Saturday, March 3, 2012

संसद की प्रासंगिकता


क्या संसद एक समस्या है?
राजकिशोर

सुनने में बात बहुत बुरी लगती है और जो लोग संसदीय लोकतंत्र को मानते हैं, उनके कानों में तो यह बात जहर की तरह लगेगी। लेकिन जो चाहते हैं कि संसद सिर्फ नाम के वास्ते न रहे, बल्कि जन कल्याण की एक संस्था के रूप में काम करे, उन्हें यह कहने में संकोच नहीं हो सकता कि यह संसद एक समस्या है। संसद एक समस्या है, कहना एक बात है और यह कहना बिलकुल दूसरी बात कि यह संसद एक समस्या है। संसद एक समस्या है, यह वे कहेंगे जो संसदीय लोकतंत्र को नहीं मानते। ये फासीवादी हो सकते हैं, डिक्टेटर हो सकते हैं और कम्युनिस्ट भी हो सकते हैं। इन तीनों ही विचारधाराओं को, जिनमें से दो स्पष्ट रूप से जन विरोधी हैं और एक अपनी जनवादिता के कारण इस निष्कर्ष पर पहुँची है, बालिग मताधिकार पर आधारित तथा बहुदलवादी  जनतंत्र नहीं चाहिए, क्योंकि इससे उनके कार्यक्रम को ठेस पहुँचती है। हिटलर, मुसोलिनी, खोमैनी आयतुल्लाह तथा तमाम तरह के तानाशाह संसद से नफरत करते हैं, क्योंकि संसद की स्वतंत्रता और उसके माध्यम से होनेवाला जन प्रतिनिधित्व उनके एकाधिकारवादी शासन की इजाजत नहीं देता। इसी तरह, सोवियत संघ की संसद भी जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करती थी न चीन की संसद ऐसा करती है। सोवियत संघ की संसद में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जाते थे और चीन की संसद में भी ऐसे ही लोग जाते हैं, पर जनता को सिर्फ सरकारी दल के सदस्यों में से ही किसी को चुनने की छूट होती है। इस तरह वह जन प्रतिनिधि खुद नहीं चुनती, बल्कि जन प्रतिनिधि उस पर आरोपित कर दिया जाता है। ऐसी व्यवस्थाओं में संसद निश्चय ही एक समस्या होती है। यों भी कह सकते हैं कि इन व्यवस्थाओं में संसद अपने आपमें समस्या नहीं, बल्कि एक बड़ी समस्या – राजनीतिक व्यवस्था का जन-आधारित न होना – का अंग होती है।
          भारत में भी एक संसद हुआ करती थी, जिसे संसद नहीं, सेंट्रल असेंबली कहते थे। इसका गठन ब्रिटिश सरकार अपना क्रूर शासन चलाने के लिए करती थी। इसी असेंबली में जन विरोधी कानून पास किए जाते थे। शहीदे-आजम भगत सिंह ने इसी सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट किया था – बहरे कानों को सुनाने के लिए कि हिंदुस्तान अब विदेशी गुलामी को सहने के लिए तैयार नहीं है तथा एक स्वाधीन, लोकतांत्रिक और शोषणविहीन समाज चाहता है। भगत सिंह की यह आवाज सिर्फ उनकी आवाज नहीं थी, बल्कि देश भर की आवाज थी। इसीलिए ब्रिटिश शासन को कुछ ही वर्षों के बाद भारत से कूच करना पड़ा और संप्रभु भारत की अपनी संसद अस्तित्व में आई।
          जनता के मन में आजकल यह सवाल उठने लगा है कि हमारी इस संसद की उपयोगिता क्या है, क्या वह संविधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रही है, क्या उसके सदस्य संविधान के लक्ष्यों को पूरा करने में लगे हुए हैं, तो यह स्वाभाविक ही है। इस बात को फिलहाल जाने दिया जाए कि इमरजेंसी के उन्नीस महीनों में हमारी संसद ने एक बंदी संस्था की तरह आचरण किया, क्योंकि उस पर एक खास शासक की एकाधिकारवादी आकांक्षाओं का पहाड़ टूट गिरा था। उन उन्नीस महीनों को छोड़ कर हमारी संसद हमेशा स्वतंत्र और संप्रभु रही है तथा उसके चुनाव भी समय पर और नियमित रूप से होते रहे हैं। चुनावों में जो भी धाँधलियाँ होती रही हों, पैसे का जैसा भी बोलबाला रहा हो, लेकिन एक विशिष्ट और सीमित अर्थ में यह मानने में कठिनाई नहीं है कि संसद की सदस्यता उन्होंने ही हासिल की है जिन्हें चुनाव मैदान में बहुमत हासिल हुआ। बेशक यह बहुमत तकनीकी तौर पर ही बहुमत कहा जा सकता है, क्योंकि 1952 के पहले संसदीय चुनाव से  अभी तक ऐसे सांसदों की संख्या दस प्रतिशत भी नहीं होगी, जिन्हें उनके चुनाव क्षेत्र के कुल मतदाताओं के पचास प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं ने अपना मत दिया हो। फिर भी ब्रिटेन की जिस संसदीय प्रणाली का हमने अंधानुकरण किया है, उसमें मतदाताओं के वास्तविक बहुमत का समर्थन प्राप्त करना जरूरी नहीं है, इतना काफी है कि आपने अपने प्रत्येक प्रतिद्वद्वी से कुछ अधिक वोट प्राप्त किया हो। आपको एक वोट भी ज्यादा मिल गया तो आपको विजेता घोषित कर दिया जाएगा।
          इन सीमाओं के बावजूद हमारी संसद एक जन हितैषी संस्था के रूप में काम कर सकती थी और अब भी कर सकती है। वास्तव में हमारी संसद ने दर्जनों ऐसे कानून बनाए भी हैं जिनसे नागरिकों को शक्ति मिली है, उनका भला हुआ है और अन्याय का विरोध करने की उनकी शक्ति बढ़ी है। लेकिन संसद ने ही भारत सुरक्षा अधिनियम और टाडा जैसे कानून भी बनाए हैं जिनसे नागरिकों की स्वतंत्रता खंडित हुई है। संसद ने एक जमाने में जहाँ जमींदारी खत्म की थी और कोयला खानों तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, वहीं ऐसे कानून भी बनाए हैं जो सरकारी संपत्ति को प्राइवेट हाथों में सौंपने की सुविधा प्रदान करते हैं। इसी संसद ने मंडल आयोग की सिफारिशों को मान्य किया था, तो यही संसद हर साल ऐसे बजट पास करती है जिनसे महँगाई बढ़ती है और जनता की क्रयशक्ति कम होती है। इस संसद ने सूचना का अधिकार कानून पास किया, तो यही संसद लोकपाल विधेयक पास करने से इनकार कर रही है।
          इस तरह, हम यह नहीं कह सकते कि हमारी संसद ने कुछ किया ही नहीं। शिकायत यह है कि उसने बहुत कुछ ऐसा भी किया जो करने योग्य नहीं था। इससे भी बड़ी बात यह है कि उसने वह बहुत कुछ नहीं किया जो उसे, एक लोकतांत्रिक संस्था होने के कारण, करना ही चाहिए था। सरकार संसद के प्रति जिम्मेदार है, लेकिन  संसद किसके प्रति जिम्मेदार है? वह सबसे पहले देश के संविधान के प्रति जिम्मेदार है और देश की जनता के प्रति जिम्मेदार है। जनता को यह अधिकार है कि वह उसका सच्चा प्रतिनिधित्व न करनेवाले सांसदों को दुबारा संसद में न भेजे। जनता अपने इस लोकतांत्रिक अधिकार (और कर्तव्य) का प्रयोग करती भी रही है, पर उसकी समस्या यह रही है कि साँपनाथ के बदले वोट देने के लिए उसे नागनाथ ही मिलते हैं।
          संसद अगर आज सभी सोचने-विचारनेवाले लोगों को समस्या नजर आ रही है, तो इसीलिए कि वह अपना संवैधानिक कर्तव्य पूरा करने में रुचि नहीं ले रही है। संसद में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनके व्यक्तित्व पर तरह-तरह के दाग हैं। भारत की पहली संसद के कितने सदस्यों को जेल जाना पड़ा था? मौजूदा संसद के कितने सदस्य जेल जा चुके हैं? इसका मतलब यह नहीं है कि संसद ही समस्या है। वास्तव में वह संसद एक राष्ट्रीय समस्या है जो एक संसद के रूप में काम करने में विफल और असमर्थ जान पड़ती है। संसद का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन बुरी संसद का विकल्प एक अच्छी संसद है। इसलिए वास्तविक रूप से विचार का विषय यह है कि वर्तमान राजनीतिक प्रणाली और चुनाव पद्धति में ऐसे कौन-से परिवर्तन किए जाएँ जिससे ऐसी संसद बन सके जिसे जनता प्यार करती हो, जिसकी जनता इज्जत करती हो और जिससे जनता यह उम्मीद रखती हो कि वह उसके सुख-दुख की साथी होगी।    
     

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