Wednesday, April 30, 2008

स्त्री-पुरुष समानता और उससे आगे

समानता के कुछ उदाहरण जो तुरंत संभव हैं
राजकिशोर

'एक अनुभव बांटना चाहती हूं। तीन वर्ष पहले मसूरी में पूरे देश की महिला अधिकारियों का एक सेमिनार हुआ। कांस्टेबल से ले कर डीजी रैंक तक की महिलाएं उसमें मौजूद थीं। अपने प्रदेश की ओर से मुझे भी जाने का मौका मिला। उत्तरांचल की डीजी श्रीमती कंचन चौधरी भट्टाचार्य ने वह सेमिनार आयोजित किया था। तीन दिन तक विभिन्न स्थानीय मुद्दों पर चर्चा चलती रही। जब सभी प्रदेशों की अधिकारियों से समस्याएं पूछी गईं, तो सभी ने सबसे पहले जो समस्या बताई, वह काबिले-गौर है। (उनका कहना था कि) आज भी थानों में महिलाओं के लिए अलग से टॉयलेट्स की व्यवस्था नहीं है, जो मूलभूत आवश्यकता है। यदि लगातार घंटों काम करना हो, तो सभी को बहुत समस्या होती है। अधिकारी स्तर पर सुविधाएं हैं, लेकिन निचले स्तर पर सुविधाओं का अभाव है। इसलिए भी महिलाओं का कार्य प्रभावित होता है।'

यह भोपाल की पुलिस अधीक्षक पल्लवी त्रिवेदी हैं। उन्होंने 'चोखेर बाली' नामक सामूहिक ब्लॉग में, जिसकी समन्वयक सुजाता नाम की एक तेजस्वी महिला हैं, अपना यह अनुभव लिखा है। इस पोस्ट में जिस सेमिनार की चर्चा की गई है, वह तीन वर्ष पहले हुआ था। आज क्या हालत है? कृपया अपने सबसे नजदीक के थाने में जा कर स्थिति का जायजा लीजिए और हमें ताजातरीन स्थिति बताइए। मेरा अनुमान है कि आपमें से आधे से ज्यादा को भरपूर निराशा होगी

समानता ! आह, मानवता की देवी, तुम्हारी कृपा इस अभागे देश पर कब होगी? ईसा मसीह, जिन्होंने यह संदेश दिया कि हम सभी एक ही पिता की संतानें हैं और किसी को भी दूसरों से ज्यादा लेने का अधिकार नहीं है, बहुत बाद में आए। सामाजिक और राजनीतिक बराबरी का पैगाम देनेवाले हजरत मुहम्मद और भी बाद में आए। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बराबरी की बात करनेवाले महात्मा गांधी ने अपना ज्यादातर काम पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में ही किया था। उनके साथ काम किए हुए लोग अभी भी मौजूद हैं। लेकिन समानता की देवी, तू तो औपनिषदिक युग से ही हमारे साथ है। फिर हम इतने विषमताग्रस्त समाज क्यों हैं? उस सुदूर युग के ऋषियों ने ही सबसे पहले पहचाना था कि शरीर तो माया है, असली चीज आत्मा है और आत्माएं सब बराबर हैं। ब्राह्मण के शरीर में जो आत्मा रहती है, वही आत्मा चांडाल के शरीर में भी निवास करती हैं। फिर हम भारतीय पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कैसे भूल गए कि समानता जीवन और व्यवस्था का सबसे बड़ा मूल्य है, जिसके बिना स्वतंत्रता पर भी ग्रहण लग सकता है। समानता की देवी, तू कब हमारी आत्माओं में समाएगी और उन्हें परिशुद्ध करेगी?

धर्म ने हजारों साल तक जो काम किया, उसका एक बड़ा उत्तराधिकार लोकतंत्र ने संभाला है। लोकतंत्र का बुनियादी मूल्य है, समानता। इसे सिर्फ 'एक व्यक्ति एक वोट' के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक समाजवादी व्यवस्था भी है। यों कि समाज के जितने भी संसाधन हैं, वे समाज के सभी सदस्यों के लिए हैं और सामाजिक सहमति से ही उनका उपयोग किया जा सकता है। शायद संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में पहली बार यह अंकित किया गया था कि सभी मनुष्य बराबर पैदा होते हैं और सबको सुखी जीवन जीने का अधिकार है। यह सही है कि पैसा ही सुखमय जीवन का एकमात्र आधार नहीं है, लेकिन पैसे की गैरबराबरी समाज और राजनीति में इतनी विकृतियां पैदा करती है कि कोई भी आदमी सुखी जीवन बिता ही नहीं सकता। यह अकारण नहीं है कि अमेरिकी समाज में अवसाद का समाधान करनेवाली दवाएं सबसे ज्यादा बिकती हैं और हथियारों की सबसे ज्यादा बिक्री यही देश करता है। ऐसे समाज में सुख की खोज असाधारण रास्तों से ही की जा सकती है।

भारत ने 1947 में जिस नई राज्य व्यवस्था का गठन किया, उसका सैद्धांतिक आधार भी समानता ही थी। संविधान निर्माताओं ने संविधान की उद्देशिका में जिन तीन बड़े उद्देश्यों को राष्ट्रीय सक्ष्यों के रूप में निरूपित किया था, उनमें 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय' और 'प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता' का अन्यतम स्थान है। साम्यवादी देशों के संविधानों को छोड़ कर, जिनमें खाने के जितने दांत हैं, उससे अधिक दिखाने के, दुनिया का और कौन-सा संविधान है, जिसमें इतना साफ-साफ कहा गया है कि 'राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों के बीच, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।' ऐसे सुंदर संविधान के मौजूद रहते हुए अगर थानों में भी ट्वॉयलेट की असमानता को दूर नहीं किया जा सका, तो यह दावा कैसे किया जा सकता है कि हम एक गैर-वादाखिलाफ समाज में रहते हैं?

ट्वायलेट के नाम पर मुंह बिचकानेवालों से निवेदन है कि यह कोई साधारण मामला नहीं है। यह समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया थे जिन्होंने लोक सभा में ग्रामीण महिलाओं के लिए शौचालय की व्यवस्था न होने का सवाल जोर दे कर उठाया था। यह व्यवस्था न होने के कारण गांव की महिलाएं या तो मुंह अंधेरे या गोधूलि के बाद ही शौच के लिए जा सकती हैं। जो लोग समझते हैं कि यह लोहिया का पगलेटपन था, उन्हें 1962 की अपनी भारत यात्रा पर आधारित वीएस नॉयपाल की चर्चित किताब 'एन एरिया ऑफ डार्कनेस' पढ़नी चाहिए, जिसमें रेल की पटरियों के करीब लोगों के शौच करने पर जुगुप्सामूलक वृत्तांत हैं। जो लोग नियमित रेल यात्रा करते हैं, वे गवाही देंगे कि स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। अफसोस की बात है कि देश की राजधानी दिल्ली में, जहां एक महिला ने पंद्रह वर्ष तक प्रधानमंत्री के रूप में शासन किया, जहां दो-दो महिलाए मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, जिनमें से एक अभी भी मुख्यमंत्री हैं और जहां एक महिला ने हाल ही में राष्ट्रपति पद संभाला है, अभी भी पुरुषों के लिए जितने शोचालय हैं, उसके आधे भी महिलाओं को मयस्सर नहीं हैं। यह एक ऐसी विषमता है, जिसे थोड़े-से खर्च से तुरंत दूर किया जा सकता है और एक बुनियादी हक के मामले में समानता लाई जा सकती है।

यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है, जहां तक हमारी समानतावादी दृष्टि नहीं पहुंच पाती। यह कोई दुनिया बरोब्बर करने का मामला नहीं है, भारत की स्त्री नागरिकों को एक अत्यंत मूलभूत सुविधा प्रदान करने की बात है। जब स्त्रियों को पुरुषों के बराबर ट्वॉयलेट सुविधाएं मिल जाएंगी, तब देश के सभी नागरिकों को न्यूनतम शौचालय सुविधा देने का अवसर आएगा। अभी हालात ये हैं कि ज्यादातर नागरिकों को शौचालय की उचित सुविधा नहीं है, जबकि बड़े फ्लैटों में रहनेवाले पांच-छह व्यक्तियों के लिए दो या तीन ट्वॉयलेट हैं।

अब कुछ आगे की बात करें। मैं कई बार यह मुद्दा उठा चुका हूं कि कोलकाता की ट्रामों में पहला और दूसरा दर्जा क्यों है। कम से कम तीस वर्षों से कोलकाता की ट्राम व्यवस्था राज्य के वामपंथी नेताओं के हाथ में है। पहले राज्य सरकार ने उसका प्रबंधन अपने हाथ में लिया, फिर उसका राजकीयकरण ही कर लिया। एक समानतावादी व्यक्ति जानना चाहेगा कि अगर कोलकाता की ट्रामों से पहला दर्जा खत्म कर दिया जाए, तो राज्य सरकार को कितने पैसे की हानि होगी। अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता सकता है कि कोई ऐसी हानि नहीं होगी कि विश्व बैंक से कर्ज लेना पड़ जाए। वह यह भी कह सकता है कि राज्य सरकार की आय शायद बढ़ जाए, क्योंकि अभी पहले दर्जे में कम भीड़ होती है और दूसरे दर्जे में ज्यादा भीड़ होती है। दोनों दर्जों का किराया एक हो जाए, तो साधारण लोग भी अगले डिब्बे में यात्रा करने लगेंगे, जिससे ट्राम यात्रियों की संख्या बढ़ जाएगी और ट्रामों से होनेवाली कुल आय बढ़ जाएगी। कहते हैं, मार्क्सवाद का नजरिया मूलतः आर्थिक विश्लेषण का होता है, लेकिन कोलकाता के मार्क्सवादियों का ध्यान इस तुच्छ-सी बात पर नहीं जा सका है। इसका कारण क्या हो सकता है? एकमात्र कारण यह प्रतीत होता है कि समानता का मुद्दा उनके नुक्ता-ए-नजर में कहीं है ही नहीं। जब तक दृष्टि नहीं बदलती, तब तक दृश्य कैसे बदल सकता है?

दृष्टि बदले, तो यह भी दिखाई पड़ सकता है कि नाट्यगृहों में तीन-चार दर्जों के टिकट रखने की जरूरत क्या है। वहां ढेर सारे नाटक ऐसे दिखाए जाते हैं जिनकी तह में समानता का मूल्य होता है। ब्रेख्त के नाटक ऐसे ही हैं। कुछ नाटक तो इतने क्रांतिकारी होते हैं कि उनमें पूंजीवाद और सम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की प्रेरणा दी जाती है। लेकिन ये नाटक देखनेवाले भी कई आर्थिक वर्गों में बंटे होते हैं। कुछ पचास रुपयों का टिकट खरीद कर प्रेक्षागृह में प्रवेश करते हैं, तो कुछ सौ या डेढ़ सौ रुपए चुकाते हैं। जो ज्यादा कीमत का टिकट खरीदते हैं, वे अग्रिम पंक्ति में बैठ कर नाटक देखते हैं। जिनका टिकट कम मूल्य का होता है, उन्हें पीछे बैठाया जाता है। नाटक आखिकार साहित्य की ही एक विधा है। साहित्य की दुनिया में यह विषमता लोगों को क्यों नहीं अखरती?

आजकल यह शिकायत आम है कि सिनेमाघरों में दर्शक कम होते जा रहे हैं। खासकर महानगरों में। हाल ही में मैं कोलकाता गया, तो मैंने पाया कि कई अच्छे सिनामाघर बंद हो चुके हैं। दिल्ली में सिनेमाघर बंद तो नहीं हो रहे हैं, पर उनके दर्शक तेजी से घट रहे हैं। इसके कई कारण होंगे, पर यह कारण तो यह है ही कि सिनेमा देखना बहुत मंहगा हो गया है। इसका एक समाधान यह हो सकता है कि सिनेमाघरों को वर्गविहीन कर दिया जाए। इससे टिकटों का औसत मूल्य एक ऐसे स्तर पर आ जाएगा, जिसे चुकाना सभी के लिए शक्य होगा। इसका एक परिणाम यह जरूर होगा कि किसी बड़े स्टोर के मालिक का बेटा जिस सीट पर बैठ कर फिल्म देख रहा हो, उसके ठीक बगल में कोई रिक्शा या ऑटो चालक बैठा हुआ हो। लेकिन यही तो लोकतंत्र है!

लोकतंत्र की इस परिभाषा को अपनाने पर हम यह उम्दा सवाल भी उठा सकेंगे कि रेल में एक ही दर्जा क्यों न हो। एसी डिब्बों के संडासों में ये न्यूनतम सुविधाएं होती हैं -- बिजली का एक ट्यूब, नल से अविरत बह सकनेवाला पानी और बिजली का पंखा। हाथ धोने के लिए तरल साबुन भी। ये वे सुविधाएं हैं जो करोड़ों एपीएल परिवारों को अपने घर में भी उपलब्ध नहीं हैं। विषमता की इतनी भयावह परिस्थितियों में जो लोकतंत्र जारी है, वह कोई अंधा और लंगड़ा-लूला लोकतंत्र ही हो सकता है। पहले कुछ बुनियादी मामलों में समानता का दर्शन लागू हो जाए, तो शिक्षा,े चिकित्सा आदि क्षेत्रों में समानता का प्रश्न उठाया जाए।

Sunday, April 27, 2008

पंचायत से संसद


ग्राम माता से भारत माता तक
राजकिशोर


किरन बेदी अच्छा बोलती हैं, यह मैंने सुना था, देखा नहीं था। ज्यादा लोगों का यह मानना है कि उनके साथ अन्याय हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे अपनी महत्वाकांक्षा का शिकार हो गईं। लेकिन सच यह भी है कि महत्वाकांक्षा उन्हीं में पनपती है जो जीवन को किसी बड़े संकल्प का पर्याय मानते हैं और सिर्फ पद, पैसा और सफलता से संतुष्ट नहीं होते। सरकारी नौकरशाही में ऐसे लोगों की कदर कहां। सरकार गधे की चाल से चलती है और व्यवस्था को बदलने की बेचैनी से अभिप्रेरित ऐसे लोग हमेशा घोड़े पर सवार होते हैं। दुख की बात यह है कि वास्तविक जीवन में घोड़ा भले ही गधे को पछाड़ देता हो, सरकारी तंत्र में अकसर गधे ज्यादा बलवान साबित होते हैं। वे अपने बीच किसी घोड़े को देख कर डर जाते हैं और उसे लंगड़ा करने के लिए षड्यंत्र पर षड्यंत्र करते रहते हैं। कौन नहीं जानता कि वे अकसर सफल भी हो जाते हैं और घोड़े को अस्तबल में भेज दिया जाता है।

महिला पंचों और सरपंचों के एक सम्मेलन में किरन बेदी को बोलते हुए सुना और मैं तुरंत उन पर लट्टू हो गया। मैं ही नहीं, वहां उपस्थित सभी स्त्री-पुरुष लट्टू हो गए। उस सत्र में किरन बेदी को समापन भाषण देना था। लेकिन उन्होंने कोई औपचारिक भाषण बिलकुल नहीं दिया। शायद वे समझ गईं कि गांवों से आई हुई इन लोगों को शहरी भाषण पिलाना मूर्खता है। इसके बजाय उन्होंने पंचों-सरपंचों से संवाद करना शुरू कर दिया। उस सम्मेलन में उपस्थित अधिकांश स्त्रियां मां थीं, लेकिन शायद पहली बार उन्होंने इतनी संजीदगी से मां होने का मतलब सुना होगा।

किरन बेदी ने कहा कि मां होना काफी नहीं हैं, मां बनो। अपने बेटे-बेटियों को खूब पढ़ाओ-लिखाओ। तभी वे आगे बढ़ेंगे और एक दिन तुम्हारी तरह पंच-सरपंच बनेंगे। इसके बाद किरन बेदी ने मां के अर्थ का विस्तार करना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि तुम्हें सिर्फ अपने बच्चों की मां नहीं बनना है, पूरे गांव की मां बनना है। मां जन्म देती है, इसलिए बच्चे के प्रति उसकी ममता सबसे ज्यादा होती है। इसलिए जब वह सरपंच बनती है, तो उससे उम्मीद की जाती है कि उसमें पूरे गांव के प्रति वही ममता होगी जो अपने बच्चों के प्रति है। अर्थात वह ग्राम माता बन जाएगी। पुरुष जब ग्राम पिता बनता है, तो वह सेवा करने के बदले अपना रुतबा बढ़ाने में लग जाता है। वह जैसे अपने बच्चों पर हुक्म चलाता है, उसी तरह गांववालों पर हुक्म चलाने की कोशिश करता है। इसलिए पिता से उतनी अपेक्षा नहीं की जा सकती जितनी माता से।

किरन बेदी की बातें और आह्वान सुन कर स्त्रियां भी जोश में आ गई थीं और बीच-बीच में अपने संकल्पों की घोषणा भी करती जाती थीं। मैं आनंद से चमत्कृत तब हो गया जब किरन बेदी ने कहा कि आप लोगों को सिर्फ ग्राम माता बन कर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, बल्कि भारत माता बन कर दिखाना चाहिए। उनकी यह बात सोलहों आना जायज है। पंचायती राज के समर्थक गांव के बारे में ज्यादा सोचते हैं, देश के बारे में कम सोचते हैं। उनका कहना होता है कि गांव समृद्ध होंगे, तभी देश समृद्ध होगा। इस तरह पंचायतवाद ग्रामवाद में बदल जाता है। निर्वाचित पंच-सरपंच भी ऐसा ही सोचते हैं। उनकी दृष्टि अपने गांव से आगे नहीं जाती। वे इस सिक्के का यह दूसरा पहलू भूल जाते हैं कि जब तक राष्ट्रीय स्तर पर उचित नीतियां नहीं बनेंगी, ठीक से कामकाज नहीं होगा, तब तक गांवों की हालत में कोई बड़ा सुधार नहीं हो सकता।

उदाहरण के लिए, पिछले कई वर्षों से कई राज्यों में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हर गांव में निर्वाचित ग्राम पंचायत है, लेकिन कोई भी पंचायत इस शोकपूर्ण घटना को रोक नहीं पाती। यह असमर्थता इसलिए है कि राष्ट्रीय अर्थनीति पर गांवों का कोई प्रभाव नहीं है। हमारे पास ग्राम माताएं हैं, भारतं माताए नहीं हैं। इसका उलटा भी सही है। भारतीय स्तर पर योजना बनानेवाले और देश की हुकूमत चलानेवाले भारी संख्या में मौजूद हैं, पर वे गांवों की वास्तविक स्थितियों और जरूरतों से अनजान हैं। इस तरह, गांव और देश के बीच जो पुल बनने चाहिए, वे अभी महज हमारे स्वप्नों में हैं। ये पुल कब बनेंगे?

जाहिर है, ये पुल ऊपर से तो नहीं बन सकते। राष्ट्रीय सरकार ज्यादा से ज्यादा यह सोच सकती है कि गांववालों के लिए साल भर में कम से कम सौ दिनों के लिए रोजगार सुनिश्तित कर दो और अपे इस लघु सोच पर अभिमान कर सकती है। किसी गांवाले से पूछ कर देखिए। क्या वह कभी स्वीकार कर सकता है कि गांव में सिर्फ सौ दिनों की रोजगार गारंटी की जरूरत है -- इसी से ही गांव की दरिद्रता खत्म हो जाएगी ? तिनकों से चिड़ियों के घोसले बनाए जा सकते हैं, आदमियों के घर नहीं बनाए जा सकते। यह तो तभी हो सकता है जब ग्राम माताएं भारत माता बन कर दिखाएं। गांवों के पुरुष राष्ट्रीय नीतियों पर गंभीरता से विचार करें और उनमें बदलाव लाने की मांग करें।
गांव, शहर और देश के बीच एक जीवंत कड़ी है, इसे महसूस किए बिना संपूर्ण भारतीय नहीं बना जा सकता। जो सिर्फ अपनी और अपने गांव या शहर की सोचता है, वह अपूर्ण भारतीय है। जब उसे संपूर्ण भारतीय होने का चस्का लगेगा, तो वह खुशी (या, गम) से पागल हो जाएगा। जरूरत तो हमें विश्व मानवों की भी है, लेकिन जब तक राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार नहीं होता, विश्व मानव बनने की इच्छा हास्यास्पद परिणाम भी ला सकती हैं। भारत के महानगरों में ऐसे तथाकथित विश्व मानव बहुत दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें अपने देश की स्थितियां विचलित नहीं करतीं। फिर भी चूंकि समय भूमंडलीकरण का है, इसलिए विश्व स्तर पर होनेवाली चहल-पहल से हम आंख मूंद नहीं सकते। आज भारत की स्थिति ऐसी है कि वह विश्व नीतियों को प्रभावित नहीं कर सकता। पर वह इतना कमजोर भी नहीं है कि अपने को इन नीतियों के हानिकर प्रभावों से बचा नहीं सके। इसलिए पंचायतवाद को भारतवाद और अंततः विश्ववाद से जोड़ने की जरूरत है। तभी वह वर्तमान संस्कृति का एक हिस्सा बन कर रह जाने के बजाय एक नई और बेहतर संस्कृति का वाहक बन सकता है।

Thursday, April 17, 2008

स्त्रियों के नए हेडमास्टर

स्त्रियों को क्या नहीं पहनना चाहिए
राजकिशोर

कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश सीरिएक जोसेफ ने स्त्रियों के आदर्श लिबास पर एक परंपरागत टिप्पणी दे कर अपनी उंगलियां जला ली हैं। अवसर था जुडिशियल इम्पायर नाम की मासिक पत्रिका का लोकार्पण समारोह। इस अवसर पर उच्चतम न्यायालय की एक पत्रिका का भी विमोचन होना था, जिसका संबंध भारतीय विवाह अधिनियम, 1955 से है। बढ़ते हुए अपराधों के कारणों पर विचार करते हुए जज साहब अचानक स्त्रियों की पोशाक की चर्चा करने लगे। उन्होंने कहा कि स्त्रियों के विरुद्ध अपराध इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि वे उत्तेजक कपड़े पहनने लगी हैं। उन्होंने इसका जो उदाहरण दिया, वह कम दिलचस्प नहीं है। जज साहब ने बताया, 'आजकल स्त्रियां मंदिरों और चर्चों में भी ऐसे कपड़े पहन कर आती हैं कि ईश्वर की ओर से हमारा ध्यान उचट जाता है और हम अपने सामने उपस्थित व्यक्ति का ध्यान करने लगते हैं।' आगे उन्होंने फरमाया, स्त्रियां बसों में जिस तरह के उत्तेजक कपड़े पहनती हैं, उससे बसों में यात्रा कर रहे पुरुषों के सामने असमंजस की स्थिति आ जाती है। उन्होंने स्त्रियों को जन हित में शालीन कपड़े पहनने की सलाह दी।

कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश की मानसिकता को हम समझ सकते हैं। वे सीधे-सादे आदमी होंगे और जटिल समस्याओं पर सीधे-सादे ढंग से बोल रहे होंगे। इसके पहले भी अनेक जज तथा समाज सेवी यह विचार प्रगट कर चुके हैं कि उत्तेजक कपड़े पहननेवाली स्त्रियां बलात्कार के लिए आमंत्रण देती हैं। यानी स्त्रियों पर बढ़ते अपराधों के लिए पुरुष नहीं, स्त्रियां खुद जिम्मेदार हैं। बहुत-से लोगों को यह बात सही भी लगती है। लेकिन तनिक-सा विचार करते ही संभ्रम परदा फट जाता है और सत्य सामने आ जाता है। इस सिलसिले में विचारणीय बात यह है कि ज्यादातर बलात्कार किन स्त्रियों के साथ होता है। उन स्त्रियों के साथ नहीं जो उच्च या मध्य वर्ग से आती हैं और ऐसी पोशाक पहनती हैं जो उनके शरीर सौंदर्य को कामुक ढंग से उद्धाटित करने में मदद करती हैं। ये स्त्रियां सामाजिक रूप से पूर्णत: सुरक्षित होती हैं और लोग भले ही पीठ पीछे उनकी रुचियों या इरादों पर टिप्पणी करें, लेकिन उनकी उपस्थिति में अपना मुंह सिला रखते हैं। सचाई यह है कि अकसर बलात्कार का शिकार होती हैं वे औरतें जो दीन-हीन वर्ग से आती हैं। कहते हैं, गरीब की जोरू सबकी भौजाई होती है। इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि गरीब की बेटी पर पड़नेवाली सारी निगाहें लगभग एक जैसी होती हैं। बलात्कारी सौन्दर्य का उपासक नहीं होता। न आकस्मिक उत्तेजना का शिकार। वह एक ऐसा छिपा हुआ भेड़िया है जो सबसे कमजोर शिकार पर वार करता है।

दूसरी बात यह है कि स्त्रियां क्या पहनें और क्या नहीं, इसका फैसला करनेवाला पुरुष कौन होता है? क्या पुरुष स्त्रियों से अनुमति ले कर अपनी पोशाक तय करते हैं? ऐसा लगता है कि पुरुष किसी न किसी रूप में स्त्रियों के जीवन पर नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं। जब वे निजी जीवन में पराजित हो जाते हैं, तो सार्वजनिक मंचों से स्त्रियों पर हमला बोल देते हैं। लेकिन मामला उतना सीधा नहीं है जितना सतही तौर पर दिखाई पड़ता है। अगर हम यह मानते हैं कि स्त्रियों की भड़कीली पोशाक देख कर पुरुषों के मन में कामुकता का संचार होने लगता है, तब तो अमीर लोगों को मंहगी गाड़ियों में चलते देख कर गरीब राहगीरों के मन में ईर्ष्या का ज्वार उठना चाहिए और इन्हें अमीरों पर हमला कर देना चाहिए। इसी तरह, बैंकों में जमा लाखों-करोड़ों रुपयों को भी जन हिंसा का कारण बन जाना चाहिए। या रेल यात्रियों को हवाई अड्डों पर नजर पड़ते ही कुपित हो जाना चाहिए। मिठाई की दुकानों में प्रदर्शित मिठाइयों को देख कर भी हमारे मुंह में पानी आ जाता है, लेकिन हम इन दुकानों से मिठाई उठा कर खाने तो नहीं लगते। कानून कहिए या सभ्यता, कुछ है जो ऐसे सभी मौकों पर हमें रोकता है और हम आत्मनियंत्रण का परिचय देते हैं। फिर स्त्रियों के मामले में ही हम फिसलने का अधिकार क्यों अपने पास रखना चाहते हैं? क्या इसलिए कि स्त्रियां हमारी निगाह में भोग का सामान हैं और उनका भोग करना पुरुष वर्ग का नैसर्गिक अधिकार है? जैसे ही हम स्त्रियों को मनुष्य के रूप में देखना शुरू करेंगे, उनके मानव अधिकारों का सम्मान करना शुरू कर देंगे, जिसमें यह भी शामिल है कि वे क्या पहनें और क्या न पहनें, यह तय करने का अधिकार उन्हें ही है, किसी और को नहीं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक पूंजीवाद के दबाव से, जिसमें विज्ञापन तथा मास मीडिया उद्योग अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए लगातार स्त्री देह का शोषण करता रहता है, हमारे इर्द -गिर्द कामुकता का आक्रामक वातावरण तैयार करने का सुनियोजित अभियान जारी है। यह पश्चिमी सभ्यता का एक ऐसा मधुर आक्रमण है जिसके कड़वे जहर को अब पहचाना जाने लगा है। कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश अगर यह कहते कि कामुकता की यह संस्कृति हमारे जीवन को एकायामी बना रही है और इस विनाशकारी संस्कृति में स्त्रियों को अपनी सही भूमिका पहचाननी चाहिए, तो वे शायद एक भला और जरूरी काम कर रहे होते। लेकिन एक सभ्यतागत समस्या पर विचार करने के स्थान पर उन्होंने अपनी निगाह सिर्फ स्त्रियों की पोशाक पर केंद्रित की, जिससे उन्हें सार्वजनिक आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है। सवाल यह नहीं है कि कोई स्त्री क्या पहनती है, सवाल यह है कि नई संस्कृति में पोशाक से किस तरह का काम लिया जा रहा है, फिल्मों में और टीवी पर दर्शकों को लुभाने के लिए स्त्रियों को किस तरह पेश किया जा रहा है।

जाहिर है, फिल्मों और टीवी की नायिकाओं के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि अभिनय करते समय वे वही पहनती हैं जो वे चाहती हैं। इतनी आजादी उन्हें कहां। वे निर्देशक के हुक्म की गुलाम होती हैं और यह वही तय करता है कि उसकी अभिनेत्रियों को कब और कहां अपने को कितना छिपाना है और कितना दिखाना है। यह सौंदर्य के प्रदर्शन का मामला नहीं है। सौन्दर्य की अनुभूति हमें अनिवार्य रूप से कामुक नहीं बनाती। वह हमारे सौन्दर्य बोध को तृप्त करती है और उसका परिष्कार भी करती है। सिनेमा और टीवी अभिनेत्रियों की इस पेशागत मजबूरी को न समझ कर जब अन्य स्त्रियां उनकी नासमझ नकल करने लगती हैं, तो इससे यही पता चलता है कि व्यावसायिकता का दबाव कितना गंभीर है। पहले गृहस्त्र स्त्री और पतुरिया की पोशाक अलग-अलग होती थी। अब दोनों में भेद मिटता जा रहा है। नहीं, सर, नहीं, हम कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश की बात को दूसरे तरीके से दुहरा नहीं रहे हैं। हम इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि धीरे-धीरे यह तय करना कठिन होता जा रहा है कि कौन-सी रुचि हमारी अपनी है और कौन-सी रुचि हम पर लादी जा रही है। बहरहाल, स्थिति जो भी हो, कानून के द्वारा या फतवे जारी कर हम स्त्रियों के विकल्पों को सीमित नहीं कर सकते। हां, इस विमर्श में स्त्रियों को जरूर आमंत्रित कर सकते हैं कि कहीं वे अनजानत: किसी भयानक सांस्कृतिक षड्यंत्र का शिकार तो नहीं हो रही हैं। (साभार : भास्कर, दिल्ली)

Thursday, April 10, 2008

स्त्री-पुरुष समानता की दिशा में एक कदम

स्विमिंग पूल के किनारे टॉपलेस
राजकिशोर

और मामलों में कोलकाता की चाहे जितनी तारीफ की जाए, वहां की जलवायु के लिए मेरे पास प्रशंसा का कोई शब्द नहीं हैं। यह जलवायु ऐसी है कि आदमी का तेल निकाल लेती है। देह से पसीना बहना लाभदायक है, यह विज्ञान और स्वास्थ्य की किताबों में पढ़ाया जाता है। लाभदायक होगा, लेकिन गरमी के महीनों में सुबह होने के कुछ घंटों बाद ही जब शरीर से पसीने की धार बहने लगे, तो विज्ञान भूल जाता है। चेतना को आक्रांत किए रहता है वह चिपचिपापन जो शरीर के शेष बचे हुए सुखों को संकट में डालने में अद्भुत रूप से कामयाब हो। अगर आप पंखे के नीचे, मेरा मतलब है चलते हुए पंखे के नीचे, बैठे हों, तो गनीमत है। गरमी भले ही लगती रहे, पर पसीना तो सूख ही जाता है।

मैं अपने बचपन के इस पहलू के बारे में लिखना चाहता हूं जब मेरे परिवार में बिजली का पंखा नहीं हुआ करता था। हाथ पंखे से जितना काम चल सकता था, हम लोग काम चलाते थे। उन दिनों कोलकाता में बिजली नहीं जाती थी। बाद में हमने बिजली के पंखे के युग में प्रवेश किया, तो बिजली अकसर जाने लगी। दोनों ही युगों में गरमी और पसीने से निजात पाने के लिए मैं तथा अन्य लड़के और पुरुष कमर से ऊपर के कपड़े खोल देते थे और अर्धनग्न हो जाते थे। इससे गरमी तो क्या खाक कम होती, पसीने की फजीहत से छुट्टी मिल जाती थी। ऐसे मौकों पर घर की स्त्रियों पर बहुत दया आती थी। तापमान जितना भी चढ़ा हुआ हो, मेरी मां, भौजी, बहन, भतीजियां -- सभी को पूरे कपड़े पहने रहना पड़ता था। गरमी और पसीने की तकलीफ से छुटकारा पाने की तुलना में भारतीय संस्कृति के मूल्यों की रक्षा करना ज्यादा जरूरी था। यह एक मौका ऐसा था, जब मुझे स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव का एहसास अनायास ही होता था। भौजी को तो, जब वे घर से बाहर निकलती थीं या मायके से ससुराल आती थीं, तो एक चादर भी ओढ़नी पड़ती थी। खुदा का शुक्र है कि चादर का रिवाज अब खत्म हो चुका है। निश्चय ही, मुसलमान महिलाओं की यातना और ज्यादा थी और है, क्योंकि उनके लिए बुरका अनिवार्य था और है।

ये बाते मुझे यह समाचार पढ़ कर याद आ रही हैं कि डेनमार्क की स्त्रियों ने पिछले हफ्ते स्त्री-पुरुष समानता की दिशा में एक उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। वहां अब स्त्रियों को सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में टॉपलेस हो कर तैरने तथा पूल के इर्द-गिर्द टॉपलेस अवस्था में टहलने की स्वतंत्रता मिल गई है। इस स्वतंत्रता के लिए वहां के टॉपलेस फ्रंट द्वारा लगभग एक साल से अभियान चलाया जा रहा था। फ्रंट के नेतृत्व का कहना था कि जब पुरुष टॉपलेस हो कर सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में तैर सकते हैं, तैरने के पहले उसी अवस्था में पूल के किनारे टहल सकते हैं, तो स्त्रियों के लिए यह पाबंदी क्यों कि उन्हें अपने को ढक कर रखना होगा। स्विमिंग पूल यानी मानव निर्मित तालाब वह जगह है जहां आप प्रकृति के ज्यादा से ज्यादा नजदीक होना चाहते हैं। पुरुष एक हद तक ऐसा कर सकता है, तो स्त्रियां कम से कम उस हद तक ऐसा क्यों नहीं कर सकतीं? एक अलग किस्म के शरीर के साथ पैदा होने की सजा स्त्री को कब तक मिलती रहेगी? यह किसी के बस की बात नहीं है कि वह पुरुष हो कर पैदा हो या स्त्री हो कर। फिर स्त्रियों पर ऐसे प्रतिबंध क्यों लगाए जाएं जो पुरुषों के लिए आवश्यक नहीं माने जाते? कोपनहेगन संस्कृति तथा फुरसत समिति काफी विचार-विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि टॉपलेस फ्रंट की यह मांग सर्वथा जायज है। यह निर्णय सुनने के बाद डेनमार्क की महिलाएं खुशी से नाचने लगीं। अब उन्हें स्विमिंग पूलों के आसपास पुलिस और सुरक्षा कर्मचारियों द्वारा बार-बार यह याद नहीं दिलाया जाएगा कि वे स्त्रियां हैं। डेनमार्क की सोशलिस्ट पीपुल्स पार्टी भी प्रसन्न है, क्योंकि वह इस मांग का समर्थन कर रही थी।

डेनमार्क के इस निर्णय से स्वीडन में टॉपलेस का आंदोलन जोर पकड़ेगा। वहां भी यह अभियान चल रहा है कि सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में स्त्रियों के साथ वैसा ही सलूक किया जाए जैसा पुरुषों के साथ किया जाता है। कई स्विमिंग पूलों के मालिकों ने तो घोषणा कर दी है कि वे अपने यहां स्त्रियों को टॉपलेस होने की सुविधा प्रदान करेंगे। लेकिन कुछ आंदोलनकारी महिलाओं ने टॉपलेस हो कर स्विमिंग पूलों में तैरना शुरू कर दिया, तो सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें वापस बुला लिया। मजे की बात यह है कि यूरोप के बहुत-से हिस्सों में स्त्रियों को टॉपलेस अवस्था में समुद्र में स्नान करने या समुद्र किनारे धूप सेंकने का रिवाज है। वहां कोई इसका बुरा नहीं मानता। अब डेनमार्क में सार्वजनिक स्विमिंग पूलों को इस स्वतंत्रता और समानता के दायरे में ले आया गया है, तो स्वीडन में भी सफलता मिलना निश्चित है। धीरे-धीरे गोरी सभ्यता के दूसरे प्रगतिशील केंद्र भी पुरुष-स्त्री के बीच के भेदभाव को कम करने को कम करेंगे।

इला अरुण का गया हुआ यह फिल्मी गीत आज भी सुनाई दे जाता है -- चोली के पीछे क्या है। डेनमार्क की महिलाओं ने इसका जवाब बता दिया है। वहां के नाारीवादी आंदोलन की नेताओं का कहना है कि इस मांग के माध्यम से हम स्त्री के स्तनों का वियौनीकरण (डी-सेक्सुअलाइजेशन) करना चाहते हैं। सोशलिस्ट पीपुल्स पार्टी के नेता फ्रैंक हेडेगार्ड का कहना है, 'मेरी समझ में नहीं आता कि स्त्रियों के स्तनों के ले कर लोग इतने आक्रामक क्यों हो जाते हैं। यह फैसला इस आइडिया को रोकने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि स्त्रियों की देह केवल यौन वस्तु नहीं है।' एक नारीवादी महिला ने घोषणा की कि यह हम तय करेंगे कि हमारे स्तन कब यौनिकता का वहन करेंगे और कब नहीं। स्वीडन के एक ऐसे ही ग्रुप की प्रवक्ता मारिया हेग का बयान है कि औरतों को सेक्स सिंबल बनाए जाने से हम ऊब चुके हैं -- उन्हें यह इजाजत नहीं है कि उनकी बांहों या पैरों में बाल उगे हुए हों।

निश्चय ही मामला उतना सीधा नहीं है जितना डेनमार्क या स्वीडन की कुछ मुक्त या मुक्तिवादी स्त्रियां समझ रही हैं। इस अर्धनग्नता से इन देशों में कोई बड़ी जटिलता नहीं खड़ी होगी, क्योंकि वहां का समाज सेक्स से जितना अभिभूत है उतना ही मुक्त भी है। यह स्थिति कोई एक दिन, वर्ष, दशक या शताब्दी में नहीं पैदा हुई है। इसके पीछे कई सौ वर्षों का इतिहास है। दूसरे देशों में शरीर के प्रति ऐसी निर्विकारता आने में पता नहीं कितना समय लगेगा। लेकिन एक बात निश्चित है। आधुनिक सभ्यता आदिवासी संस्कृति के एक समृद्ध संस्करण की ओर बढ़ रही है। मेरा अपना अनुमान है कि इसके नतीजे सकारात्मक ही होने चाहिए। इस सिलसिले में गांधी जी की याद आती है। जब उनसे पूछा गया कि चर्चिल आपको अधनंगा फकीर कहते हैं, इस पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है। महात्मा का जवाब था -- 'काश, मैं इससे और ज्यादा नग्न हो सकता।'

Monday, April 7, 2008

करीना कपूर के बहाने

ब्यूटी की ड्यूटी

राजकिशोर

राजेंद्र यादव को स्त्रीत्व और सुंदरता का विशेषज्ञ माना जाता है। मैं यह नहीं कहूंगा कि यह स्त्रीत्व और सुंदरता, दोनों के साथ अन्याय है। बहुत-से लोग ऐसा मानते हैं। मेरा खयाल है, इसके पीछे द्वेष नामक मनोभाव की निर्णायक भूमिका है। इस कोटि का द्वेष एक अन्य महत्वपूर्ण लेखक-विचारक अशोक वाजपेयी के प्रति भी दिखाई पड़ता है। सफलता किसी भी तरह की हो, वह अपने आसपास कुछ जलन जरूर पैदा करती है। लेकिन सिर्फ इसीलिए किसी ऐसे बुद्धिजीवी की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए जो अपने समय के प्रश्नों के साथ निरंतर टकरा रहा हो और हर विषय में अपना एक मत रखता हो। मत की स्वतंत्रता के युग में भारत जैसे कुछ ही देश हैं जहां मत-विभिन्नता इतनी कम है और असहमति जताने वाले समूह भी सिर्फ सहमति बर्दाश्त करते हैं तथा इसी आधार पर दोस्तों-दुश्मनों की सूची बनाते रहते हैं। यही कारण है कि किसी सुस्थापित लेखक के विचारों पर निष्पक्ष बहस नहीं हो पाती। लोग तुरंत दो और दो चार करने लगते हैं कि ऐसा करनेवाला व्यक्ति फेंस के इधर है या उधर। यहां तक कि वे लेखक भी, जिनके विचारों पर विचार होता है।

अब यही देखिए कि मुझे राजेंद्र यादव की 2005 की डायरी के एक पन्ने पर (हंस, अप्रैल 2008) की गई स्थापना का प्रतिवाद करने की जबरदस्त इच्छा हो रही है, लेकिन डर भी लग रहा है कि कहीं इसे यादव-विरोधियों की नियमित कार्रवाइयों में शामिल कर लिया जाए। यह जोखिम उठा कर भी मैं कहना चाहता हूं कि करीना कपूर की सुंदरता या आकर्षकता के निमित्त से उन्होंने सुंदरता का जो विवेचन किया है, वह कायल करनेवाला नहीं है। कहीं से भी। वे कहते हैं, 'जो लड़की आपको सुंदर लगे, उसमें आप पवित्रता, दिव्यता, नम्रता और शालीनता सभी कुछ आरोपित कर लेते हैं। इसलिए जब वह कमर, कूल्हे या नितंब मटका कर नाचती है, या फूहड़ ढंग से शरीर प्रदर्शन करती है, तो मन को धक्का लगता है।'

प्रस्ताव यह है कि हमें धक्का नहीं लगना चाहिए, क्योंकि 'क्या जरूरी है कि जो सुंदर है वह निष्पाप, शाश्वत और पवित्र भी हो? क्यों वहां करुणा, ईमानदारी, हमदर्दी सभी कुछ होंगे? क्या खूबसूरत बिल्ली भी उतनी ही खूंखार नहीं होगी जितनी वह जो वैसी नहीं है?' मुझे लगता है कि खूबसूरत बिल्ली का खयाल 'हंस' संपादक को गलत लाइन पर ले गया। बिल्ली चाहे असुंदर हो या सुंदर, वह रहेगी बिल्ली ही। अगर बिल्लियां आम तौर पर खूंखार होती हैं, तो सभी बिल्लियां ऐसी ही होंगी। मुझे बिल्ली कभी खूंखार जानवर नहीं लगी। रघुवीर सहाय बिल्लियां ही पालते थे। उन्होंने लिख कर बताया है कि बिल्ली उन्हें इसलिए पसंद है क्योंकि वह स्वाभिमानी होती है और पोस नहीं मानती। बिल्ली के इस स्वभाव में रघुवीर जी एक सुंदरता देख रहे थे। यह सुंदरता है या नहीं, इसे थोड़ी देर के लिए परे रख कर हम यह सोच सकते हैं कि आदमी बिल्ली नहीं है। बिल्लियों के इतिहास में औपनिषदिक ऋषि, गौतम बुद्ध, भगवान महावीर ईसा मसीह, कार्ल मार्क्स, महात्मा गांधी आदि नहीं पैदा हुए। इसीलिए वे आज भी बिल्लियां ही हैं, जबकि आदमी नामक प्रजाति में लाखों वर्षों के चिंतन-मनन और प्रयोगशीलता के कारण बड़े परिवर्तन गए हैं। मनुष्य का मूल स्वभाव शायद ज्यादा बदला हो, जैसा कि नृतत्वशास्त्री, जंतुविज्ञानी, मनःशास्त्री आदि बताते रहते हैं, फिर भी इक्कीसवीं सदी के मनुष्य की कोई तुलना पाषाण काल के व्यक्ति से नहीं की जा सकती। संस्कृति ने प्रकृति में भारी पैमाने पर हस्तक्षेप किया है और इसके ठोस नतीजे निकले हैं।

बुद्धिमानों का कहना है कि हर स्त्री सुंदर होती है, कुछ स्त्रियां ज्यादा सुंदर होती हैं, बस। यह एक डिप्लोमेटिक वक्तव्य है, फिर भी इसे मान कर चलने में कोई हर्ज नहीं है। इसमें भी यह निहित है कि जो स्त्रियां ज्यादा सुंदर हैं, उनमें कुछ अतिरिक्त है। यह अतिरिक्तता लगभग उसी कोटि की है जैसी विद्वान, कवि, साधु, समाजसेवी आदि व्यक्तियों में देखी जाती है। विद्वत्ता, कवित्व, साधुत्व आदि अर्जित किए जाते हैं, लेकिन हर व्यक्ति विद्वान या लेखक नहीं हो सकता। सभी व्यक्तियों में सभी तरह के गुण जन्म से ही अंतर्निहित होते हैं, लेकिन कुछ व्यक्तियों में कुछ खास गुण परिस्थिति विशेष के कारण ही फूलते-फलते हैं। कुछ प्रकृति की देन, कुछ समाज का अवदान और कुछ निजी तपस्या -- इन सबके संयोग से कुछ व्यक्ति अतिरिक्त योग्यता या गुण धारी हो जाते हैं। सुंदरता भी ऐसी ही नियामत है। इसमें भी प्रकृति, समाज और निजी उद्यम, सभी का योगदान होता है। बहुत-सी बालिकाएं राजेंद्र यादव की पहली पसंद करीना कपूर से भी ज्यादा नमक लिए हुए पैदा होती हैं, पर उनकी गरीबी, अशिक्षा और उनके साथ होनेवाला सलूक कुछ ही वर्षों में उनका कचूमर निकाल देता है। कुछ सुंदरताएं संपन्न परिवारों में जन्म लेती हैं, पर लालन-पालन की गड़बड़ियों और अपनी लापरवाहियों के कारण वे जल्द ही नयनाभिराम नहीं रह जातींं। इसके विपरीत कम सुंदरता के साथ पैदा होनेवाली अनेक स्त्रियां अपने को नित्य आकर्षक बनाए रखती हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति में भी कुछ अतिरिक्त है, उस पर अकेले उसका अधिकार नहीं है उसमें प्रकृति का और उससे अधिक समाज का अवदान है।

इसीलिए इस अतिरिक्त विशेषता या गुण की कुछ सामाजिक जिम्मेदारी भी होती है। अगर कोई वैज्ञानिक अपने ज्ञान का उपयोग संहारक हथियार बनाने, घातक रसायन तैयार करने आदि में करता है, तो क्या यह ठीक है? अगर कोई कवि अपनी काव्य प्रतिभा का उपयोग सांप्रदायिक या फासीवादी वातावरण बनाने के लिए करता है, तब भी वह सम्माननीय है? इसी तरह कोई सुंदरी अपनी सुंदरता का उपयोग लोगों को ठगने में, उन्हें उल्लू बनाने में करती है, तो क्या यह कहा जाएगा कि इसमें हर्ज क्या है? अगर पुरुषों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसे प्रोफेशन स्वीकार नहीं करेंगे जो अनीति को प्रोत्साहित करते हों, तो स्त्रियों से भी यह अपेक्षा होगी कि वे कमर मटका कर समाज में अपसंस्कृति फैलाएं। जितनी अधिक शक्ति, उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी -- सामाजिकता की मांग यही है। सच तो यह है कि पवित्रता, दिव्यता, ईमानदारी, करुणा, नम्रता, शालीनता आदि गुणों की अपेक्षा सभी से की जाती है, क्योंकि यही विकसित होने के लक्षण हंै और इसी तर्क से यह अपेक्षा उन व्यक्तियों से ज्यादा की जाती है, जिनमें कुछ अतिरिक्त गुण या खूबी है, जैसे ज्ञान और सौंदर्य। किसी सुंदर और शिक्षित महिला को डॉन या ठग साध्वी के रूप में देख कर हमें धक्का क्यों नहीं लगना चाहिए? 000