भाजपा को जरूरत है आत्मविसर्जन की
राजकिशोर
भारतीय जनता पार्टी अब उस बिन्दु पर आ गई है जहां उसे अपने को परिभाषित करना ही होगा। पार्टी की सारी समस्याएँ उसकी अस्पष्ट दिशा और नीति की वजह से हैं। अगर कोई यह समझता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक के हस्तक्षेप से भाजपा की समस्याएं सुलझ गई हैं, तो यह उसका भ्रम है। हुआ यह है कि अंदरूनी लड़ाई सिर्फ भीतर चली गई है। विचारधारा के स्तर पर कुछ भी सुलझा नहीं है। इसलिए भाजपा आगे भी बहुत दिनों तक ब्रेकहीन कार की तरह भटकती रहे तो हैरानी की कोई बात नहीं होगी।
इसलिए मुझे लगता है कि भाजपा के उद्धार के लिए अरुण शौरी ने जो रास्ता सुझाया है, वही ठीक है। भाजपा को या तो अपने आपको विघटित कर देना चाहिए या बचे रहने की तबीयत है तो अपने आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हवाले कर देना चाहिए। इस बारे में वह जितना पसोपेश दिखाएगी, अपना उतना ही ज्यादा नुकसान करेगी। सच पूछिए तो भाजपा आज जिस संकट की गिरफ्त में है, वह पैदा ही इसलिए हुआ है कि पार्टी ने उन लक्ष्यों को बिलकुल ताक पर रख दिया है जिनके लिए उसका गठन किया गया था। वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपनी विचारधारा बताती है, लेकिन उसके चरित्र में न संस्कृति के दर्शन होते हैं, न राष्ट्रवाद के। अरुण शौरी ठीक कहते हैं, भाजपा की हालत कटी पतंग जैसी हो चुकी है।
भाजपा कांग्रेस या सपा-बसपा की तरह कोई सामान्य पार्टी नहीं है। इसके साथ न तो जन आंदोलन का कोई इतिहास है न यह किसी नेता की महत्वाकांक्षा की उपज है। यह कहना भी सत्य नहीं है कि भाजपा भारत के सवर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करती है। उसके गठन के पीछे एक खास उद्देश्य था। उसका काम यह था कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए राजनीतिक स्तर पर सक्रिय रहे। शुरू में उसने अपना यह कर्तव्य मोटे तौर पर निभाया भी। इससे उसका जनाधार बना। पर धीरे-धीरे लोभ डसने लगा। राजनीतिक सफलता राजनीतिक लक्ष्यों पर हावी हो गई। इसी प्रक्रिया में पार्टी बरबाद होती गई। अब वह ‘xÉ खुदा ही मिला न विसाले ºÉxɨɒ की हालत में है। रोगी की समझ में नहीं आ रहा है कि वह कुछ दिन अस्पताल में भर्ती हो कर अपना इलाज कराए या बदपरहेजी करते हुए अपनी सेहत और खराब कर ले। दूसरी ओर झुकाव अधिक प्रबल जान पड़ता है।
कहना न होगा कि भाजपा के पतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कम जिम्मेदार नहीं है। संघ ने जब तय किया कि उसे राजनीति में भी घुसना है, तो उसे सोचना चाहिए था कि वह अपने मानस पुत्र का सार-संभाल कैसे करेगी। बगैर देखभाल के लड़के अकसर आवारा हो जाते हैं। भाजपा में जब आवारगी के लक्षण दिखाई देने लगे, तभी संघ को सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए थे। ऐसा लगता है कि संघ को भाजपा की जितनी चिंता करनी चाहिए थी, उसने नहीं की। इससे हालत धीरे-धीरे बिगड़ती गई। इतने बिगाड़ के बाद जो भी हस्तक्षेप होगा, वह कारगर होगा या नहीं, इसमें शक है।
उदाहरण के लिए दो मुद्दे लिए जा सकते हैं - गोवध और अंग्रेजी। साठ के दशक में भाजपा का पूर्वावतार जनसंघ हमेशा गोवध पर पाबंदी लगाने के पक्ष में रहता था। इसके लिए उसने आंदोलन भी किया। लेकिन अब उसे गोवध रोकने को सार्वजनिक मुद्दा बनाने से शरम आती है। गोविंदाचार्य का यह सवाल अनुत्तरित है कि भाजपा के शासन में गोमांस के निर्यात में वृद्धि क्यों हुई। चरित्रगत दृढ़ता की मांग यह थी कि भाजपा के नेता साफ-साफ कहते कि गोवध और गोमांस भोजन के बारे में हमारी राय बदल चुकी है। पर वे ऐसा कह नहीं सकते। दरअसल, उनकी राय बदली नहीं है। पर सत्ता की मजबूरियों के कारण उन्होंने इसकी परवाह करना छोड़ दिया था कि गायों का क्या होता है। कायदे से भाजपा के नेतृत्व की संवेदना का विकास होना चाहिए था और उन्हें गाय के साथ-साथ सभी जीव-जंतुओं के जीवित रहने के अधिकार का कायल हो जाना चाहिए था। भाजपा के गोमांस की बिक्री में वृद्धि के लिए नहीं, बल्कि शाकाहार आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए जाना जाना चाहिए था। मेरा अनुमान है, संघ के लोग शाकाहारी ही होंगे।
जहां तक अंग्रेजी विरोध का प्रश्न है, भाजपा ने इसे छोड़ कर अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारी है। एक जमाने में जनसंघ का मतलब था, ‘ʽþxnùÒ, हिन्दू, ʽþxnÖùºiÉÉxÉ’* आज भाजपा का कोई भी नेता हिन्दी का नाम तक नहीं लेता। उसके तथाकथित नायक अपनी किताबें अंग्रेजी में लिखते हैं। भाजपा ने हिन्दी का साथ इसलिए छोड़ा क्योंकि उसे हिन्दी प्रदेश के बाहर अपने पांव फैलाने थे। हिन्दी प्रदेश के बाहर फैलने की तमन्ना में कुछ भी गलत नहीं था, पर भाजपा को वहां अपने विचारों के साथ जाना चाहिए था -- अपने विचारों को छोड़ कर नहीं। वह दक्षिण भारत में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाने का उद्यम करती, तो उसे वोट पाने में समय लगता, पर लोग पार्टी को उसके वैचारिक आग्रहों के लिए जानते। फिलहाल तो उसे अवसरवाद के लिए जाना जाता है, जिसने केंद्र में सत्ता पाने के लिए कश्मीर, समान सिविल कानून आदि पर अपने मूल विश्वासों के साथ भी समझौता कर लिया। स्पष्ट है कि भाजपा जनादेश का तो क्या सम्मान करेगी, वह संघादेश को भी भूल-बिसरा चुकी है।
बहुत-से विचारक भाजपा को यह सलाह देते रहे हैं कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नकेल से अपने को छुड़ा ले और अपने द्वारा चुने हुए स्वतंत्र रास्ते पर चले। यही एक तरीका है जिससे देश की नंबर दो (श्लेष के लिए क्षमा करें) पार्टी सेकुलर बन सकती है। मेरी समझ में नहीं आता कि भाजपा के पुनर्निर्माण में सिर्फ एक ही अपेक्षा क्यों। सेकुलर होना तो एक न्यूनतम बात है। पर असली मामला चरित्र का है। चरित्ररहित हो जाने के बाद क्या तो सेकुलर और क्या तो नॉन-सेकुलर। वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुक्त हो कर दिखाना भाजपा के लिए असंभव है। उसका सारा मजमा तो इसीलिए जुटा है कि वह सेकुलर नहीं है। सेकुलर होने का फैसला करनेवाली भाजपा में कितने नेता, कितने कार्यकर्ता रह जाएंगे? जब भैंस ही पानी में डूब जाएगी, तब उसकी दुम बचा कर क्या होगा?
यथार्थ और आदर्श, दोनों की मांग यह है कि भाजपा जैसी तंगदिल, तंगदिमाग पार्टियों का अस्तित्व होना ही नहीं चाहिए। इसलिए भाजपा को जो सर्वोत्तम सलाह दी जा सकती है, वह यह है कि वह अपने को सुपुर्दे-खाक कर दे। अगर उसमें यह हिम्मत नहीं है, तो उसके लिए दूसरा सर्वोत्तम विकल्प यह है कि वह अपने जन्मदाताओं की इच्छाओं का ध्यान करे और उनके अनुसार चलने की कोशिश करे। लेकिन क्या यह कोशिश सफल होगी? सफल इसलिए नहीं होगी कि संघ के जो आदर्श हैं, उनके आधार पर कोई जनतांत्रिक दल चलाना संभव नहीं है। 000
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