रूसी क्रांति को क्यों याद करें
राजकिशोर
रूस की साम्यवादी क्रांति मानवता की एक महान विरासत है। इस विरासत की उपेक्षा इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि यह क्रांति टेढ़े-मेढ़े रास्तों से चलती हुई विफल हुई और रूस को पूंजीवादी नीतियों के साथ समझौता करना पड़ा। अगर विफलताएं ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती हैं, तो रूसी क्रांति से भी सीखने के लिए बहुत कुछ होना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि वाश टब से नहाने के पानी के साथ-साथ बच्चे को भी फेंक दिया गया है। यह वास्तव में अपने साथ भी अन्याय है, क्योंकि वर्तमान समस्याओं से निजात पाने के लिए हम इतिहास के जिन प्रयोगों की तरफ आशावादी निगाहों से देख सकते हैं, उनमें रूसी क्रांति का अहम स्थान है।
दुनिया में जब से विषमता का सूत्रपात हुआ, तभी से समानता की भूख मनुष्य के मन में कुलबुलाती रही है। इसकी एक अभिव्यक्ति धर्म के रूप में हुई जो मानता है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतानें हैं और इसलिए हम सभी का दर्जा बराबर है। लेकिन इस शिक्षा का पालन धार्मिक प्रतिष्ठान भी नहीं कर सके जिन पर धर्म का प्रसार करने की जिम्मेदारी रही है। ईश्वर के दरबार में राजा-रंक सभी की हैसियत बराबर होगी, पर धरती पर ईश्वर का राज्य तरह-तरह की विषमताओं से भरपूर है। यहां तक कि विचार करने की आजादी भी, जो मनुष्य को ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है, सभी को नहीं है। जो धार्मिक क्षेत्र स्वयं प्रदूषित रहा है, वह समाज और राजनीति में गैरबराबरी का समर्थन और पोषण क्यों न करता?
इसलिए धर्म के बाहर समानता की खोज अनिवार्य हो उठी। समाजवाद का विचार इसी लंबी खोज का परिपाक है। भारत में समता का विचार आध्यात्मिक स्तर पर ज्यादा फैला। यूरोप ने इसे भौतिक स्तर पर लागू करने के ठोस तरीके खोजे। इसका एक नतीजा लोकतंत्र के रूप में आया, जिसमें, कम से कम सिद्धांत के स्तर पर, हर आदमी की राजनीतिक हैसियत बराबर होती है। लेकिन हम जानते हैं कि ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के आधार पर बने लोकतांत्रिक ढांचे में कितनी तरह की विषमताएं होती हैं। इनमें से अधिकांश का संबंध पूंजीवाद से है, जिसका प्रेरणा-स्रोत ही विषमता के अधिक से अधिक स्तर पैदा करना है। वस्तुओं के उत्पादन और वितरण का एक निश्चित तरीका किस तरह समाज के सभी संबंधों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है, पूंजीवाद इसका सबसे प्रबल उदाहरण है। इसलिए समाजवाद की पहली शर्त यह बनी कि उत्पादन के संबंधों में परिवर्तन हो। पूंजी की मुक्ति में सभी चीजों की मुक्ति निहित है।
पूंजी की मुक्ति का पहला बड़ा प्रयोग रूस की जमीन पर हुआ। इससे दुनिया भर में यह संदेश फैला कि जो एक देश में संभव है, वह दूसरे देशों में भी संभव है। आशा की यह लहर कितनी जबरदस्त थी और कितनी व्यापक, आज हम इसकी सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। लेकिन रूसी क्रांति के अलमबरदारों ने जिस तरह की नीतियों का अनुसरण किया, उससे साम्यवाद की चादर पर खून के बड़े-बड़े धब्बे दिखाई देने लगे। स्टालिन और उसके अनुयायी भूल गए कि उनका काम पूंजीवादी लोकतंत्र को शुद्ध करना तथा जनवादी बनाना है, न कि लोकतंत्र को ही खत्म कर देना। असहमति के दमन पर टिकी कोई भी व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं चल सकती। रूस का समाजवादी प्रयोग पचास-साठ साल में ही अपने अंतर्विरोधों से भरभरा कर गिर गया, यह मानव इतिहास के करुण अध्यायों में एक है। आज का रूस अपने इस लाल-काले अध्याय के एक-एक अवशेष को मिटाने के लिए उतावला है, तो कल्पना की जा सकती है कि किस तरह की स्मृतियां रूस के लोगों को पीड़ित कर रही होंगी।
इसके बावजूद साम्यवादी रूस में बहुत कुछ ऐसा हुआ जो दुनिया में कहीं और नहीं हो सका है। वहां जमींदार नहीं थे, न पूंजीपति थे। न भिखारी थे, न वेश्याएं। विषमता थी, पर उसके बहुत ज्यादा स्तर नहीं थे। बच्चों के विकास पर पूरा ध्यान दिया जाता था। बूढ़ों को समय पर पेंशन मिलती थी। काम-काज में सामूहिकता को प्रोत्साहित किया जाता था। मेहनत करनेवाले पुरस्कृत किए जाते थे। बेशक इनके साथ-साथ यह भी हुआ कि मानव अधिकारों की कोई प्रतिष्ठा नहीं थी, स्वतंत्र रूप से सोचनेवाले प्रताड़ित किए जाते थे, अखबार झूठ के पुलिंदे बन गए, ईमानदार लेखकों और कवियों के लिए जेल के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे और हर तरफ षड्यंत्र का वातावरण बन गया। उपर्युक्त उपलब्धियों और इन दुरवस्थाओं के बीच तालमेल बैठा पाना मुश्किल है।
आज रूसी क्रांति को गर्व के बजाय डर की निगाह से देखा जाता है, तो इसका कारण मार्क्सवाद के साथ विश्वासघात ही है। दुख की बात यह है कि इसकी तरफ मार्क्सवादियों का ही ध्यान सबसे अधिक जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। मार्क्सवादियों का एक बड़ा वर्ग, भारत में भी, रूसी क्रांति के विपथगामी होने का जिक्र करता है, लेकिन यह नहीं बताता कि उसका यह हाल क्यों हुआ और आज के मार्क्सवादियों ने रूसी क्रांति की दुर्गति से क्या-क्या सीखा है। इसीलिए लाल झंडे के प्रति आम जनता में प्रेम तो देखा जाता है, पर कोई देश नहीं चाहता कि वह लाल रूस की तरह बने। समकालीन नेपाल में इस तरह की एक तरंग आई थी, क्योंकि वहां के मार्क्सवादियों ने सामंतशाही के खिलाफ कठोर संघर्ष किया था। लेकिन अब वहां भी मोहभंग का वातावरण है।
आज हमारे यहां मार्क्सवाद पंगु है। वह सामंती तौर-तरीकों से अपने को जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। मार्क्सवाद की जगह माओवाद है। माओवाद ने कुछ खास तरह के इलाकों में सफलता प्राप्त की है, पर अपनी पोशीदा और डर पर आधारित कार्य प्रणाली के कारण वह वन आंदोलन बन कर रह गया है, जन आंदोलन नहीं बन पाया है। जन आंदोलन वह होता है जिसका राज्य की बुनियादी नीतियों पर दबाव पड़े और जिससे सत्ता के नए दावेदार पैदा हो सकें। आश्चर्य की बात यह है कि आज देश में सबसे ज्यादा बुद्धिजीवी मार्क्सवादी ही हैं, किन्तु वे जन संघर्ष का कोई ऐसा मॉडल खोजने में असमर्थ हैं जिसके प्रति जनता में बड़े पैमाने पर आकर्षण पैदा हो सके। संकट की इस घड़ी में रूसी क्रांति के सही सबक बहुत काम के हो सकते हैं, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है।
Tuesday, November 10, 2009
Friday, November 6, 2009
प्रभाष जोशी
समय का सबसे समर्थ हस्ताक्षर
राजकिशोर
किसी भी लेखक के लिए सबसे बड़ी बात यह होती है कि वह अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन जाए। जैसे निराला जी या रामविलास शर्मा हिन्दी जगत के लीजेंड थे और आज भी उनकी यह हैसियत बनी हुई है। हिन्दी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी का स्थान ऐसा ही है। वे बालमुकुंद गुप्त, विष्णुराव पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी की महान परंपरा की अंतिम कड़ी थे। भारत में पत्रकारिता जिस दिशा में जा रही है, आनेवाले समय में यह विश्वास करना कठिन होगा कि कभी प्रभाष जोशी जैसा पत्रकार भी हुआ करता था।
पत्रकारिता की ऊंचाई इस बात में है कि वह रचना बन जाए। प्रभाष जी पत्रकारों के बीच रचनाकार थे। उन्होंने जो कुछ लिखा जल्दी में ही लिखा, जो पत्रकारिता की जरूरत और गुण दोनों है, पर उनकी लिखी एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसमें विचार या भाषा का शैथिल्य हो। वे जितने ठोस आदमी थे, उनका रचना कर्म भी उतना ही ठोस था। सर्जनात्मकता का उत्कृष्टतम क्षण वह होता है जब रचना और रचनाकार आपस में मिल कर एक हो जाएं। प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व और लेखन, दोनों में ऐसा ही गहरा तादात्म्य था। वे जैसे थे, वैसा ही लिखते थे। इसीलिए उनकी पत्रकारिता में वह खरापन आ सका जो बड़े-बड़े पत्रकारों को नसीब नहीं होता।
पत्रकार अपने समय की आंख होता है। बदलते हुए परिदृश्य पर सबकी नजर जाती है, लेकिन पत्रकार अपने हस्ताक्षर वहां करता है जहां उसके समय का मर्म होता है। इस मायने में प्रभाष जोशी ने अपने पढ़नेवालों या सुननेवालों को कभी निराश नहीं किया। उन्होंने हमेशा अपने वक्त के सबसे मार्मिक बिन्दुओं को चुना और उन पर अपनी निर्भीक और विवेकपूर्ण कलम चलाई। अपने अंतिम बीस वर्षों में उनके दो केंद्रीय सरोकार थे – सांप्रदायिकता और बाजारवादी अर्थव्यवस्था। इन दोनों ही धाराओं में वे महाविनाश की छाया देख रहे थे। सांप्रदायिकता से उन्होंने अकेले जितने उत्साह और निरंतरता के साथ बहुमुखी संघर्ष किया, वह ऐतिहासिक महत्व का है। यह उनकी सनक नहीं थी, भारतीय समाज के साथ उनके प्रेम का विस्फोट था। गहरी सामाजिक संलग्नता की अनुपस्थिति में वह प्रखरता नहीं आ सकती थी जो प्रभाष जी के सांप्रदायिकता-विरोधी लेखन में दिखाई पड़ती है। उनके लिए यह मानो धर्मयुद्ध था, जिसमें उन्हें जीतना ही था।
नई अर्थनीति के खतरों को उन्होंने तभी देख लिया था जब आधुनिकीकरण के नाम पर कंप्यूटर युग की शुरुआत हुई थी और मनुष्य को मानव संसाधन माननेवाली विचारधारा अपने पैर जमा रही थी। आर्थिक सुधारों के नाम पर किए जानेवाले सभी फैसलों को उन्होंने शक की निगाह से देखा और आम आदमी के हितों को ध्यान में रख कर उनकी समीक्षा की। स्वच्छंद पूंजी की धमक से वे बहुत बेचैन रहते थे और उसके सर्वनाशी नतीजों से बराबर आगाह करते रहे। उनके इस आग्रह में गांधीवाद को ढूंढ़ना बेकार है। यह उनके प्रखर राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति थी। यह वही राष्ट्र प्रेम था जो उनके अन्य सामाजिक सरोकारों में प्रगट होता था। उनके कर्मकांडी हिन्दू होने के बावजूद उनका विवेक कभी मलिन नहीं होता था। उनके कुछ विचार अंत तक विवादास्पद बने रहे, लेकिन अपनी प्रामाणिकता में उनका गहरा विश्वास था। यह वैसा ही विश्वास है जो किसी प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी में दिखाई पड़ता है। ऐसे मामलों में हमें ‘संदेह का लाभ’ देने में संकोच नहीं करना चाहिए।
मीडियम इज द मेसेज – यह पंक्ति लाखों बार दुहराई जाने के बावजूद अर्थहीन नहीं हुई है। यह कुछ वैसा ही वाक्य है, जैसे गांधी जी की यह धारणा कि साध्य और साधन में पूर्ण एकता होनी चाहिए। पत्रकारिता का मुख्य औजार है भाषा। इसलिए यह संभव नहीं था कि जो व्यक्ति समाचार और विचार, दोनों क्षेत्रों में क्रांति कर रहा हो, वह भाषा के क्षेत्र में परिवर्तन की जरूरत के प्रति उदासीन रहे। अगर भारतेंदु के समय में हिन्दी नई चाल में ढली, तो प्रभाष जोशी ने उसे एक बार फिर नई चाल में ढाला। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनका यह योगदान असाधारण है और इसके लिए उन्हें युग-युगों तक याद किया जाएगा।
पत्रिकाओं के क्षेत्र में जो काम ‘दिनमान’ और ‘रविवार’ ने किया, अखबारों की दुनिया में प्रभाष जोशी द्वारा स्थापित ‘जनसत्ता’ ने उससे कहीं बड़ा और टिकाऊ काम किया। पत्रकारिता की समूची भाषा को आमूलचूल बदल देना मामूली बात नहीं है। यह काम कोई ऐसा महाप्राण ही कर सकता है जिसमें संस्था बनने की क्षमता हो। ‘जनसत्ता’ एक ऐसी ही संस्था बन गई। यह कहना अर्धसत्य होगा कि प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की तत्कालीन निर्जीव और क्लर्क टाइप भाषा को आम जनता की भाषा से जोड़ा। यह तो उन्होंने किया ही, उनका इतने ही निर्णायक महत्व का योगदान यह है कि उन्होंने जन भाषा को सर्जनात्मकता के संस्कार दिए। हिन्दी की शक्ति उसके तद्भव व्यक्तित्व में सबसे अधिक शक्तिशाली रूप में प्रगट होती है। प्रभाष जी का व्यक्तित्व खुद भी तद्भव-जन्य था। वे खांटी देशी आदमी थे। उनकी अपनी भाषा भी ऐसी ही थी। आश्चर्यजनक यह है कि उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता से अपने पूरे अखबार को ऐसा ही बना दिया। इस क्रांतिकारी रूपांतरण में उनके संपादकीय सहकर्मियों की भूमिका को कम करके नहीं आंकना चाहिए।
मीडियम के इस परिवर्तन में मेसेज का परिवर्तन अनिवार्य रूप से समाहित था। सो ‘जनसत्ता’ की पत्रकारिता एक नई संवेदना ले कर भी आई। यह संवेदना शोषित और पीड़ित जनता के पक्ष में और सभी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध थी। भारत की जनता के दुख और पीड़ा के जितने भी पहलू हो सकते थे, इस नए ढंग के अखबार ने सभी को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया। दुख की बात यह है कि बाद की पीढ़ी ने इस भाषा को तो अपनाया, पर उसकी पत्रकारिता में वह संवेदना नहीं दिखाई देती जिसे प्रभाष जी ने ‘जनसत्ता’ के माध्यम से विस्तार दिया।
प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व बहुमुखी और समग्रता लिए हुए था। उसमें साहित्य, संगीत, कला – सबके लिए जगह थी। इस गुण ने उनकी पत्रकारिता में चार चांद लगा दिए। ‘जनसत्ता’ ने हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का पुनर्वास किया। ऐसे समय में, जब पत्रकारिता साहित्य से कटने में गर्व का अनुभव कर रही थी, यह एक साहसिक घटना थी। इसी तरह, संस्कृति के अन्य रचनात्मक पक्षों को भी प्रभाष जोशी ने पूरा महत्व दिया। खेल में तो जैसे उनकी आत्मा ही बसती थी। कुल मिला कर, हिन्दी प्रदेश में प्रभाष जोशी एक समग्र बौद्धिक केंद्र थे और ऐसा ही वातावरण बनाने के लिए अंतिम समय तक सक्रिय रहे। प्रभाष जी को आधुनिक भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कहा जाए, तो इसमें अतिशयोक्ति का एक कतरा भी नहीं है। 000
राजकिशोर
किसी भी लेखक के लिए सबसे बड़ी बात यह होती है कि वह अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन जाए। जैसे निराला जी या रामविलास शर्मा हिन्दी जगत के लीजेंड थे और आज भी उनकी यह हैसियत बनी हुई है। हिन्दी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी का स्थान ऐसा ही है। वे बालमुकुंद गुप्त, विष्णुराव पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी की महान परंपरा की अंतिम कड़ी थे। भारत में पत्रकारिता जिस दिशा में जा रही है, आनेवाले समय में यह विश्वास करना कठिन होगा कि कभी प्रभाष जोशी जैसा पत्रकार भी हुआ करता था।
पत्रकारिता की ऊंचाई इस बात में है कि वह रचना बन जाए। प्रभाष जी पत्रकारों के बीच रचनाकार थे। उन्होंने जो कुछ लिखा जल्दी में ही लिखा, जो पत्रकारिता की जरूरत और गुण दोनों है, पर उनकी लिखी एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसमें विचार या भाषा का शैथिल्य हो। वे जितने ठोस आदमी थे, उनका रचना कर्म भी उतना ही ठोस था। सर्जनात्मकता का उत्कृष्टतम क्षण वह होता है जब रचना और रचनाकार आपस में मिल कर एक हो जाएं। प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व और लेखन, दोनों में ऐसा ही गहरा तादात्म्य था। वे जैसे थे, वैसा ही लिखते थे। इसीलिए उनकी पत्रकारिता में वह खरापन आ सका जो बड़े-बड़े पत्रकारों को नसीब नहीं होता।
पत्रकार अपने समय की आंख होता है। बदलते हुए परिदृश्य पर सबकी नजर जाती है, लेकिन पत्रकार अपने हस्ताक्षर वहां करता है जहां उसके समय का मर्म होता है। इस मायने में प्रभाष जोशी ने अपने पढ़नेवालों या सुननेवालों को कभी निराश नहीं किया। उन्होंने हमेशा अपने वक्त के सबसे मार्मिक बिन्दुओं को चुना और उन पर अपनी निर्भीक और विवेकपूर्ण कलम चलाई। अपने अंतिम बीस वर्षों में उनके दो केंद्रीय सरोकार थे – सांप्रदायिकता और बाजारवादी अर्थव्यवस्था। इन दोनों ही धाराओं में वे महाविनाश की छाया देख रहे थे। सांप्रदायिकता से उन्होंने अकेले जितने उत्साह और निरंतरता के साथ बहुमुखी संघर्ष किया, वह ऐतिहासिक महत्व का है। यह उनकी सनक नहीं थी, भारतीय समाज के साथ उनके प्रेम का विस्फोट था। गहरी सामाजिक संलग्नता की अनुपस्थिति में वह प्रखरता नहीं आ सकती थी जो प्रभाष जी के सांप्रदायिकता-विरोधी लेखन में दिखाई पड़ती है। उनके लिए यह मानो धर्मयुद्ध था, जिसमें उन्हें जीतना ही था।
नई अर्थनीति के खतरों को उन्होंने तभी देख लिया था जब आधुनिकीकरण के नाम पर कंप्यूटर युग की शुरुआत हुई थी और मनुष्य को मानव संसाधन माननेवाली विचारधारा अपने पैर जमा रही थी। आर्थिक सुधारों के नाम पर किए जानेवाले सभी फैसलों को उन्होंने शक की निगाह से देखा और आम आदमी के हितों को ध्यान में रख कर उनकी समीक्षा की। स्वच्छंद पूंजी की धमक से वे बहुत बेचैन रहते थे और उसके सर्वनाशी नतीजों से बराबर आगाह करते रहे। उनके इस आग्रह में गांधीवाद को ढूंढ़ना बेकार है। यह उनके प्रखर राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति थी। यह वही राष्ट्र प्रेम था जो उनके अन्य सामाजिक सरोकारों में प्रगट होता था। उनके कर्मकांडी हिन्दू होने के बावजूद उनका विवेक कभी मलिन नहीं होता था। उनके कुछ विचार अंत तक विवादास्पद बने रहे, लेकिन अपनी प्रामाणिकता में उनका गहरा विश्वास था। यह वैसा ही विश्वास है जो किसी प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी में दिखाई पड़ता है। ऐसे मामलों में हमें ‘संदेह का लाभ’ देने में संकोच नहीं करना चाहिए।
मीडियम इज द मेसेज – यह पंक्ति लाखों बार दुहराई जाने के बावजूद अर्थहीन नहीं हुई है। यह कुछ वैसा ही वाक्य है, जैसे गांधी जी की यह धारणा कि साध्य और साधन में पूर्ण एकता होनी चाहिए। पत्रकारिता का मुख्य औजार है भाषा। इसलिए यह संभव नहीं था कि जो व्यक्ति समाचार और विचार, दोनों क्षेत्रों में क्रांति कर रहा हो, वह भाषा के क्षेत्र में परिवर्तन की जरूरत के प्रति उदासीन रहे। अगर भारतेंदु के समय में हिन्दी नई चाल में ढली, तो प्रभाष जोशी ने उसे एक बार फिर नई चाल में ढाला। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनका यह योगदान असाधारण है और इसके लिए उन्हें युग-युगों तक याद किया जाएगा।
पत्रिकाओं के क्षेत्र में जो काम ‘दिनमान’ और ‘रविवार’ ने किया, अखबारों की दुनिया में प्रभाष जोशी द्वारा स्थापित ‘जनसत्ता’ ने उससे कहीं बड़ा और टिकाऊ काम किया। पत्रकारिता की समूची भाषा को आमूलचूल बदल देना मामूली बात नहीं है। यह काम कोई ऐसा महाप्राण ही कर सकता है जिसमें संस्था बनने की क्षमता हो। ‘जनसत्ता’ एक ऐसी ही संस्था बन गई। यह कहना अर्धसत्य होगा कि प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की तत्कालीन निर्जीव और क्लर्क टाइप भाषा को आम जनता की भाषा से जोड़ा। यह तो उन्होंने किया ही, उनका इतने ही निर्णायक महत्व का योगदान यह है कि उन्होंने जन भाषा को सर्जनात्मकता के संस्कार दिए। हिन्दी की शक्ति उसके तद्भव व्यक्तित्व में सबसे अधिक शक्तिशाली रूप में प्रगट होती है। प्रभाष जी का व्यक्तित्व खुद भी तद्भव-जन्य था। वे खांटी देशी आदमी थे। उनकी अपनी भाषा भी ऐसी ही थी। आश्चर्यजनक यह है कि उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता से अपने पूरे अखबार को ऐसा ही बना दिया। इस क्रांतिकारी रूपांतरण में उनके संपादकीय सहकर्मियों की भूमिका को कम करके नहीं आंकना चाहिए।
मीडियम के इस परिवर्तन में मेसेज का परिवर्तन अनिवार्य रूप से समाहित था। सो ‘जनसत्ता’ की पत्रकारिता एक नई संवेदना ले कर भी आई। यह संवेदना शोषित और पीड़ित जनता के पक्ष में और सभी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध थी। भारत की जनता के दुख और पीड़ा के जितने भी पहलू हो सकते थे, इस नए ढंग के अखबार ने सभी को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया। दुख की बात यह है कि बाद की पीढ़ी ने इस भाषा को तो अपनाया, पर उसकी पत्रकारिता में वह संवेदना नहीं दिखाई देती जिसे प्रभाष जी ने ‘जनसत्ता’ के माध्यम से विस्तार दिया।
प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व बहुमुखी और समग्रता लिए हुए था। उसमें साहित्य, संगीत, कला – सबके लिए जगह थी। इस गुण ने उनकी पत्रकारिता में चार चांद लगा दिए। ‘जनसत्ता’ ने हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का पुनर्वास किया। ऐसे समय में, जब पत्रकारिता साहित्य से कटने में गर्व का अनुभव कर रही थी, यह एक साहसिक घटना थी। इसी तरह, संस्कृति के अन्य रचनात्मक पक्षों को भी प्रभाष जोशी ने पूरा महत्व दिया। खेल में तो जैसे उनकी आत्मा ही बसती थी। कुल मिला कर, हिन्दी प्रदेश में प्रभाष जोशी एक समग्र बौद्धिक केंद्र थे और ऐसा ही वातावरण बनाने के लिए अंतिम समय तक सक्रिय रहे। प्रभाष जी को आधुनिक भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कहा जाए, तो इसमें अतिशयोक्ति का एक कतरा भी नहीं है। 000
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