Friday, February 24, 2012

व्यक्तिगत जिम्मेदारी से कब तक बचेंगे?

राजकिशोर


दिल्ली के रामलीला मैदान में पिछले साल 5 जून को जो पुलिस बर्बरता की गई थी, उस पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर चारों ओर से जो आश्चर्य प्रगट किया जा रहा है, वह स्वाभाविक ही नहीं, उचित भी है। भारत के न्यायिक इतिहास में इस तरह का समन्वयवादी फैसला पहली बार आया है। इस मुकदमे का सबसे अच्छा पहलू यह है कि 5 जून की जिस घटना ने देश की अंतश्चेतना को हिला दिया, उसका संज्ञान सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी ओर से लिया। अन्यथा बड़ी-बड़ी घटनाएँ होती रहती हैं और अदालतें इस इंतजार में चुप रहती हैं कि कोई आए और उनकी शिकायत दायर करे। लेकिन इस मुकदमे के फैसले में अदालत की ओर से जो कुछ कहा गया और जो आदेश पारित किए गए, उनसे लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय खुद ही उलझनों का शिकार हो गया और उसने फैसला सुनाते समय एक बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की। रामलीला मैदान की वह घटना, जिसमें आधी रात को दिल्ली पुलिस के बंदे सोए हुए लोगों पर किसी विदेशी सेना की तरह टूट पड़े, कोई ऐसी घटना नहीं थी, जिसके साथ न्याय करने में बीच का कोई रास्ता उपलब्ध हो।
ऐसा भी नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के दोनों माननीय न्यायाधीशों को, जिन्होंने इस मामले पर विचार किया है, इस बात का एहसास न रहा हो। उन्होंने जिन कठोर शब्दों में उस रात दिल्ली पुलिस द्वारा किए गए लाठी प्रहार की निंदा की है, उसमें दुविधा की हलकी-सी रंगत भी नहीं है। अदालत ने साफ-साफ कहा है कि यह पुलिस का अत्याचार था और लोकतंत्र पर हमला था। यह लगभग उसी प्रकार की प्रतिक्रिया है जैसी जलियावाला बाग की घटना पर किसी सभ्य दिमाग की हो सकती थी। फर्क सिर्फ इतना है कि जलियावाला बाग में जुल्म कर रही पुलिस के हाथ में बंदूकें थीं और रामलीला मैदान को बाबा रामदेव के काला धन विरोधी अभियान के समर्थकों से खाली कराने गई पुलिस के पास लाठियाँ। लेकिन इरादे और तौर-तरीकों में कोई फर्क नहीं था।
विचित्र ही है कि माननीय न्यायाधीशों को इस आकस्मिक तथा तात्कालिक उत्तेजना से शून्य इस अश्लील हमले के पीछे कोई दुर्भावना नजर नहीं आई। बाबा रामदेव और उनके द्वारा आह्वानित सामूहिक धरने में शामिल हजारों लोगों से केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और दिल्ली पुलिस में किसी की व्यक्तिगत अदावत या नापसंदगी क्या हो सकती है! अगर न्यायालय का इरादा इस तरफ इशारा करना है, तो यह सच हो सकता है। लेकिन यह तो कोई भी देख सकता है कि सरकार का एकमात्र लक्ष्य काले धन के विरुद्ध बाबा रामदेव के अभियान को चोट पहुँचाना था और इसमें वह एक तरह से सफल भी हुई। यह व्यक्तिगत दुर्भावना से अधिक गहरी चीज है, क्योंकि यह राजनीतिक दुर्भावना है - नागरिकों की न्यायसंगत माँगों के प्रति सरकार की घोर असहिष्णुता और देश को एक अधिनायकवादी मिजाज से चलाने की जिद का एक घातक नमूना है। माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणियों में इस आशय के अनेक शब्द खोजे जा सकते हैं। इसलिए हम यह बहाना नहीं कर सकते कि उन्हें घटना की गंभीरता का एहसास नहीं था। लेकिन उन्होंने इलाज की जो परची लिखी है, वह वास्तव में इस बीमारी की रोकथाम कर सकती है, इसमें शक करनेवालों की संख्या अनंत होने को बाध्य है।
सर्वाधिक विचारणीय बात हरजाने की वह रकम है जो सरकार को देनी है। इतनी संपन्न सरकार के लिए पाँच-सात लाख रुपए का हरजाना मजाक से ज्यादा कुछ नहीं है। वह हँसते हुए यह रकम दे देगी। सवाल यह है, यह पैसा किसकी जेब से जाएगा? क्या यह लोकतंत्र की विडंबना नहीं है कि जनता के वोट से पाई हुई ताकत का इस्तेमाल कर सरकार नागरिकों की एक संविधान-सम्मत, बल्कि संविधान के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लक्ष्य से जुटी, सभा पर हमला करवाती है और फिर उसी जनता द्वारा दिए गए टैक्स के पैसे से उस हमले के शिकार लोगों को राहत बाँट देती है? असल में, नुकसान किसका हुआ? जुर्माने का भार किस पर पड़ा? ऐसे सभी मामलों में होना यह चाहिए कि जिनके गलत फैसले से इस तरह का लोमहर्षक कांड हुआ, उन्हें व्यक्तिगत रूप से दंडित किया जाए। वर्तमान मामले में हरजाने की रकम उनसे वसूल की जानी चाहिए, जो इस हमले के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसा नियमित रूप से होने से ही सरकार चलानेवाले लोग सँभल कर काम करना सीखेंगे और गलत फैसले लेने से बचने की कोशिश करेंगे। काश, टूजी घोटाले की तरह इस घोटाले के लिए भी किसी की जिम्मेदारी तय की गई होती और ए. राजा की तरह कोई बी. राजा भी पकड़ कर तिहाड़ जेल में डाल दिया जाता। लोकतंत्र पर हमला सौ-पचास अरब रुपयों की धोखाधड़ी से ज्यादा गंभीर घटना है।
सरकारी कामकाज में व्यक्तिगत जिम्मेदारी के सिद्धांत को ज्यादा करके इसलिए लागू नहीं किया जाता कि भूल किसी से भी हो सकती है। यदि भूल हो जाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को स्वीकार न किया जाए, तो कोई भी सरकारी अधिकारी कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय करते हुए घबराएगा। व्यक्तिगत जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के लिए वह कोशिश करेगा कि उसे कोई निर्णय लेना ही न पड़े। नतीजा यह होगा कि सरकार ठप पड़ जाएगी। चूँकि सरकार को निर्णय तो लेने ही पड़ते हैं, इसीलिए यह नीति निर्धारित की गई है कि गलती हो जाने पर वह किसी एक व्यक्ति की गलती नहीं मानी जाएगी न ही इसके लिए किसी एक व्यक्ति को दंडित किया जाएगा। लेकिन अनेक निर्णय भूल से ज्यादा होते हैं। उनके पीछे स्वार्थ या दुर्भावना होती है। ऐसे मामले हमेशा अलग से पहचाने जा सकते हैं। किसी भी सोच-विचारवाले आदमी की मान्यता यही होगी कि 5 जून का हमला किसी की भूल नहीं थी – यह एक उद्धत और अहंकारी फैसला था। ऐसे फैसलों के लिए व्यक्तिगत दंड की नीति बनाना जरूरी है।
न्यायालय ने उन पुलिसवालों की शिनाख्त करने और उन पर मुकदमा चलाने का हुक्म दिया है जो उस बर्बर कांड के लिए जिम्मेदार हैं। क्या यह आसान होगा? क्या इस फैसले पर वास्तव में अमल हो सकेगा? क्या इन पुलिसवालों ने अपनी खुद की पहल पर ऐसा किया होगा? क्या खुद की पहल पर वे ऐसा कर सकते थे? ये जायज सवाल अपनी जगह पर हैं। फिर भी चूँकि हमें सर्वोच्च न्यायालय की बुद्धिमत्ता पर विश्वास बनाए रखना है, इसलिए हम यही कहेंगे कि उसके आदेश पर अगर दोषी पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई होती है, तो यह भी मामूली उपलब्धि नहीं होगी। इसके बाद सरकार के सभी अधीनस्थ कर्मचारी कोई भी गलत काम करने से यह सोच कर हिचकेंगे कि उन्हें आदेश देनेवाले तो दंडित होने से बच जाएँगे, पर उन्हें व्यक्तिगत तौर पर दोषी तथा सजा का पात्र करार दिया जाएगा। 000

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