Sunday, April 27, 2008

पंचायत से संसद


ग्राम माता से भारत माता तक
राजकिशोर


किरन बेदी अच्छा बोलती हैं, यह मैंने सुना था, देखा नहीं था। ज्यादा लोगों का यह मानना है कि उनके साथ अन्याय हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा का शिकार हो गईं। लेकिन सच यह भी है कि महत्वाकांक्षा उन्हीं में पनपती है जो जीवन को किसी बड़े संकल्प का पर्याय मानते हैं और सिर्फ पद, पैसा और सफलता से संतुष्ट नहीं होते। सरकारी नौकरशाही में ऐसे लोगों की कदर कहां। सरकार गधे की चाल से चलती है और व्यवस्था को बदलने की बेचैनी से अभिप्रेरित ऐसे लोग हमेशा घोड़े पर सवार होते हैं। दुख की बात यह है कि वास्तविक जीवन में घोड़ा भले ही गधे को पछाड़ देता हो, सरकारी तंत्र में अकसर गधे ज्यादा बलवान साबित होते हैं। वे अपने बीच किसी घोड़े को देख कर डर जाते हैं और उसे लंगड़ा करने के लिए षड्यंत्र पर षड्यंत्र करते रहते हैं। कौन नहीं जानता कि वे अकसर सफल भी हो जाते हैं और घोड़े को अस्तबल में भेज दिया जाता है।

महिला पंचों और सरपंचों के एक सम्मेलन में किरन बेदी को बोलते हुए सुना और मैं तुरंत उन पर लट्टू हो गया। मैं ही नहीं, वहां उपस्थित सभी स्त्री-पुरुष लट्टू हो गए। उस सत्र में किरन बेदी को समापन भाषण देना था। लेकिन उन्होंने कोई औपचारिक भाषण बिलकुल नहीं दिया। शायद वे समझ गईं कि गांवों से आई हुई इन लोगों को शहरी भाषण पिलाना मूर्खता है। इसके बजाय उन्होंने पंचों-सरपंचों से संवाद करना शुरू कर दिया। उस सम्मेलन में उपस्थित अधिकांश स्त्रियां मां थीं, लेकिन शायद पहली बार उन्होंने इतनी संजीदगी से मां होने का मतलब सुना होगा।

किरन बेदी ने कहा कि मां होना काफी नहीं हैं, मां बनो। अपने बेटे-बेटियों को खूब पढ़ाओ-लिखाओ। तभी वे आगे बढ़ेंगे और एक दिन तुम्हारी तरह पंच-सरपंच बनेंगे। इसके बाद किरन बेदी ने मां के अर्थ का विस्तार करना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि तुम्हें सिर्फ अपने बच्चों की मां नहीं बनना है, पूरे गांव की मां बनना है। मां जन्म देती है, इसलिए बच्चे के प्रति उसकी ममता सबसे ज्यादा होती है। इसलिए जब वह सरपंच बनती है, तो उससे उम्मीद की जाती है कि उसमें पूरे गांव के प्रति वही ममता होगी जो अपने बच्चों के प्रति है। अर्थात वह ग्राम माता बन जाएगी। पुरुष जब ग्राम पिता बनता है, तो वह सेवा करने के बदले अपना रुतबा बढ़ाने में लग जाता है। वह जैसे अपने बच्चों पर हुक्म चलाता है, उसी तरह गांववालों पर हुक्म चलाने की कोशिश करता है। इसलिए पिता से उतनी अपेक्षा नहीं की जा सकती जितनी माता से।

किरन बेदी की बातें और आह्वान सुन कर स्त्रियां भी जोश में आ गई थीं और बीच-बीच में अपने संकल्पों की घोषणा भी करती जाती थीं। मैं आनंद से चमत्कृत तब हो गया जब किरन बेदी ने कहा कि आप लोगों को सिर्फ ग्राम माता बन कर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि भारत माता बन कर दिखाना चाहिए। उनकी यह बात सोलहों आना जायज है। पंचायती राज के समर्थक गांव के बारे में ज्यादा सोचते हैं, देश के बारे में कम सोचते हैं। उनका कहना होता है कि गांव समृद्ध होंगे, तभी देश समृद्ध होगा। इस तरह पंचायतवाद ग्रामवाद में बदल जाता है। निर्वाचित पंच-सरपंच भी ऐसा ही सोचते हैं। उनकी दृष्टि अपने गांव से आगे नहीं जाती। वे इस सिक्के का यह दूसरा पहलू भूल जाते हैं कि जब तक राष्ट्रीय स्तर पर उचित नीतियां नहीं बनेंगी, ठीक से कामकाज नहीं होगा, तब तक गांवों की हालत में कोई बड़ा सुधार नहीं हो सकता।

उदाहरण के लिए, पिछले कई वर्षों से कई राज्यों में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हर गांव में निर्वाचित ग्राम पंचायत है, लेकिन कोई भी पंचायत इस शोकपूर्ण घटना को रोक नहीं पाती। यह असमर्थता इसलिए है कि राष्ट्रीय अर्थनीति पर गांवों का कोई प्रभाव नहीं है। हमारे पास ग्राम माताएं हैं, भारतं माताए नहीं हैं। इसका उलटा भी सही है। भारतीय स्तर पर योजना बनानेवाले और देश की हुकूमत चलानेवाले भारी संख्या में मौजूद हैं, पर वे गांवों की वास्तविक स्थितियों और जरूरतों से अनजान हैं। इस तरह, गांव और देश के बीच जो पुल बनने चाहिए, वे अभी महज हमारे स्वप्नों में हैं। ये पुल कब बनेंगे?

जाहिर है, ये पुल ऊपर से तो नहीं बन सकते। राष्ट्रीय सरकार ज्यादा से ज्यादा यह सोच सकती है कि गांववालों के लिए साल भर में कम से कम सौ दिनों के लिए रोजगार सुनिश्तित कर दो और अपे इस लघु सोच पर अभिमान कर सकती है। किसी गांवाले से पूछ कर देखिए। क्या वह कभी स्वीकार कर सकता है कि गांव में सिर्फ सौ दिनों की रोजगार गारंटी की जरूरत है -- इसी से ही गांव की दरिद्रता खत्म हो जाएगी ? तिनकों से चिड़ियों के घोसले बनाए जा सकते हैं, आदमियों के घर नहीं बनाए जा सकते। यह तो तभी हो सकता है जब ग्राम माताएं भारत माता बन कर दिखाएं। गांवों के पुरुष राष्ट्रीय नीतियों पर गंभीरता से विचार करें और उनमें बदलाव लाने की मांग करें।
गांव, शहर और देश के बीच एक जीवंत कड़ी है, इसे महसूस किए बिना संपूर्ण भारतीय नहीं बना जा सकता। जो सिर्फ अपनी और अपने गांव या शहर की सोचता है, वह अपूर्ण भारतीय है। जब उसे संपूर्ण भारतीय होने का चस्का लगेगा, तो वह खुशी (या, गम) से पागल हो जाएगा। जरूरत तो हमें विश्व मानवों की भी है, लेकिन जब तक राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार नहीं होता, विश्व मानव बनने की इच्छा हास्यास्पद परिणाम भी ला सकती हैं। भारत के महानगरों में ऐसे तथाकथित विश्व मानव बहुत दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें अपने देश की स्थितियां विचलित नहीं करतीं। फिर भी चूंकि समय भूमंडलीकरण का है, इसलिए विश्व स्तर पर होनेवाली चहल-पहल से हम आंख मूंद नहीं सकते। आज भारत की स्थिति ऐसी है कि वह विश्व नीतियों को प्रभावित नहीं कर सकता। पर वह इतना कमजोर भी नहीं है कि अपने को इन नीतियों के हानिकर प्रभावों से बचा नहीं सके। इसलिए पंचायतवाद को भारतवाद और अंततः विश्ववाद से जोड़ने की जरूरत है। तभी वह वर्तमान संस्कृति का एक हिस्सा बन कर रह जाने के बजाय एक नई और बेहतर संस्कृति का वाहक बन सकता है।

2 comments:

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया

दिनेशराय द्विवेदी said...

दुनियाँ एक ऐसे वैश्वीकरण के दौर में है जिस का आधार समाज न हो कर केवल बाजार का वैश्वीकरण करना है। इसे सामाजिक बनाने के लिए तो काम करना होगा। ग्राम स्तर से विश्वस्तर तक।