूरी तरह सच नहीं है कि भारत की राजनीति में नए और अच्छे लोग नहीं आ रहे हैं। वे आ रहे हैं और वैसे ही आ रहे हैं जैसे पौधों पर नए फूल लगते हैं। लेकिन उन्हें हम देख नहीं पाते न उनके बारे में पत्र-पित्रकाओं में कुछ लिखा जाता है। इसका कारण यह है कि वे छिप कर काम करते हैं। मेरा इशारा नक्सलवादी राजनीति की ओर है। अगर इस राजनीतिक धारा में नए लोग, जिनमें से ज्यादातर अबोध और आदर्शवादी युवक-युवतियां होती हैं, नहीं आ रहे होते, तो नक्सलवादी राजनीति का इतनी तेजी से विस्तार कैसे हो रहा होता? इससे इस बात का भी पता चलता है कि भारतीय समाज से आदर्शवाद पूरी तरह से खत्म नहीं हो गया है, जैसा कि अकसर दावा किया जाता है। ध्यान देने की बात है कि यह आदर्शवाद नगरों और महानगरों में कम दिखाई पड़ता है तथा गांवों और कस्बों में ज्यादा। ये वे इलाके हैं जहां दुख और अन्याय ज्यादा हैं तथा उनके प्रति वैचारिक प्रतिक्रिया भी कम नहीं है। महानगरों में अवसर अधिक हैं तथा लालच का उपभोक्तावादी माहौल कभी व्यापक और सघन है। इसलिए यहां का या यहां आने वाला युवक न्याय के लिए संघर्ष करने के स्थान पर अन्याय की मशीनरी में अपनी जगह खोजने में लग जाता है। उसमें भी शुरू-शुरू में आदर्शवादी आक्रोश होता है -- कुछ में तो यह काफी देर तक बना रहता है और वे जहां और जो काम करते हैं, उसे ले कर नैतिक तनाव पैदा करता रहता है -- लेकिन परिस्थितियों के दबाव से यह धीरे-धीरे शमित हो जाता है। इनमें से कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो अपने मूल स्थान पर किसी प्रगतिशील या क्रांतिकारी दल के सदस्य हुआ करते थे और महानगर में जाने के बाद भी अपनी यह सहस्यता ढीले-ढाले ढंग से बनाए रखते हैं, लेकिन रोजगार के लिए जो काम करते हैं, वह वर्तमान व्यवस्था को मजबूत करने की दिशा में होता है।
दूसरी ओर परंपरागत दलों में भी नई भर्ती चलती रहती है। यहां दो प्रकार की प्रक्रियाएं चलती हैं। एक तो कस्बे के सत्ताकांक्षी युवक सत्तारूढ़ या अपनी पसंद के दल में शामिल हो जाते हैं, ताकि वे विधायक, सांसद आदि बन सकें और यह हासिल नहीं हो सका, तो पार्टी नेताओं के पिछलग्गू बन कर कुछ ताकत तो हासिल कर ही लेते हैं। इनमें ज्यादातर छोटे-मोटे गुंडे होते हैं और गुंडे नहीं होते हैं, तो धीरे-धीरे बन जाते हैं। इनका मुख्य काम होता है लोगों के तरह-तरह के सही-गलत काम करवाना और पुलिस से मिल कर राहत दिलवाना या किसी बेईमान या बेईमानी को सुरक्षा प्रदान करना। चूंकि आज किसी भी दल के पास कोई राजनीतिक कार्यक्रम तो होता नहीं जो कार्यकर्ताओं को व्यस्त रखे, इसलिए इनका मुख्य काम यह पता लगाना होता है कि कैसे इलाके के बड़े और महत्वपूर्ण लोगों से परिचय किया जाए और परिचय हो गया है, तो उसे कैसे बढ़ाया जाए, कैसे और ज्यादा कमाई की जाए तथा कैसे कलक्टर, एसपी, जिला पंचायत अध्यक्ष वगैरह के साथ दोस्ती गांठी जाए और अंत में, कैसे किसी अच्छे होटल या गेस्ट हाउस में रंगरेलियां मनाई जाएं। मर्दागनी की अपनी इस यात्रा में ये स्थानीय युवतियों को फांसने और उन्हें अपने शौकों की बलि चढ़ाने के लिए लगातार षडयंत्र करते रहते हैं और सफल भी हो जाते हैं। जब महिलाओं को विधान सभा और संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण मिल जाएगा, तो इस वर्ग के ऐयाश सदस्यों की बन आएगी।
यह वह वर्ग है जिसके लिए एक राजनीतिक दल और दूसरे राजनीतिक दल में कोई अंतर नहीं होता। वैसे तो अधिकांश राजनीतिक दलों के आंतरिक और बाह्य चरित्र में कोई अंतर रह भी नहीं गया है, इसलिए अकसर चुनाव आते ही यह राजनीतिक लुंपेन अपने लिए नए और बेहतर ठिकाने की खोज में लग जाता है। चुनाव लड़ना और लड़वाना ही इस समय देश की मुख्य राजनीतिक गतिविधि है, इसलिए हम पाते हैं कि चुनाव की तैयारी शुरू होते ही पता नहीं कहां से नए राजनीतिक कार्यकर्ताओं के झुंड के झुंड के झुड अचानक प्रगट हो जाते हैं और सामाजिक युध्द का सामाजिक वातावरण बन जाता है। इस युध्द में चुनाव के पहले, चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद कुछ प्रतिद्वंद्वी मारे भी जाते हैं -- खास कर उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में। दूसरी प्रक्रिया दल-बदल की है। यही वह राजनीतिक वर्ग है, जिसमें सर्वाधिक दल-बदल होता है। इस दल से टिकट नहीं मिला तो उस दल में चले गए। इस दल का नेता काम नहीं करा रहा है, तो दूसरे दल के नेता की शरण ले ली। जाहिर है, जो व्यक्ति अपना दल छोड़ कर दूसरे दल में शामिल होता है, वह अपने समर्थक समुदाय के साथ ही यह छोटी-सी अवसरवादी यात्रा करता है। चूंकि सांसदों और विधायकों का अस्तित्व इसी वर्ग के समर्थन पर टिका होता है, इसलिए प्रत्येक दल में असंतुष्टों की एक स्थायी सेना हमेशा बनी रहती है। इस सेना का स्वभाव श्रमिक यूनियन की तरह होता है, जिसके पास नई-नई मांगों की सूची हमेशा तैयार रहती है।
इस तरह, हम पाते हैं कि राजनीति में नए लोग आ तो रहे हैं, पर उनसे राजनीति का चरित्र बदल नहीं रहा है। जहां तक आदर्शवादी युवक-युवतियों का सवाल है, वे ऐसी राजनीतिक धाराओं में जा रहे हैं जो चुनाव की लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास नहीं करतीं और राजनीतिक तथा सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा या हिंसक उपायों में यकीन रखती हैं। दूसरी तरफ, राजनीति में ऐसे नए लोग आ रहे हैं जो राजनीति के पहले से ही गंदे तालाब को और ज्यादा गंदा कर रहे हैं। असली सवाल यह है कि खुली, लोकतांत्रिक राजनीति में शरीफ, शिक्षित और काफी हद तक चरित्रवान लोग कैसे प्रवेश करें। ऐसे लोगों की संख्या भी कुछ कम नहीं है जो राजनीति की वर्तमान दुर्दशा देख कर सार्वजनिक जीवन में आना चाहते हैं, पर पाते हैं कि उनके लिए किसी भी राजनीतिक दल में कोई जगह नहीं है। इसीलिए किसी भी प्रतिभावान व्यक्ति से पूछिए कि वह राजनीति में जा कर देश के सार्वजनिक जीवन को थोड़ा शुध्द करने का प्रयास क्यों नहीं करता, तो जवाब यही मिलेगा -- वहां क्या मरने के लिए जाएं? वहां मेरे जैसे आदमी को कौन पूछेगा?

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