Saturday, August 16, 2008

संसद में व्याख्यान

अमर्त्य सेन की अप्रासंगिकता

राजकिशोर

पीड़ा का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि वह व्याख्यान का विषय बन कर रह जाए। अगर समवाय विद्वानों का हो, तो इस तथ्य की उपेक्षा भी की जा सकती है, क्योंकि विद्वानों के बारे में माना जाता है कि उनका काम जानना है -- विद्या प्राप्त करना है और समाज में उसे फैलाना है। विद्वान से कार्यकर्ता होने की आशा नहीं की जाती। यह आशा राजनीति करनेवालों से की जाती है। जो राजनीति करते हैं, उनसे विद्वान होने की आशा नहीं की जाती। उनसे जन हित में निर्णय करने और उसे कार्यान्वित करने की आशा की जाती है। यही कारण है कि पहले राजा विद्वानों को मंत्री नियुक्त करता था। मंत्री को सचिव अर्थात सलाहकार कहा जाता था। लोकतंत्र में भी मंत्री होते हैं, पर वे सलाह देने का काम नहीं करते। वे सत्ता तंत्र में हिस्सेदार होते हैं। इसलिए उन्हें स्वयं सलाह की जरूरत पड़ती है। उनके लिए सचिव नियुक्त किए जाते हैं। दुर्भाग्यवश ये सचिव सरकारी नौकर होते हैं और वैसी ही सलाह देते हैं जिसकी अपेक्षा उनसे की जाती है। निर्भयता और सुरक्षा का वातावरण होने से सच बोलने की जरूरत कोई नहीं समझता।

भारत की संसद ने 12 अगस्त को 'सामाजिक न्याय की मांगें' विषय पर पहला हिरेन मुखर्जी व्याख्यान देने के लिए अमर्त्य सेन को आमंत्रित किया, तो इससे बेहतर फैसला नहीं हो सकता था। हिरेन मुखर्जी आजकल के कम्युनिस्टों से बहुत बेहतर नेता थे। अर्मत्य सेन की एक बड़ी चिंता न्याय और उसमें भी सामाजिक न्याय रहा है। लेकिन ऐसा लगता है कि संसद को भी विचार गोष्ठी वाला रोग लग रहा है। व्याख्यान विश्वविद्यालयों, साहित्यिक सम्मेलनों, धार्मिक आयोजनों आदि के लिए माकूल चीज हैं। संसद कोई वादविवाद सभा नहीं है। वहां ईश्वर के अस्तित्व पर चर्चा नहीं होती, क्योंकि ईश्वर का अस्तित्व हो या हो, व्यवस्थाजनित कठिनाइयों के समाधान में कोई मदद नहीं मिलती। यह काम तो राजनीति का ही है। हमारा सौभाग्य है कि अर्मत्य सेन की गति राजनीतिशास्त्र में भी है -- इसलिए कि यह भी नीतिशास्त्र का एक हिस्सा है।

राजाओं के सामने सच बोलने का साहस कम लोग दिखलाते हैं। अमर्त्य सेन की खूबी यह है कि वे केवल सच बोलते हैं, बल्कि ऐसी विनम्रता के साथ बोलते हैं कि कोई आहत हो। अपने इस व्याख्यान में उन्होंने दो मुख्य बातें कहीं। एक यह कि देवियो और सज्जनो, हमारे देश में नीति के स्तर पर न्याय का पालन हो रहा है, पर जनता को न्याय के दर्शन नहीं हो रहे हैं। यानी आपकी नीतियां अच्छी भी हैं, तो वे फेल हैं, क्योंकि उनके परिणाम जनता तक पहुंच नहीं रहे हैं। दूसरी बात यह कि व्यापक कुपोषण, अशिक्षा, दरिद्रता आदि की जिन चुनौतियों के कारण हमारी रातों की नींद हराम हो जानी चाहिए, उनसे हमारी राजनीतिक प्रक्रिया इस कदर अप्रभावित क्यों है। न्याय के नाम पर यह मत्स्य न्याय कब तक चलता रहेगा?

संसद का सेंट्रल हॉल शर्म से दुहरा हो गया होगा। क्षण भर के लिए वहां उपस्थित सभी लोग अपनी-अपनी संवेदनहीनता और व्यवस्था की निर्लज्जता पर स्तब्ध हो गए होंगे। एक अच्छा व्याख्यान कम से कम इतना तो करता ही है। वह हमें नैतिक भले ही बनाए, पर हमारी रगों में नैतिकता की बिजली पल भर के लिए जरूर कौंध जाती है। उसके बाद क्या होता है, यह इस पर निर्भर है कि हम आदमी किस तरह के हैं, आदमी हैं भी या नहीं। अमर्त्य सेन को इतने अच्छे भाषण के लिए खूब-खूब धन्यवाद दिया गया। संसद के संचालक प्रसन्न हुए कि कार्यक्रम सफल रहा। भारत सरकार के प्रतिनिधि कृतज्ञ हुए कि उन्हें सेन के बहुमूल्य विचार सुनने के मिले। लेकिन जहां तक कार्य या कार्यक्रम का सवाल है, एक भी स्वर नहीं फूटा कि सेन महाशय, आपका आभार कि आपने हमें सोते से जगा दिया। अगले एक साल के बाद जब आप भारत आएंगे, तब पाएंगे कि आपका यह व्याख्यान व्यर्थ नहीं गया है। ऐसे ही एक अवसर पर राजा जनक ने बड़े दुख से कहा था कि लिखा विधि वैदेहि विवाहू। वीरविहीन धरा मैं जानी।

राजा जनक की निराशा कुछ ही क्षणों के बाद दूर हो गई थी। भगवान राम ने शिव का शक्तिशाली धनुष तोड़ दिया था। लेकिन देश की उस सबसे ताकतवर सभा में एक ने भी धनुष भंग का संकल्प तक नहीं लिया। हर तरह से प्रासंगिक अमर्त्य सेन तीन घंटे में ही अप्रासंगिक हो गए। अगले दिन सुबह उठने के बाद उन्होंने अपने व्याख्यान की निरर्थकता का अनुभव किया होगा। दिल्ली में कहीं कुछ बदला नहीं था। सब कुछ यथावत चल रहा था। कुछ के लिए देश चमक रहा था और बाकी सबके लिए अंधेरे में मुरझा रहा था।

विचार की यह परिणति आंखों में आंसू भर देनेवाली है। जिस समाज में विचार की हैसियत अंगूठी की तरह हो जाती है, उस समाज में दिमाग लोमड़ी की तरह काम करने लगता है। यह मौका इस परिचित सत्य को एक बार फिर हमारे सामने उद्भासित करता है कि हमारे देश में विचारों की कमी नहीं है। कमी भावना की है। हमारी भावनाएं उधर नहीं जातीं जिधर जाने के लिए हमारे विचार कहते हैं। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि हमारे पास, कम से कम सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्तियों के पास, विचारों के दो सेट हैं। एक सेट सार्वजनिक उपभोग के लिए और दूसरा सेट अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों की पूर्ति के लिए।

जिसे वचन और कर्म की दूरी कहते हैं, वह हमारे स्वभाव का अंग है। इससे बचना असंभव है। यह दूरी सब काल में और सभी देशों में रही है। आदर्श जितना ऊंचा होता है, यह दूरी उतनी बढ़ जाती है। इसे मानव चरित्र की विवशता कहा जाना चाहिए। लेकिन जब यह दूरी जान-बूझ बढ़ाई जाती रहे, समाज के लिए खतरनाक हो उठे और देश के समग्र विकास में बाधा बनने लगे, तो इसे अपराध की श्रेणी में चाहिए। अमर्त्य सेन इसी वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों को संबोधित कर रहे थे।

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