Wednesday, April 30, 2008

स्त्री-पुरुष समानता और उससे आगे

समानता के कुछ उदाहरण जो तुरंत संभव हैं
राजकिशोर

'एक अनुभव बांटना चाहती हूं। तीन वर्ष पहले मसूरी में पूरे देश की महिला अधिकारियों का एक सेमिनार हुआ। कांस्टेबल से ले कर डीजी रैंक तक की महिलाएं उसमें मौजूद थीं। अपने प्रदेश की ओर से मुझे भी जाने का मौका मिला। उत्तरांचल की डीजी श्रीमती कंचन चौधरी भट्टाचार्य ने वह सेमिनार आयोजित किया था। तीन दिन तक विभिन्न स्थानीय मुद्दों पर चर्चा चलती रही। जब सभी प्रदेशों की अधिकारियों से समस्याएं पूछी गईं, तो सभी ने सबसे पहले जो समस्या बताई, वह काबिले-गौर है। (उनका कहना था कि) आज भी थानों में महिलाओं के लिए अलग से टॉयलेट्स की व्यवस्था नहीं है, जो मूलभूत आवश्यकता है। यदि लगातार घंटों काम करना हो, तो सभी को बहुत समस्या होती है। अधिकारी स्तर पर सुविधाएं हैं, लेकिन निचले स्तर पर सुविधाओं का अभाव है। इसलिए भी महिलाओं का कार्य प्रभावित होता है।'

यह भोपाल की पुलिस अधीक्षक पल्लवी त्रिवेदी हैं। उन्होंने 'चोखेर बाली' नामक सामूहिक ब्लॉग में, जिसकी समन्वयक सुजाता नाम की एक तेजस्वी महिला हैं, अपना यह अनुभव लिखा है। इस पोस्ट में जिस सेमिनार की चर्चा की गई है, वह तीन वर्ष पहले हुआ था। आज क्या हालत है? कृपया अपने सबसे नजदीक के थाने में जा कर स्थिति का जायजा लीजिए और हमें ताजातरीन स्थिति बताइए। मेरा अनुमान है कि आपमें से आधे से ज्यादा को भरपूर निराशा होगी

समानता ! आह, मानवता की देवी, तुम्हारी कृपा इस अभागे देश पर कब होगी? ईसा मसीह, जिन्होंने यह संदेश दिया कि हम सभी एक ही पिता की संतानें हैं और किसी को भी दूसरों से ज्यादा लेने का अधिकार नहीं है, बहुत बाद में आए। सामाजिक और राजनीतिक बराबरी का पैगाम देनेवाले हजरत मुहम्मद और भी बाद में आए। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बराबरी की बात करनेवाले महात्मा गांधी ने अपना ज्यादातर काम पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में ही किया था। उनके साथ काम किए हुए लोग अभी भी मौजूद हैं। लेकिन समानता की देवी, तू तो औपनिषदिक युग से ही हमारे साथ है। फिर हम इतने विषमताग्रस्त समाज क्यों हैं? उस सुदूर युग के ऋषियों ने ही सबसे पहले पहचाना था कि शरीर तो माया है, असली चीज आत्मा है और आत्माएं सब बराबर हैं। ब्राह्मण के शरीर में जो आत्मा रहती है, वही आत्मा चांडाल के शरीर में भी निवास करती हैं। फिर हम भारतीय पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कैसे भूल गए कि समानता जीवन और व्यवस्था का सबसे बड़ा मूल्य है, जिसके बिना स्वतंत्रता पर भी ग्रहण लग सकता है। समानता की देवी, तू कब हमारी आत्माओं में समाएगी और उन्हें परिशुद्ध करेगी?

धर्म ने हजारों साल तक जो काम किया, उसका एक बड़ा उत्तराधिकार लोकतंत्र ने संभाला है। लोकतंत्र का बुनियादी मूल्य है, समानता। इसे सिर्फ 'एक व्यक्ति एक वोट' के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक समाजवादी व्यवस्था भी है। यों कि समाज के जितने भी संसाधन हैं, वे समाज के सभी सदस्यों के लिए हैं और सामाजिक सहमति से ही उनका उपयोग किया जा सकता है। शायद संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में पहली बार यह अंकित किया गया था कि सभी मनुष्य बराबर पैदा होते हैं और सबको सुखी जीवन जीने का अधिकार है। यह सही है कि पैसा ही सुखमय जीवन का एकमात्र आधार नहीं है, लेकिन पैसे की गैरबराबरी समाज और राजनीति में इतनी विकृतियां पैदा करती है कि कोई भी आदमी सुखी जीवन बिता ही नहीं सकता। यह अकारण नहीं है कि अमेरिकी समाज में अवसाद का समाधान करनेवाली दवाएं सबसे ज्यादा बिकती हैं और हथियारों की सबसे ज्यादा बिक्री यही देश करता है। ऐसे समाज में सुख की खोज असाधारण रास्तों से ही की जा सकती है।

भारत ने 1947 में जिस नई राज्य व्यवस्था का गठन किया, उसका सैद्धांतिक आधार भी समानता ही थी। संविधान निर्माताओं ने संविधान की उद्देशिका में जिन तीन बड़े उद्देश्यों को राष्ट्रीय सक्ष्यों के रूप में निरूपित किया था, उनमें 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय' और 'प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता' का अन्यतम स्थान है। साम्यवादी देशों के संविधानों को छोड़ कर, जिनमें खाने के जितने दांत हैं, उससे अधिक दिखाने के, दुनिया का और कौन-सा संविधान है, जिसमें इतना साफ-साफ कहा गया है कि 'राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।' ऐसे सुंदर संविधान के मौजूद रहते हुए अगर थानों में भी ट्वॉयलेट की असमानता को दूर नहीं किया जा सका, तो यह दावा कैसे किया जा सकता है कि हम एक गैर-वादाखिलाफ समाज में रहते हैं?

ट्वायलेट के नाम पर मुंह बिचकानेवालों से निवेदन है कि यह कोई साधारण मामला नहीं है। यह समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया थे जिन्होंने लोक सभा में ग्रामीण महिलाओं के लिए शौचालय की व्यवस्था न होने का सवाल जोर दे कर उठाया था। यह व्यवस्था न होने के कारण गांव की महिलाएं या तो मुंह अंधेरे या गोधूलि के बाद ही शौच के लिए जा सकती हैं। जो लोग समझते हैं कि यह लोहिया का पगलेटपन था, उन्हें 1962 की अपनी भारत यात्रा पर आधारित वीएस नॉयपाल की चर्चित किताब 'एन एरिया ऑफ डार्कनेस' पढ़नी चाहिए, जिसमें रेल की पटरियों के करीब लोगों के शौच करने पर जुगुप्सामूलक वृत्तांत हैं। जो लोग नियमित रेल यात्रा करते हैं, वे गवाही देंगे कि स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। अफसोस की बात है कि देश की राजधानी दिल्ली में, जहां एक महिला ने पंद्रह वर्ष तक प्रधानमंत्री के रूप में शासन किया, जहां दो-दो महिलाए मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, जिनमें से एक अभी भी मुख्यमंत्री हैं और जहां एक महिला ने हाल ही में राष्ट्रपति पद संभाला है, अभी भी पुरुषों के लिए जितने शोचालय हैं, उसके आधे भी महिलाओं को मयस्सर नहीं हैं। यह एक ऐसी विषमता है, जिसे थोड़े-से खर्च से तुरंत दूर किया जा सकता है और एक बुनियादी हक के मामले में समानता लाई जा सकती है।

यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है, जहां तक हमारी समानतावादी दृष्टि नहीं पहुंच पाती। यह कोई दुनिया बरोब्बर करने का मामला नहीं है, भारत की स्त्री नागरिकों को एक अत्यंत मूलभूत सुविधा प्रदान करने की बात है। जब स्त्रियों को पुरुषों के बराबर ट्वॉयलेट सुविधाएं मिल जाएंगी, तब देश के सभी नागरिकों को न्यूनतम शौचालय सुविधा देने का अवसर आएगा। अभी हालात ये हैं कि ज्यादातर नागरिकों को शौचालय की उचित सुविधा नहीं है, जबकि बड़े फ्लैटों में रहनेवाले पांच-छह व्यक्तियों के लिए दो या तीन ट्वॉयलेट हैं।

अब कुछ आगे की बात करें। मैं कई बार यह मुद्दा उठा चुका हूं कि कोलकाता की ट्रामों में पहला और दूसरा दर्जा क्यों है। कम से कम तीस वर्षों से कोलकाता की ट्राम व्यवस्था राज्य के वामपंथी नेताओं के हाथ में है। पहले राज्य सरकार ने उसका प्रबंधन अपने हाथ में लिया, फिर उसका राजकीयकरण ही कर लिया। एक समानतावादी व्यक्ति जानना चाहेगा कि अगर कोलकाता की ट्रामों से पहला दर्जा खत्म कर दिया जाए, तो राज्य सरकार को कितने पैसे की हानि होगी। अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता सकता है कि कोई ऐसी हानि नहीं होगी कि विश्व बैंक से कर्ज लेना पड़ जाए। वह यह भी कह सकता है कि राज्य सरकार की आय शायद बढ़ जाए, क्योंकि अभी पहले दर्जे में कम भीड़ होती है और दूसरे दर्जे में ज्यादा भीड़ होती है। दोनों दर्जों का किराया एक हो जाए, तो साधारण लोग भी अगले डिब्बे में यात्रा करने लगेंगे, जिससे ट्राम यात्रियों की संख्या बढ़ जाएगी और ट्रामों से होनेवाली कुल आय बढ़ जाएगी। कहते हैं, मार्क्सवाद का नजरिया मूलतः आर्थिक विश्लेषण का होता है, लेकिन कोलकाता के मार्क्सवादियों का ध्यान इस तुच्छ-सी बात पर नहीं जा सका है। इसका कारण क्या हो सकता है? एकमात्र कारण यह प्रतीत होता है कि समानता का मुद्दा उनके नुक्ता-ए-नजर में कहीं है ही नहीं। जब तक दृष्टि नहीं बदलती, तब तक दृश्य कैसे बदल सकता है?

दृष्टि बदले, तो यह भी दिखाई पड़ सकता है कि नाट्यगृहों में तीन-चार दर्जों के टिकट रखने की जरूरत क्या है। वहां ढेर सारे नाटक ऐसे दिखाए जाते हैं जिनकी तह में समानता का मूल्य होता है। ब्रेख्त के नाटक ऐसे ही हैं। कुछ नाटक तो इतने क्रांतिकारी होते हैं कि उनमें पूंजीवाद और सम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की प्रेरणा दी जाती है। लेकिन ये नाटक देखनेवाले भी कई आर्थिक वर्गों में बंटे होते हैं। कुछ पचास रुपयों का टिकट खरीद कर प्रेक्षागृह में प्रवेश करते हैं, तो कुछ सौ या डेढ़ सौ रुपए चुकाते हैं। जो ज्यादा कीमत का टिकट खरीदते हैं, वे अग्रिम पंक्ति में बैठ कर नाटक देखते हैं। जिनका टिकट कम मूल्य का होता है, उन्हें पीछे बैठाया जाता है। नाटक आखिकार साहित्य की ही एक विधा है। साहित्य की दुनिया में यह विषमता लोगों को क्यों नहीं अखरती?

आजकल यह शिकायत आम है कि सिनेमाघरों में दर्शक कम होते जा रहे हैं। खासकर महानगरों में। हाल ही में मैं कोलकाता गया, तो मैंने पाया कि कई अच्छे सिनामाघर बंद हो चुके हैं। दिल्ली में सिनेमाघर बंद तो नहीं हो रहे हैं, पर उनके दर्शक तेजी से घट रहे हैं। इसके कई कारण होंगे, पर यह कारण तो यह है ही कि सिनेमा देखना बहुत मंहगा हो गया है। इसका एक समाधान यह हो सकता है कि सिनेमाघरों को वर्गविहीन कर दिया जाए। इससे टिकटों का औसत मूल्य एक ऐसे स्तर पर आ जाएगा, जिसे चुकाना सभी के लिए शक्य होगा। इसका एक परिणाम यह जरूर होगा कि किसी बड़े स्टोर के मालिक का बेटा जिस सीट पर बैठ कर फिल्म देख रहा हो, उसके ठीक बगल में कोई रिक्शा या ऑटो चालक बैठा हुआ हो। लेकिन यही तो लोकतंत्र है!

लोकतंत्र की इस परिभाषा को अपनाने पर हम यह उम्दा सवाल भी उठा सकेंगे कि रेल में एक ही दर्जा क्यों न हो। एसी डिब्बों के संडासों में ये न्यूनतम सुविधाएं होती हैं -- बिजली का एक ट्यूब, नल से अविरत बह सकनेवाला पानी और बिजली का पंखा। हाथ धोने के लिए तरल साबुन भी। ये वे सुविधाएं हैं जो करोड़ों एपीएल परिवारों को अपने घर में भी उपलब्ध नहीं हैं। विषमता की इतनी भयावह परिस्थितियों में जो लोकतंत्र जारी है, वह कोई अंधा और लंगड़ा-लूला लोकतंत्र ही हो सकता है। पहले कुछ बुनियादी मामलों में समानता का दर्शन लागू हो जाए, तो शिक्षा,े चिकित्सा आदि क्षेत्रों में समानता का प्रश्न उठाया जाए।

6 comments:

अनूप शुक्ल said...

सवाल जायज हैं।

दिनेशराय द्विवेदी said...

राजकिशोर जी। समानता तो तभी संभव है जब उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धता पर्याप्त हो। काम भी पर्याप्त हो। अन्यथा कहीं न कहीं तो किसी न किसी को तरजीह देनी ही होगी। आरक्षण ही होगा। साम्यवाद की स्थापना सभी के लिए आदर्श हो सकता है। लेकिन अभी तो समाजवाद भी दूर की कौड़ी लगता है। साम्यवाद की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

Rachna Singh said...

you are trying to talk of 2 different issues
where man -woman equality is cincerend 90% woman only talk of equality . they talk of equlity and when time comes its their father or brother or husband they want protection from and not from law . most woman are mental slaves because they do everything to give happiness to the "man" . to please "man' they even forget their self respect other wise they would never agree to live with the husband who cheats on them
for many woman "freedom " is just an intellectula turbulence "
as regds equality in society
your views are nothing new every one wants the same thing but there is a question in my mind
why should we give eqaulity to those who dont want to earn it ??
why provide facilities to people who cant pay for it ?? basic amenities is onething but for others one needs to work hard , burn sweat earn money and spend and this is good for man and woman equally

राजकिशोर said...

मैं चाहूंगा कि मित्रगण ही इस सवाल के विभिन्न पहलुओं पर विचार करें।

Anonymous said...

rajkishor ji saval accha uthaya hai. lekin samanta ki baat se bhi alag dekha jai to toilet jaise aadharbhot subhidhao ki bahut kami hai. gaon mai haalat or bhi bure hai. sahar ge gaon mai pahunco to lagta hi kisi doshre desh mai aa pahunce ho.
article achha hai, lekin kis pradhaan mantri ne 25 saal raaj kiya...? mere jaankari mai indra gandhi kareeb 16 saal pradhan mantri rahi, sayad kuch mistake hai. sudhaar karai.
brij

राजकिशोर said...

श्री ब्रज जी की बात सही है। मैंने सुधार कर दस वर्ष कम कर दिए हैं। ब्रज जी को हार्दिक धन्यवाद।