Tuesday, February 12, 2008

तसलीमा क्यों माफी मांगें

माफी तो दासमुंशी को मांगनी चाहिए
राजकिशोर

अगर प्रियरंजन दासमुंशी हिन्दी जानते होते, तो मैं उनकी सेवा में 'सरिता' के सौ-दो सौ अंक भिजवा देता। इस मासिक पत्रिका के हर अंक में दो-चार ऐसे लेख छपते हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद कोई सनातनी हिंदू कह सकता है कि मेरी भावनाओं को गहरी ठेस पहुंची है। लेकिन यह एक रजिस्टर्ड पत्रिका है और कई दशकों से यही काम करती रही है। कभी राम और कृष्ण का उपहास, कभी ऋषियों के चरित्र की चर्चा और कभी देवताओं की लोलुपता के किस्से। 'हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास' तो कई अंकों में धारावाहिक छपा था। 'सरिता' में छपे सभी लेखों को मैं सुरुचिपूर्ण नहीं मानता -- कुछ तो कुरुचिपूर्ण भी होते हैं, इसके बावजूद अगर कोई 'सरिता' पर प्रतिबंध लगाने की मांग करेगा और यह कहेगा कि उसके संपादक को हाथ जोड़ कर हिन्दू समाज से माफी मांगना चाहिए, तो मैं उसका अपनी पूरी ताकत के साथ विरोध करूंगा। मेरी तरह बहुत-से लोगों का मानना है कि ऐसा करके 'सरिता' ने हिन्दू समाज की बहुत बड़ी सेवा की है। उसने लाखों पाठकों की मुंदी हुई आंखों को खोला है और बताया है कि सत्य के साथ सैकड़ों मिथक जाले की तरह चिपके होते हैं और इन जालों को साफ किए बगैर सत्य के निकट नहीं जाया जा सकता। दासमुंशी कहते हैं कि वे साहित्य-प्रेमी हैं। परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि अगर वे हिन्दी जानते होते, तब भी मेरे द्वारा भेजी गई सामग्री नहीं पढ़ते। अगर वे सच्चे पाठक होते, तो अपने पढ़ने के अधिकार की रक्षा करना करना चाहते होते। पाठक के लिए जो महत्व पढ़ने के अधिकार का है, लेखक के लिए लिखने के अधिकार की अहमियत उससे कहीं ज्यादा है।

कोई कह सकता है कि भारत में हिन्दू बहुमत में हैं, इसलिए वे आलोचना-प्रत्यालोचना सह सकते हैं, लेकिन मुसलमान यहां अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनकी भावनाओं का विशेष खयाल रखा जाना चाहिए। यह तर्क कुछ हद तक सही है, लेकिन कुछ ही हद तक। साहित्य में इस तरह के तर्कों का महत्व पाव भर आलू से भी कम है। पहली बात यह है कि खेलन में को काको गुसैयां। साहित्य, विज्ञान, कला आदि ऐसे खेल हैं, जिनमें किसी की दादागीरी नहीं चलती। यहां शाह वह होता है, जिसकी मुट्ठी में सत्य होता है। सत्य की विशेषता ही यही है कि उसे कोई भी पूरी तरह नहीं जान सकता। एक बार महात्मा गांधी ने कहा था कि भगवान उतने हो सकते हैं जितने धरती पर आदमी हैं। हर आदमी भगवान को अपने ढंग से परिभाषित करता है। इसी तरह, साहित्य, कला, विज्ञान आदि में कोई एक सत्य नहीं होता, हजारों सत्य होते हैं। यह तय करना मुश्किल, बल्कि असंभव, है कि किसका सत्य सोना है और किसका सत्य पीतल। इसलिए किसी भी सत्य को यह कह कर दबाया नहीं जा सकता कि उसमें झूठ मिला हुआ है। यहां रामचरितमानस लिखा जा सकता है, तो रावण के गुन गानेवाली कविताएं भी लिखी जा सकती हैं -- बल्कि लिखी भी गई हैं। जिस हिन्दू धर्म पर इतना गर्व किया जाता है, उसकी दर्जनों पहेलियां डॉ. आंबेडकर ने गिनवाई हैं। इस अंतर्विरोध के कारण कोई साहित्य ऊंचा या नीचा नहीं हो जाता। साहित्य और कला की परख उसकी उत्कृष्टता से होगी, नकि इस बात से कि उससे कितनी भावनाएं तृप्त हुईं और कितनी भावनाओं को चोट पहुंची। जिसे अपनी भावनाओं को चोट लगने की बहुत ज्यादा फिक्र है, उसे समाज में नहीं, जंगल में रहना चाहिए। समाज में रहेंगे, तो बहस-मुबाहसा होगा ही। इस संदर्भ में माओं की यह उक्ति हमेशा याद रखनी चाहिए : हजारों फूलों को खिलने दो।

दूसरी बात यह है कि तसलीमा नसरीन स्वयं मुसलमान हैं। बांग्लादेश उनकी जन्मभूमि है। यहीं वे बड़ी हुईं, यहीं शिक्षा पाई और यहीं पढ़ना-लिखना शुरू किया। अगर बांग्लादेश के आडंबरवादियों ने उनके लेखन से कुपित हो कर उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया होता या इस मृत्युदंड की घोषणा के बाद बांग्लादेश की सरकार ने इन सभी असहिष्णु लोगों पर मुकदमा चलाया होता और तसलीमा के मानव अधिकारों की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास किया होता, तो शायद वे अभी अपने मुल्क में ही रह होतीं। दक्षिण एशिया की अधिकांश सरकारें डरपोक हैं। वे खुले तर्क--वितर्क से डरती हैं। इसलिए बांगलादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री ने एक रात चुपके से इस लोकप्रिय लेखिका को अपने खतरनाक देश से निर्वासित कर दिया -- जाओ बिटिया, जहां भी तुम अपने को सुरक्षित समझो, वहां चली जाओ। हम इन चील-गिद्धों से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। यह हश्र होता है एक मुसलमान लेखिका का अपने उस देश में, जहां मुसलमान बहुमत में हैं। बांग्ला भारत में भी बोली जाता है और बांग्लादेश में भी। तसलीमा मूलत: पश्चिम बंगाल के पाठकों के लिए नहीं, अपने वतन के पाठकों के लिए लिखती रही है, लिखती हैं। मुसलमान भारत में भले ही अल्पसंख्य हों, पर बांग्लादेश में वे बहुसंख्यक हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अल्पसंख्यकों का जी दुखी करने के लिए कुछ लिखा होगा। 'सरिता' ने जो काम भारत के हिंदीभाषी हिन्दू समाज के लिए किया है, तसलीमा ने, एक तरह से, वही काम अपने देश के मुसलमान समाज के लिए किया है। उनके इस साहस के लिए सर्वत्र उनकी तारीफ होनी चाहिए। लेकिन भारत के कुछ पिद्दी इस देश को बांग्लादेश जैसा प्रतिबंधक समाज बनाना चाहते हैं। उन्हें अपनी परंपरा का भी ज्ञान नहीं है, तो दूसरी परंपराओं का ज्ञान क्या होगा। कौन-सा देवता है, जिस पर संस्कृत साहित्य में नहीं हंसा गया है। इसी तरह पश्चिमी देशों में ईसा मसीह के अस्तित्व पर ही शक करने और ईसाई धर्म की मान्यताओं की कठोर आलोचना करने की सुदीर्घ परंपरा रही है। इस आत्मनिरीक्षण से इस्लाम भी मुक्त नहीं रहा है। यहां भी सूफी तथा अन्य लोग रहे हैं जिन्होंने इस्लाम के विश्वासों के विपरीत काम किया है और वे जनता के द्वारा पूजे भी गए हैं। मंसूर इसलिए फांसी पर चढ़ गए क्योंकि वे अपने अनहुल हक की घोषणा को वापस लेने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए तसलीमा ने कोई नया और अनोखा काम नहीं किया है। उन्होंने वही किया है जो एक सत्यान्वेषी को करना चाहिए। और, यह कोई नया और अनोखा काम है, तब तो हमें हाथ जोड़ कर उनका अभिनंदन करना चाहिए। दासमुंशी को गर्व है कि उनकी सरकार ने एक समय में सलमान रुश्दी की पुस्तक 'सैटनिक वर्सेज' पर प्रतिबंध लगा दिया था। बुद्धिमान अपनी अच्छाइयों को भी छिपाता है और अज्ञानी अपने कुकर्मों का भी विज्ञापन करता है। जिस लेखक की एक किताब को हमने अपने देश में घुसने तक नहीं दिया -- बावजूद इसके कि उसका जन्म भारत में ही हुआ था और उसे दुनिया भर में भारतवंशी लेखक माना जाता है, उस लेखक को भी इस्लामी खुराफातियों ने मृत्युदंड दे दिया था, लेकिन ब्रिटेन की सरकार ने अपने देश के उस लेखक की सुरक्षा के लिए क्या नहीं किया ! आज भी न सलमान रुश्दी झुके हैं और न ब्रिटेन की लोकतंत्री सरकार झुकी है। तसलीमा का विरोध दो देशों के खुराफाती कर रहे हैं। इनमें भी बांग्लादेश के खुराफातियों की तनिक भी परवाह हमारे सूचना-प्रसारण मंत्री को नहीं है। उनकी चिंता राजनीतिक है और यहीं तक सीमित है कि उनका मुसलमान वोटर उनसे नाराज नहीं हो जाए। सलमान रुश्दी को जो चुनौती मिली थी, वह शुुरू तो हुई थी ईरान से, पर उसका समर्थन कई देशों के धार्मिक खुराफाती कर रहे थे। ब्रिटेन में भी विभिन्न देशों से आए और स्वदेशी मुसलमानों की काफी बड़ी संख्या है। लेकिन अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य की रक्षा करने में वहां की सरकार ने न तो धर्म के आधार पर वोटरों की गिनती की, न यह देखा कि रुश्दी की जान बचाने में कितना खर्च आएगा। हम तो कहेंगे कि मूल मानव स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए अगर फना होना पड़े, तब भी किसी देश को और उसके नागरिकों को तैयार रहना चाहिए। मानव अधिकारों के साथ समझौता करके जीना भी कोई जीना है ! जीवन में कुछ तो ऐसे मूल्य होने चाहिए जिनकी रक्षा करने के लिए जान भी दी जा सकती है। वे मूल्य तभी मूल्यवान हैं। लेकिन प्रियरंजन को इस बात का गुरूर है कि उनकी सरकार ने रुश्दी की एक किताब पर रोक लगा दी थी। क्या उन्हें यह भी याद है कि उनकी सरकारों ने और क्या-क्या किया है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लात मारने का जो काम इमरजेंसी के दौरान थोक भाव से किया गया था, वही काम अब वे फुटकर स्तर पर करना चाहते हैं। लेकिन यह बातें मैं किससे कह रहा हूं? एक ऐसे राजनीतिक व्यक्ति से, जो अपनी पार्टी की मुखिया के सामने वह बोल ही नहीं सकता जो उसके मन में है! जिन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का आनंद अपने पूरे राजनीतिक जीवन में एक बार भी नहीं लिया है, वह इस अधिकार के मर्म को कैसे समझ सकता है ! अगर दासमुंशी में थोड़ी भी समझदारी होती, तो अपने वक्तव्य की इतनी कड़ी आलोचना होते देख वे अभी तक देश की जनता से माफी मांग चुके होते। सच तो यह है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति सूचना और प्रसारण मंत्री बनने के योग्य नहीं है जिसके मन में लेखक या पत्रकार की गर्दन पर पट्टी बांधने की इच्छा बनी रहती हो। मैं तो यहां तक कहूंगा कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में सूचना और प्रसारण मंत्रालय होना ही नहीं चाहिए। किसी आधुनिक समाज में मिनिस्ट्री ऑफ भूत-प्रेत का क्या काम?लेकिन तसलीमा नसरीन न तो धर्मशास्त्र का विवेचन करती हैं और न धर्म-पुरुषों की जीवनी लिखने का काम करती है। यह उनका क्षेत्र नहीं है और उन्हें इसका शौक भी नहीं है। उनका मिशन नारीवादी मिशन है। वे स्त्री को आजाद देखना चाहती हैं। वे पुरुष की तानाशाही को ध्वस्त करना चाहती हैं। इसी क्रम में वे कभी अंधविश्वासों की पोल खोलती हैं, कभी लंपटों के किस्से सुनाती हैं, तो कभी अपनी स्थापनाओं की पुष्टि के लिए इतिहास और मिथकों की दुनिया में सैर करती हैं। अपने पूरे लेखन में और अपनी लंबी आत्मकथा के प्रत्येक खंड में उन्होंने यही किया है। सच तो यह है कि स्त्रियां पुरुषों को चौराहे पर सौ जूतें मारें तब भी पुरुषों का वह पाप नहीं धुल सकता जो कई हजार वर्षों से उन्होंने स्त्रियों के साथ किया है। इसलिए तसलीमा जो कुछ लिखती हैं, उसमें अगर थोड़ी-बहुत तथ्यात्मक चूक हो, तब भी हमें उनसे नाराज नहीं होना चाहिए। तसलीमा का गुस्सा पवित्र गुस्सा है। इस गुस्से की आग में अगर बहुत-से विश्वास और अंधविश्वास स्वाहा हो जाएं, तो इतिहास इस आग का ही साथ देगा -- उस कूड़े का नहीं जिसे जलने से बचाया नहीं जा सका। लेकिन हमारी सरकार क्या कर रही है? वह एक लेखिका को पता नहीं कहां कैद किए हुए है। क्या आज भी मर्दानगी को इसी तरह परिभाषित किया जाएगा? 000

1 comment:

subhash Bhadauria said...

राजकिशोरजी
बहुत ही साफ सुथरी सोच के मालिक आप नज़र आते हैं.आपके प्राया सभी लेखों को पढ़ने के लिए बाध्य हूँ. तस्लीमाजी के चाहने वालों में मेरा 19 साल का बेटा भी है जो गुजरात नेशनल ला युनिवर्सिटी का छात्र है अक्सर होस्टल से घर आने पर पूछता है कि पापा तस्लीमाजी की कोई नयी किताब बताओ वो अंग्रेजी में जानना चाहता है मैने उनका हिन्दी में अध्ययन किया है उनके ही पते दे पाता हूँ.
उसकी इस फ़र्माइश पर मैं गदगद हो जाता हूँ.मेरे बेटे की लॉ की पुस्तकों के साथ तस्लीमाजी के लेखन की पसन्द मैं आशव्सत हूँ वह मनुष्यता के निकट रहेगा.