प्रतिबंधवादी सोचते हैं कि किसी अवांछनीय संगठन को प्रतिबंधित कर देने से उस संगठन का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और उसके सदस्य दूसरे कामों में लग जाएंगे। अब तक का अनुभव बताता है कि दुनिया भर में कहीं भी ऐसा नहीं हुआ है। कम्युनिस्ट पार्टियां एक समय में प्राय: सभी देशों में प्रबंधित रहीं। ब्रिटिश जमाने में भारत में भी कुछ समय तक उन पर प्रतिबंध लगा रहा। लेकिन इससे कम्युनिस्ट पार्टियों के विकास में कोई बड़ी बाधा नहीं आई। बल्कि प्रतिबंध की अवधि में वे तेजी से बढ़ीं। स्वंत्रतता प्राप्ति के बाद महात्मा गांधी की हत्या हुई, तब भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध कई वर्षों तक चला। लेकिन इससे संघ की गतिविधियां बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुईं। आज भी अनेक नक्सलवादी समूह प्रतिबंधित हैं, पर उनके सदस्य पूरी आजादी से अपना राजनीतिक काम कर रहे हैं।
किताबों पर, फिल्मों पर और नाटकों पर प्रतिबंध लगाने का तो कुछ नतीजा सामने आता है। जब वे सुलभ नहीं रह जाते, तो उन तक कम लोगों की ही पहुंच बन पाती है। इसलिए अगर उनमें कुछ खतरनाक तत्व हैं, तो उनका प्रसार नहीं हो पाता। लेकिन हकीकत में यह भी एक खामखयाली भर है। असल में होता यह है कि अगर प्रतिबंधित किताबें या फिल्में या नाटक जनता के लिए प्रासंगिक हैं या उनकी किसी महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करती हैं, तो उनका प्रसार रुकता नहीं है, बल्कि और बढ़ जाता है। डी.एच. लारेंस का प्रसिद्ध उपन्यास 'लेडी चैटर्ली'ज लवर' यूरोप और अमेरिका में लगभग पचास साल तक प्रतिबंधित रहा, लेकिन इससे उसकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। वह छिप-छिपा कर छापी जाती रही और हाथ बदल-बदल कर पढ़ी जाती रही। हां, उसे पढ़ने की आर्थिक लागत जरूर बढ़ गई। आज वह सर्वत्र सुलभ है, पर आम पाठक उसे छूते तक नहीं।
यही नियम संगठनों पर लागू होता है। संगठन व्यक्तियों से बनते हैं और व्यक्ति अपने विचारों से संचालित होते हैं। इस तरह, जब आप किसी संगठन को प्रतिबंधित करते हैं, तो वास्तव में उन व्यक्तियों की संगठित कार्यशीलता को प्रतिबंधित करते हैं। यह एक असंभव कामना है। प्रतिबंधित हो जाने के बाद कोई संगठन खुले रूप से काम नहीं कर पाएगा। पर गोपनीय रूप से काम करने से उसे कौन रोक सकता है? सच पूछिए तो अवांछनीय या अवांछित किस्म के सभी संगठन पहले से ही गोपनीय रूप से काम कर रहे होते हैं। भले ही उनके सम्मेलन वगैरह सार्वजनिक रूप से होते हों जिनमें कोई भी जा सकता है या जो जनसंचार माध्यमों के लिए खुले होते हैं, पर इन संगठनों के वास्तविक फैसले सार्वजनिक रूप से नहीं लिए जाते। आप क्या सोचते हैं, बजरंग दल या उसकी तरह की विचारधारा वाले अन्य संगठनों या गुटों ने सार्वजनिक सभा या बैठक कर यह प्रस्ताव पास किया होगा कि चूंकि ईसाई मिशनरियां धर्म परिवर्तन की मुहिम में लगी हुई हैं, इसलिए उन पर हमला बोल देना चाहिए? क्या भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद ने अपने किसी सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास किया था कि बाबरी मस्जिद की टूटी-फूटी इमारत को ढाह कर उस जमीन पर राम मंदिर बनाया जाना चाहिए? ऐसा कहीं नहीं होता। सभी संगठन कागज पर अच्छा और कानून-सम्मत ही दिखने की कोशिश करते हैं, पर असल बात यह होती है कि व्यवहार में वे कैसे हैं। उदाहरण के लिए, लालकृष्ण आडवाणी ने ईसाइयों पर हो रहे आक्रमणों का विरोध किया और धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस की मांग की। लेकिन अगर वे ईसाइयों पर हिंसा के सचमुच विरोधी थे या हैं, तो उनके एक इशारे पर वह सब रुक सकता था जो कंधमाल तथा अन्य स्थानों पर हुआ।
मुद्दा यह नहीं है कि कौन-सा संगठन अच्छा है या बुरा है। या, किसे काम करने देना चाहिए, किसे नहीं। मुद्दा यह है कि वे गतिविधियां कानून द्वारा पहले से ही प्रतिबंधित होती हैं जो उन संगठनों द्वारे संचालित की जाती हैं जिन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाती हैं, तो वे होने क्यों दी जाती हैं? अगर बजरंग दल या विश्व हिन्दू परिषद न होते, तब भी ईसाइयों और चर्चों पर हमला करना कानून की दृष्टि से प्रतिबंधित था और है। यह राज्य और समाज का दायित्व है कि वह किसी भी तरह की हिंसा को रोके। उड़ीसा सरकार वास्तव में चाहती, तो वह कंधमाल में होनेवाली घटनाओं को तत्काल रोक सकती थी। जैसे जिला प्रशासन चाहे तो कोई भी सांप्रदायिक दंगा कुछ घंटों से ज्यादा जारी नहीं रह सकता। इसलिए मांग यह की जानी चाहिए कि राज्य और प्रशासन को कुशल, चुस्त और सक्षम बनाया जाए, ताकि वह कानून द्वारा प्रतिबंधित गतिविधियों को होने न दे, शुरू हो गई हैं तो उनका प्रसार होने से रोके और जिन्होंने भी कानून तोड़ा है या तोड़ने की कोशिश की है, उन्हें उचित सजा दिलाए। बढ़ती हुई अराजकता को इसी तरह रोका जा सकता है। इसके बजाय संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की कामना स्वयं में ही इस अराजकता की एक अभिव्यक्ति है। 000
2 comments:
मत लगा नारे यहाँ पर, धर्म के इमान से,
सो रहे हैं मौलवी भी,मस्जिदों में शान से.
भूल बैठे हैं उन्हीं को, जीते जिनके नाम से,
दूरियां कुछ हो गई हैं, आज उनकी राम से.
अब जो सोते रह गये तो हाथ आयेगा सिफर
खेलते हैं रोज कितने, देश की ही आन से.
-समीर लाल 'समीर'
ठोस तर्कों के साथ एक महत्वपूर्ण लेख।
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