Monday, September 29, 2008

बढ़ते हुए आतंकवाद के संदर्भ में

अब मुस्लिम समाज के कर्तव्य


राजकिशोर

 

जब भी कोई आतंकवादी घटना होती है, टीवी पर, रेडियो पर, अखबारों में कुछ मुस्लिम नाम आना शुरू हो जाते हैं। पहले पत्रकारिता का एक नियम होता था कि दो समुदायों के बीच हिंसा होने से किसी भी समुदाय का नाम नहीं छापा जाता था। इसके पीछे उद्देश्य यह होता था कि सामप्रदायिक हिंसा की आग अन्य क्षेत्रों में फैले। अब भी इस नियम का पालन होता है। कभी-कभी नहीं भी होता। लेकिन जब बम विस्फोट जैसी घटना हो, जिसमें पंद्रह-बीस या इससे ज्यादा लोग मारे जाएं, और कुछ धरपकड़ भी हो, तो आज की सनसनी-प्रिय पत्रकारिता सारी मर्यादाओं को भूल जाती है और घटना के लिए जिम्मेदार संगठनों या व्यक्तियों के सिलसिले में जिनका भी नाम लिया जा सकता है, लेने लगती है। इसका कुछ श्रेय पुलिस विभाग को भी है। ये नाम अदबदा कर मुस्लिम नाम होते हैं और इन नामों को सुनते हुए गैर-मुस्लिम, खासकर हिन्दू चित्त में किस तरह की प्रतिक्रिया होती होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। आतंकवाद के सिलसिले में मुस्लिम नाम लगातार सुनते-सुनते हिन्दू चित्त में मुस्लिम समुदाय के बारे में एक खास तसवीर बनने लगती है या बन चुकी है तो वह गाढ़ी होने लगती है। इसी प्रक्रिया में यह भयानक कहावत पैदा हुई है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं। इस कहावत में यह अंतर्निहित है कि अगर कोई व्यक्ति मुसलमान है, तो उसके आतंकवादी होने की संभावना सिद्धांत रूप से मौजूद है।

     जाहिर है, यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। भारत विभाजन के बाद से ही भारत में रह गए मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता रहा है। लेकिन तब शक का स्तर बहुत साधारण हुआ करता था। आतंकवाद के आविर्भाव के बाद से मामला बहुत गंभीर हो चुका है। यह गंभीरता इसलिए और बढ़ जाती है कि कुछ हिन्दूवादी सांप्रदायिक संगठन आतंकवादी हिंसा का फायदा उठा कर पूरे मुस्लिम समाज को राष्ट्र-विरोधी साबित करने पर तुले हुए हैं। ये संगठन शुरू से ही चाहते रहे हैं कि भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गृह युद्ध हो। विभाजन के समय का वातावरण भी एक तरह से गृह युद्ध ही था। लेकिन उससे हमारे उपमहादेश की सांप्रदायिक समस्या हल नहीं हुई। हल होनी भी नहीं थी, क्योंकि भारत विभाजन का कोई तार्किक आधार नहीं था। वह तत्काल सत्ता पाने के लिए किया गया एक राजनीतिक समझौता था और समझौते का कोई भी पक्ष भारत की सामुदायिक एकता को बनाए रखने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं था।  आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। देश भर में राष्ट्रीयता की ताकत कमजोर होती जा रही है तथा तरह-तरह के अलगाववादी स्वर सुनाई पड़ रहे हैं।

बाबरी मस्जिद की घटना के बाद सांप्रदायिक अलगाव की भावना और मजबूत हुई है तथा देश के शासक वर्ग ने निश्चय किया है कि सामप्रदायिकता पर प्रहार नहीं करना है। इस तरह कांग्रेस भाजपा के बने रहने की और भाजपा कांग्रेस के बने रहने की अनिवार्य शर्त बन चुकी है।  अन्यथा 6 दिसंबर 1992 के बाद हिन्दू संप्रदायवादियों का राष्ट्रीय बहिष्कार होना चाहिए था और बाबरी मस्जिद की घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को जेल में होना चाहिए था। इसके विपरीत हुआ कि उनके नेतृत्व में केंद्र में तथा कई राज्यों में सरकार बनी। आतंकवाद, भारत-अमेरिका परमाणु करार, किसानों की आत्महत्या, मंहगाई, सेज, बेरोजगारी आदि विभिन्न मुद्दे जिस तरह घने होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए उम्मीद बहुत कम है कि केंद्र में सत्तारूढ़ वर्तमान गठबंधन अगले आम चुनाव के बाद सत्ता में वापस सकेगा। असुरक्षा के घने होते हुए  वातावरण का लाभ हिन्दूवादी सांप्रदायिक शक्तियों को मिल सकता है। यह एक बहुत बड़ी विडंबना होगी क्योंकि आतंकवाद की जो खूनी फसल आज लहलहा रही है, उसका बीज वपन बाबरी मस्जिद की घटना से ही हुआ था। 6 दिसंबर 1992 के पहले मुस्लिम आतंकवाद नाम की कोई चीज नहीं थी। पंजाब में आतंकवाद की आग शांत होने लगी थी, हालांकि उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी हिंसा बदस्तूर जारी थी। पर इस हिंसा का कोई अखिल भारतीय स्वरूप नहीं था। यह एक स्थानीय किस्म की हिंसा थी और है।

आज देश जिस आतंकवाद से पीड़ित और चिंतित है, वह स्थानीय नहीं है। बहुत दिनों तक हमें यह समझाया जाता रहा कि यह समस्त हिंसा पड़ोसी देश द्वारा प्रायोजित है। अब भी यह बात कही जाती रहती है। लेकिन इस पर विश्वास करना रोज-ब-रोज कठिन होता जा रहा है। यह सर्वमान्य हो चला है कि यह आतंकवाद मुख्यत: हमारा अपना है, हमारी अपनी मिट्टी से पैदा हुआ है और हमारे अंतर्विरोधों का ही फल है, भले ही इसे पाकिस्तान या दूसरे देशों से आर्थिक, तकनीकी तथा अन्य प्रकार की मदद मिल रही हो। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद भारतीय आतंकवाद की मदद कर रहा है और भारतीय आतंकवाद अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के नेटवर्क का अंग बन गया है। ऐसी स्थिति में अब तक जो गुस्सा पाकिस्तान के प्रति पुंजीभूत होता था, उसका मुंह देश के मुस्लिम समाज की ओर घूम सकता है। सांप्रदायिक ताकतें चाहेंगी कि इसकी परिणति एक बार फिर गृह युद्ध में हो। इस बार अगर वे सफल हो गईं, तो भारत का भविष्य अंधेरे में है।

इस स्थिति में बहुसंख्यक जमात का होने के कारण हिन्दू समाज का दायित्व सबसे ज्यादा है, लेकिन वह चाहे कुछ करे या करे, मुसलमानों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे कुछ जरूरी सावधानियां बरतें। यह खुशी की बात है कि कुछ महीनों से मुसलमानों ने संगठित रूप से आतंकवादी घटनाओं का विरोध करना शुरू कर दिया है। विरोध प्रगट करने के लिए उपवास तक हुआ है। लेकिन अभी भी यह पर्याप्त नहीं है। मुस्लिम समाज को और खुल कर आतंकवाद का विरोध करना चाहिए तथा संभव हो तो अपने बीच मौजूद उपद्रवकारी तत्वों की पहचान कर उन्हें कानून के हवाले करना चाहिए। यह मांग बनाए रखनी चाहिए कि सरकार सभी प्रकार के आतंकवाद के साथ एक जैसा सलूक करे और इंडियन मुजाहिदीन तथा बजरंग दल के बीच फर्क करे। लेकिन भारत सरकार का इतिहास हम सभी जानते हैं। सांप्रदायिक विवादों में वह कभी भी स्पष्ट और दृढ़ रुख नहीं अपनाती। सांप्रदायिक अपराधों में लिप्त लोगों को पकड़ा जाता है उन्हें सजा दी जाती है।  इस रुख के कारण हो सकता है जल्द ही मुसलमानों के लिए जीवन-मरण के सवाल खड़े हो जाएं। इसलिए मुसलमानों को अपनी पहल पर सिर्फ प्रतीकात्मक स्तर पर नहीं, बल्कि पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ ऐसे सभी काम करने होंगे जिससे यह जन मत में यह बिलकुल साफ हो सके कि  भारत के मुसलमानों का एक प्रतिशत हिस्सा भी आतंकवाद के साथ नहीं है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि मुसलमानों के साथ इतना भेदभाव और अन्याय किया गया है और किया जा रहा है कि उनके बीच से आतंकवादी प्रवृत्तियों के उभरने पर हैरत नहीं होनी चाहिए। यह बहुत ही खतरनाक और आत्मघाती तर्क है इस तर्क में यह मान लिया गया है कि अन्याय का प्रतिकार हिंसात्मक तरीकों के बगैर हो ही नहीं सकता। इस तरह का तर्क अल्पसंख्यकों के लिए तो जानलेवा भी बन सकता है। बात अच्छी लगे या बुरी, हमें यह मान कर चलना चाहिए कि किसी भी देश में अल्पसंख्यक समुदाय तभी तक सुरक्षित रहते हैं जब तक समाज में आम सद्भाव रहता है। यह सद्भाव खत्म हो जाने के बाद कोई भी सेना, पुलिस या आत्मरक्षा संगठन अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकते। इसलिए उचित है कि इस सद्भाव को बिगड़ने ही दिया जाए। या, यों कहिए कि जो सांप्रदायिक संगठन इस सद्भाव को बिगाड़ने पर आमादा हैं, उन्हें सफल होने दिया जाए।

अभी भी भारत की जनता सभी मुसलमानों को सांप्रदायिक या आतंकवादी या आतंकवादी हिंसा में सहयोग करने वाली नहीं मानती। यह बहुत बड़ी गनीमत है। इसे बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि मुसलमान भी आतंकवादी घटनाओं का पुरजोर विरोध करें। बाबरी मस्जिद ढाहे जाने के बाद मुस्लिम बुद्धिजीवियों में कुछ सचेतनता आई थी और मुस्लिम समाज में मंथन और पुनर्विचार की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। मुंबई में होनेवाले सांप्रदायिक हमलों के बाद सम्मेलन, सेमिनार आदि का सिलसिला काफी बढ़ गया था। लेकिन जैसे ही वातावरण थोड़ा सामान्य हुआ, मुस्लिम समाज का यह क्रीमी लेयर शांत और निष्क्रिय हो कर बैठ गया। यह बहुत ही दुख की बात है।  दुर्भाग्य से आज उससे भी ज्यादा भयानक वातावरण बन रहा है। इस वातावरण में मुस्लिम समाज को और ज्यादा सचेतन तथा संगठित होना पड़ेगा। यह बहुत ही दुखद सवाल  है कि हर बार मुसलमानों को ही देशभक्त होने का प्रमाण क्यों देना पड़ता है। लेकिन प्रत्येक आतंकवादी हिंसा के बाद जब टीवी चैनलों पर मस्लिम नामों की झड़ी लग जाती है, तब सोचिए कि टीवी देख-सुन रहे गैर-मुसलमानों के मन में किस तरह के सिद्धांत बन रहे होंगे। हिन्दू घरों, दफ्तरों और आम वातावरण में इस समय मुसलमानों के बारे में क्या सोच चल रहा है, इसका पूरा उद्घाटन भारत के मौजूदा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के माहौल में विस्फोटक साबित हो सकता है। इसे तुरंत रोकने की जरूरत है, अन्यथा हम बहुत बड़ी बरबादी के रास्ते पर होंगे। हमें सोचना होगा कि धर्मनिरपेक्ष लोग और संगठन तथा मुस्लिम समुदाय क्या-क्या करें कि  देश का बच्चा-बच्चा यह जानने और सोचने को बाध्य हो कि आतंकवादी हिंसा के पीछे सिर्फ मुट्ठी भर मुसलमान हैं और शेष मुसलमान केवल उनका साथ नहीं दे रहे हैं, बल्कि उनके खिलाफ हैं। हिन्दू भी कम कट्टरपंथी नहीं हैं। लेकिन मुस्लिम समाज का कट्टरपंथ एक खास तरह के सांप्रदायिक विचार को ईंधन दे रहा है, इसलिए उसकी रोकथाम करना और मुस्लिम समाज में आधुनिक विचार को प्रोत्साहन देना सबसे ज्यादा अल्पसंख्यकों के ही हित में है। हो सकता है, इससे बहुसंख्यक समाज के संप्रदायीकरण को रोकने में मदद भी मिले।

इसके लिए यह भी जरूरी होगा कि देश भर में विभिन्न स्तरों पर ऐसे संयुक्त संगठन बनें जिनमें सभी समुदायों के प्रतिनिधि शामिल हों। जब भी आतंकवादी हिंसा की कोई घटना हो, इन संगठनों के प्रतिनिधियों को सामने आना चाहिए तथा केवल आतंकवाद की निंदा करनी चाहिए, बल्कि आतंकवादी हिंसा से प्रभावित परिवारों के लिए जो भी संभव है, वह करना चाहिए। मुस्लिम संगठनों को तो अपरिहार्य रूप से ऐसा करना चाहिए। अल्पसंख्यक होने के नाते यह उनका विशेष ऐसिहासिक दायित्व है कि वे बहुसंख्यक वर्ग के शुभचिंतक नजर आएं, जैसे यह बहुसंख्यक वर्ग के सदस्यों का कर्तव्य है कि वे जान पर खेल कर भी अल्पसंख्यक वर्ग के सदस्यों की रक्षा करें। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्र सिर्फ संविधान, कानून, मानवाधिकार आयोग आदि नहीं होता, यह प्रेम, सद्भाव, कर्तव्य और आत्मोत्सर्ग भी होता है। सभी को राष्ट्र से मांगने का अधिकार है, लेकिन यह भी सभी का दायित्व है कि राष्ट्र को देने में कृपणता दिखाई जाए।

 


 

2 comments:

अनुराग अन्वेषी said...

जिन संगठनों ने मिलकर यह तर्क गढ़ा है कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुसलिम जरूर होता है, दरअसल ऐसे संगठनों को यह पता ही नहीं कि आतंकवादियों का आतंक के अलावा कोई धर्म नहीं होता। यानी आतंकवादी न तो हिंदू होते हैं और न ही मुसलमान। और ऐसा बेहूदा तर्क गढ़ने वाले इस देश के नाम पर कलंक तो हैं ही लोगों के लिए आतंक से कम नहीं। वाकई यह लेख भी काबिलेगौर है। बढ़िया लगा यह नजरिया भी।

युग-विमर्श said...

आपके विचार स्वस्थ और रचनात्मक हैं. मीडिया मुसलमानों द्बारा आतंक-विरोधी लेखों, भाषणों, संगोष्ठियों, प्रस्तावों आदि का कोई कवरेज नहीं देती.आप मीडिया से जुड़े हैं, इसलिए इस स्थिति पर भी विचार कर सकते हैं. कहते हैं कि पहले साबित कर दो कि वह कुत्ता है और फिर गोली मार दो. मुसलमानों के साथ कहीं ऐसा ही तो नहीं किया जा रहा है ?