समय का सबसे समर्थ हस्ताक्षर
राजकिशोर
किसी भी लेखक के लिए सबसे बड़ी बात यह होती है कि वह अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन जाए। जैसे निराला जी या रामविलास शर्मा हिन्दी जगत के लीजेंड थे और आज भी उनकी यह हैसियत बनी हुई है। हिन्दी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी का स्थान ऐसा ही है। वे बालमुकुंद गुप्त, विष्णुराव पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी की महान परंपरा की अंतिम कड़ी थे। भारत में पत्रकारिता जिस दिशा में जा रही है, आनेवाले समय में यह विश्वास करना कठिन होगा कि कभी प्रभाष जोशी जैसा पत्रकार भी हुआ करता था।
पत्रकारिता की ऊंचाई इस बात में है कि वह रचना बन जाए। प्रभाष जी पत्रकारों के बीच रचनाकार थे। उन्होंने जो कुछ लिखा जल्दी में ही लिखा, जो पत्रकारिता की जरूरत और गुण दोनों है, पर उनकी लिखी एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसमें विचार या भाषा का शैथिल्य हो। वे जितने ठोस आदमी थे, उनका रचना कर्म भी उतना ही ठोस था। सर्जनात्मकता का उत्कृष्टतम क्षण वह होता है जब रचना और रचनाकार आपस में मिल कर एक हो जाएं। प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व और लेखन, दोनों में ऐसा ही गहरा तादात्म्य था। वे जैसे थे, वैसा ही लिखते थे। इसीलिए उनकी पत्रकारिता में वह खरापन आ सका जो बड़े-बड़े पत्रकारों को नसीब नहीं होता।
पत्रकार अपने समय की आंख होता है। बदलते हुए परिदृश्य पर सबकी नजर जाती है, लेकिन पत्रकार अपने हस्ताक्षर वहां करता है जहां उसके समय का मर्म होता है। इस मायने में प्रभाष जोशी ने अपने पढ़नेवालों या सुननेवालों को कभी निराश नहीं किया। उन्होंने हमेशा अपने वक्त के सबसे मार्मिक बिन्दुओं को चुना और उन पर अपनी निर्भीक और विवेकपूर्ण कलम चलाई। अपने अंतिम बीस वर्षों में उनके दो केंद्रीय सरोकार थे – सांप्रदायिकता और बाजारवादी अर्थव्यवस्था। इन दोनों ही धाराओं में वे महाविनाश की छाया देख रहे थे। सांप्रदायिकता से उन्होंने अकेले जितने उत्साह और निरंतरता के साथ बहुमुखी संघर्ष किया, वह ऐतिहासिक महत्व का है। यह उनकी सनक नहीं थी, भारतीय समाज के साथ उनके प्रेम का विस्फोट था। गहरी सामाजिक संलग्नता की अनुपस्थिति में वह प्रखरता नहीं आ सकती थी जो प्रभाष जी के सांप्रदायिकता-विरोधी लेखन में दिखाई पड़ती है। उनके लिए यह मानो धर्मयुद्ध था, जिसमें उन्हें जीतना ही था।
नई अर्थनीति के खतरों को उन्होंने तभी देख लिया था जब आधुनिकीकरण के नाम पर कंप्यूटर युग की शुरुआत हुई थी और मनुष्य को मानव संसाधन माननेवाली विचारधारा अपने पैर जमा रही थी। आर्थिक सुधारों के नाम पर किए जानेवाले सभी फैसलों को उन्होंने शक की निगाह से देखा और आम आदमी के हितों को ध्यान में रख कर उनकी समीक्षा की। स्वच्छंद पूंजी की धमक से वे बहुत बेचैन रहते थे और उसके सर्वनाशी नतीजों से बराबर आगाह करते रहे। उनके इस आग्रह में गांधीवाद को ढूंढ़ना बेकार है। यह उनके प्रखर राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति थी। यह वही राष्ट्र प्रेम था जो उनके अन्य सामाजिक सरोकारों में प्रगट होता था। उनके कर्मकांडी हिन्दू होने के बावजूद उनका विवेक कभी मलिन नहीं होता था। उनके कुछ विचार अंत तक विवादास्पद बने रहे, लेकिन अपनी प्रामाणिकता में उनका गहरा विश्वास था। यह वैसा ही विश्वास है जो किसी प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी में दिखाई पड़ता है। ऐसे मामलों में हमें ‘संदेह का लाभ’ देने में संकोच नहीं करना चाहिए।
मीडियम इज द मेसेज – यह पंक्ति लाखों बार दुहराई जाने के बावजूद अर्थहीन नहीं हुई है। यह कुछ वैसा ही वाक्य है, जैसे गांधी जी की यह धारणा कि साध्य और साधन में पूर्ण एकता होनी चाहिए। पत्रकारिता का मुख्य औजार है भाषा। इसलिए यह संभव नहीं था कि जो व्यक्ति समाचार और विचार, दोनों क्षेत्रों में क्रांति कर रहा हो, वह भाषा के क्षेत्र में परिवर्तन की जरूरत के प्रति उदासीन रहे। अगर भारतेंदु के समय में हिन्दी नई चाल में ढली, तो प्रभाष जोशी ने उसे एक बार फिर नई चाल में ढाला। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनका यह योगदान असाधारण है और इसके लिए उन्हें युग-युगों तक याद किया जाएगा।
पत्रिकाओं के क्षेत्र में जो काम ‘दिनमान’ और ‘रविवार’ ने किया, अखबारों की दुनिया में प्रभाष जोशी द्वारा स्थापित ‘जनसत्ता’ ने उससे कहीं बड़ा और टिकाऊ काम किया। पत्रकारिता की समूची भाषा को आमूलचूल बदल देना मामूली बात नहीं है। यह काम कोई ऐसा महाप्राण ही कर सकता है जिसमें संस्था बनने की क्षमता हो। ‘जनसत्ता’ एक ऐसी ही संस्था बन गई। यह कहना अर्धसत्य होगा कि प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की तत्कालीन निर्जीव और क्लर्क टाइप भाषा को आम जनता की भाषा से जोड़ा। यह तो उन्होंने किया ही, उनका इतने ही निर्णायक महत्व का योगदान यह है कि उन्होंने जन भाषा को सर्जनात्मकता के संस्कार दिए। हिन्दी की शक्ति उसके तद्भव व्यक्तित्व में सबसे अधिक शक्तिशाली रूप में प्रगट होती है। प्रभाष जी का व्यक्तित्व खुद भी तद्भव-जन्य था। वे खांटी देशी आदमी थे। उनकी अपनी भाषा भी ऐसी ही थी। आश्चर्यजनक यह है कि उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता से अपने पूरे अखबार को ऐसा ही बना दिया। इस क्रांतिकारी रूपांतरण में उनके संपादकीय सहकर्मियों की भूमिका को कम करके नहीं आंकना चाहिए।
मीडियम के इस परिवर्तन में मेसेज का परिवर्तन अनिवार्य रूप से समाहित था। सो ‘जनसत्ता’ की पत्रकारिता एक नई संवेदना ले कर भी आई। यह संवेदना शोषित और पीड़ित जनता के पक्ष में और सभी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध थी। भारत की जनता के दुख और पीड़ा के जितने भी पहलू हो सकते थे, इस नए ढंग के अखबार ने सभी को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया। दुख की बात यह है कि बाद की पीढ़ी ने इस भाषा को तो अपनाया, पर उसकी पत्रकारिता में वह संवेदना नहीं दिखाई देती जिसे प्रभाष जी ने ‘जनसत्ता’ के माध्यम से विस्तार दिया।
प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व बहुमुखी और समग्रता लिए हुए था। उसमें साहित्य, संगीत, कला – सबके लिए जगह थी। इस गुण ने उनकी पत्रकारिता में चार चांद लगा दिए। ‘जनसत्ता’ ने हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का पुनर्वास किया। ऐसे समय में, जब पत्रकारिता साहित्य से कटने में गर्व का अनुभव कर रही थी, यह एक साहसिक घटना थी। इसी तरह, संस्कृति के अन्य रचनात्मक पक्षों को भी प्रभाष जोशी ने पूरा महत्व दिया। खेल में तो जैसे उनकी आत्मा ही बसती थी। कुल मिला कर, हिन्दी प्रदेश में प्रभाष जोशी एक समग्र बौद्धिक केंद्र थे और ऐसा ही वातावरण बनाने के लिए अंतिम समय तक सक्रिय रहे। प्रभाष जी को आधुनिक भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कहा जाए, तो इसमें अतिशयोक्ति का एक कतरा भी नहीं है। 000
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4 comments:
दुखद. मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.
सच कहा आपने पंद्रह सोलह की उम्र थी तब ओर जनसत्ता को यूं घोटके पढ़ते थे ...पहले पन्ने पर उनका कभी भी आ धमकना .ओर अपने अंदाज में बेलौस लिखना ...आज भी याद है .कुछ ही दिन पूर्व हिंदी तहलका में बेबाकी से उन्होंने अखबारों में चुनाव के दौरान चल रहे पैसे के खेल को निर्भीकता से उठाया था .उनकी सक्रियता एन दी टी वी की कुछ बहसों में देखी जा सकती थी .अखबारों के प्रति एक आम नजरिया उन्होंने बदला था ....
जनसत्ता से मन की अजब मोहिनी सत्ता बनी। जो सबके मन मानस पर छा गई। विनम्र श्रद्धांजलि जनसत्ता के द्वारा मन पर सत्ता करने वाले अद्भुत चितेरे को।
यह प्रभाष जोशी पर लिखी गई सबसे अच्छी श्रद्धांजलि है. राजकिशोर जी ने बिल्कुल सही लिखा है कि लोग यह यकीन ही नहीं करेंगे कि इस तरह का कोई पत्रकार दिल्ली में रहकर इस तरह की सोच रखकर पत्रकारिता करता रह सकता है और इतना सम्मानित और श्रद्धेय भी बना रह सकता है. राजकिशोर इस परंपरा के लेखक हैं इसलिए भी उनके महत्त्व को समझते हैं.
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