Thursday, June 11, 2009

फेंको मत, प्रयोग करो

गांधी कलम का संदेश
राजकिशोर


लेखकों और पत्रकारों को कलम का सिपाही, कलम का मजदूर, कलमजीवी, कलमवीर आदि-आदि कहा जाता है। पत्रकार विनम्रतावश अपने को कलमघसीट कहते हैं, जो अंग्रेजी के पेन-पुशर का सटीक अनुवाद है। अब कम्प्यूटर तेजी से कलम का स्थान लेता जा रहा है। अनेक पत्रकार कबीर की तरह, लेकिन एक भिन्न अर्थ में, यह दावा कर सकते हैं कि मसि-कागद छूओ नहिं, कलम गही नहिं हाथ। लेकिन बहुत से लेखक-पत्रकार अभी भी कलम ही चलाते हैं। साथ ही, अभी भी बहुत-से काम कलम से ही होते हैं। कंप्यूटर का प्रयोग कितना ही व्यापक क्यों न हो जाए, कलम तो रहेगी। कुछ लेखकों को सुंदर और महंगी कलमों का शौक होता है। कई बड़े गर्व से बताते हैं कि उन्हें पहली पारकर कलम किस उम्र में मिली थी। ऐसा लगता है कि लैपटॉप, पामटॉप और कोई नया टॉप आने के बाद भी अच्छी और महंगी कलमों का, जैसे खूबसूरत और महंगी घड़ियों का, शौक हमेशा बना रहेगा। कुछ ऐसे भी होंगे जो कपड़े साधारण पहनेंगे, खाना भी साधारण खाएंगे, लेकिन जेब में रखेंगे कोई महंगी कलम ही। लेकिन यह दूसरी बात है। मैं यहां जिस चीज की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, वह कलम की तकनीक के बारे में है, जिसके साथ उसका अर्थशास्त्र भी जुड़ा हुआ है।
निबवाली कलम की उम्र लंबी रही है। उसके पहले सरकंडे की कलम का इस्तेमाल होता था। गणेश जी की कलम शायद मोरपंखी की थी। लेकिन गांधी जी ने जिस कलम से हजारों या शायद लाखों चिट्ठियां लिखीं, वह कलम-दावातवाली कलम ही थी। हम सभी ने बचपन में इसी कलम का इस्तेमाल किया है। यह कलम सस्ती पड़ती थी और निब बदलते हुए एक कलम को साल-साल भर या उससे ज्यादा भी चलाया जा सकता था। उसके बाद आया फाउंटेनपेन। यह एक दर्जा बेहतर था। अब कलम के साथ दावात रखने की मजबूरी खत्म हो गई। मेरा खयाल है, फाउंटेनपेन सभ्यता का एक सुंदर उपहार है। उससे हस्तलिपि भी अच्छी बनती है। लेकिन बॉल पेन ने उसका जनाजा निकाल दिया। इस कमबख्त ने हमारे जीवन में उत्सव की तरह प्रवेश किया और दैनंदिनी की तरह छा गया। बॉल पेन में सुविधा भी बहुत है। फर्राटे से लिखो और रिफिल खत्म हो जाए, तो उसे निकाल कर फेंक दो और उसकी जगह नई रिफिल डाल दो। बॉल पेन अभी भी अपनी उसी मस्ती के साथ चल रहा है। लेकिन इस बीच तरह-तरह की कलमें आ गई हैं, जैसे जेल पेन, रोलर पेन आदि। ये सभी बॉल पेन की ही भाई-बहनें हैं। इनकी रिफिल भी लगातार बदलनी पड़ती है। कुछ कलमों की तो रिफिल मिलती भी नहीं। लिखते रहो, स्याही खत्म हो जाए तो फेंक दो। यूज एंड थ्रो। आजकल दुकान में जाओ, तो निबवाली कलम मुश्किल से दिखाई पड़ती है। गनीमत यह है कि वह अभी भी बची हुई है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट लिखी जा चुकी है, पर रोगी जिंदा है, अगरचे वह लंबी-लंबी सांसें ले रहा है। मेरा प्रस्ताव यह है कि इस रोगी को जीवन दान मिलना चाहिए। नहीं तो कलमों के कचरे से ही एक दिन इस धरती का आंगन भर जाएगा और दिनकर के कुरुक्षेत्र के एक पात्र की तरह हम पछताएंगे कि नर का बहाया रक्त, हे भगवान मैंने क्या किया।
आजकल हम जिन कलमों का इस्तेमाल करते हैं, वे स्वयं कचरा नहीं हैं, पर कचरा जरूर पैदा करती हैं। जिंदगीरहित रिफिल, जो फेंक दिए जाने पर दशकों या शताब्दियों तक जमींदोज होने के लिए तैयार दिखाई नहीं देते। प्लास्टिक या लोहे की खपत मांगनेवाली कलम की बॉडी, जो अपनी उपयोगिता खो देने के बाद भी निश्चिह्न होना नहीं चाहती। प्लास्टिक की हुई, तो उसके साथ भी वही खतरा है जो प्लास्टिक की थैलियों के साथ है। यह विचित्र है कि प्लास्टिक की थैलियों के प्रति तो जागरूकता पैदा हो गई है और कई राज्यों में नहीं तो कई शहरों में उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया है। लेकिन प्लास्टिक की कलमों तथा अन्य उत्पादों के प्रति मोह बना हुआ है। कल्पना कीजिए, जब पूरा भारत शिक्षित हो जाएगा (हे ईश्वर, वह दिन कब आएगा? आएगा भी कि नहीं?) तब देश भर में कितनी कलमों की जरूरत पड़ेगी? उनमें कितना प्लास्टिक लगेगा, उनके लिए कितनी रिफिलें लगेंगी और इन सबको कहां दफनाया जाएगा? दफनाए जाने के बाद ये पंचभूत में कब विलीन होंगे? अंतिम संस्कार के इस महंगे खेल में यूरोप के छोटे-छोटे और समृद्ध देश तो हिस्सा ले सकते हैं, पर हम भारतवासियों को तो नानी याद आ जाएगी। क्या अभी से इसका कुछ उपचार करना आवश्यक नहीं है? या, जब तक प्यास नहीं लगेगी, कुएं नहीं खोदे जाएंगे?
कोई कह सकता है कि यह आशंका अतिरंजित है। मेरा अपना अनुभव यह है कि बहुत-से मामलों में अतिरंजना के जरिए ही सत्य का साक्षात्कार होता है। बहरहाल, यदि यह अतिरंजना है, तब भी इसका उपयोग है। सौ-पचास झीलों का सूख जाना दुनिया के सभी झीलों के सूख जाने की भविष्यकथा हो सकती है। न भी हो, तो हम ऐसा काम करें ही क्यों जिससे एक झील भी सूख सकती है? खास तौर से तब जब वह काम कतई जरूरी न हो। इस आशंका के विरुद्ध एक और तर्क दिया जा सकता है। यह तर्क है पुनर्चक्रण का। यह पुनर्चक्रण एक यूरोपीय बीमारी का नाम है। हम किसी चीज का बार-बार और नए-नए तरीके से इस्तेमाल तो कर सकते हैं जैसे त्यागी हुई धोतियों और साड़ियों का बहुविध इस्तेमाल हमारी मांएं-दादियां-नानियां करती थीं। बड़ों के उतारे हुए कपड़े छोटे पहनते थे। स्वयं गांधी जी ने अपने जीवन में इसके दर्जनों प्रयोग किए। वे अनेक चिट्ठियां इस्तेमालशुदा लिफाफों की खाली जगह पर लिखा करते थे। धोती को फाड़ कर रूमाल बना लेते थे। पर आधुनिक सभ्यता का यह कबूल नहीं है। वह चीज नई और ताजा देखना चाहता है। साधन सीमित हैं और वे हमेशा सीमित ही रहेंगे। इसलिए उसने पुनर्चक्रण की टेक्नोलॉजी निकाली है। लेकिन यह टेक्नोलॉजी इतनी महंगी है कि इसका इस्तेमाल अमीर समाज ही कर सकते हैं। गरीब देश ऐसा करने का प्रयास करेंगे, तो उनका भट्टा बैठ जाएगा। भारत में जहां जहां कचरे, पानी आदि के पुनर्चक्रण के प्लांट लगे हैं, उनमें से ज्यादातर फेल हो चुके हैं। इसलिए हमें एक चक्र से ही संतुष्ट रहना चाहिए। ज्यादा बहादुरी नहीं दिखानी चाहिए।
कलम के मामले में भी यह उतना ही सच है। आखिर बॉल पेन, जेल पेन या रोलर पेन से वही काम होता है जो निबवाली कलम से हो सकता है। यह कलम किफायती भी है -- स्याही चुक जाए तो फिर डाल दो और लिखते रहो। अगर इस कलम की बॉडी प्लास्टिक की भी हो, तो दीर्घजीवी होने के कारण पर्यावरण का नाश करनेवाला कचरा कम पैदा करेगी। हम चाहें तो इसका नाम गांधी पेन रख सकते हैं। गांधी पेन इसलिए कि यह किफायत की राह दिखाती है और कम से कम में काम चलाने के दर्शन की ओर ले जाती है। मूल सवाल इस या उस कलम का नहीं है। मूल सवाल यह है कि हम उपभोक्तावाद (इस्तेमाल करो और फेंको --यह दृष्टि चीजों पर इस्तेमाल होते-होते जब स्त्री-पुरुषों पर लागू होने लगती है, तब हम इस आधुनिक सभ्यता को ही कोसने लगते हैं। एक समय अरुण शौरी ने कहा था कि संपादकों की स्थिति निरोध जैसी हो गई है। उनका अनुकरण करते हुए हम कह सकते हैं कि कलम की हैसियत भी निरोध जैसी हो गई हैे), का शिकार होना पसंद करेंगे या छोटी से छोटी चीज की तरफ ध्यान देते हुए उसके निर्दय पंजों से बाहर निकलने की सोचेंगे? उत्पादनकर्ता तो यह चाहेगा ही कि उसका माल ज्यादा से ज्यादा बिके। यूज एंड थ्रो की संस्कृति का राज इसी में छिपा हुआ है। यह उत्पादकता नहीं, उत्पादन बढ़ाने का रास्ता है। ज्यादा उत्पादन यानी ज्यादा आय यानी अधिक जीडीपी। इसी को आर्थिक संवृद्धि कहा जाता है – बिना इस पर विचार किए कि अच्छी चीज वह है जिसका इस्तेमाल ज्यादा दिनों तक और किफायतशारी के साथ किया जा सकता है। गांधी कलम यही काम करेगी।
कोई लेखक अपने पूरे जीवन काल में (यहां उनकी बात नहीं की जा रही है जो चंद्रधर शर्मा गुलेरी की तरह तीन-चार कहानियां लिख कर अमर हो जाना चाहते हैं) अगर निबवाली बीस कलमों का इस्तेमाल करता है, तो वह उतने ही पन्ने रंगने के लिए रिफिलवाली दो सौ कलमों का इस्तेमाल करेगा। हो सकता है, और ज्यादा ही, क्योंकि सभी रिफिलें अच्छी नहीं होतीं और आठ-दस पन्नों के बाद ही टें बोल जाती हैं। विचारणीय यह भी है कि रिफिल या जेलवाली कलमों के लिए उच्चतर टेक्नोलॉजी की जरूरत होती है, जब कि निबवाली कलमों का उत्पादन मामूली टेक्नोलॉजी से भी किया जा सकता है। वैज्ञानिकता (और आधुनिकता भी, अगर बुद्धि से इसका संबंध पूरी तरह से टूट नहीं गया है) इसमें नहीं है कि जो काम पांच रुपए से हो सकता है, वही काम पचीस रुपए में किया जाए। जो बेवजह ज्यादा खर्च करता है, उसे मंद-अकल नहीं तो और क्या कहा जाएगा? जितनी जल्द हम इस बात को पकड़ लें कि उद्योगपति वही होशियार है जो ग्राहकों को बेवकूफ बना कर अपनी जेब भरता जाए, उतनी ही जल्द हम भी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल शुरू कर देंगे और उद्योगपति के झांसे में न आ कर अपना चुनाव स्वयं करेंगे।
आजकल हिन्द स्वराज्य की बड़ी चर्चा है। जिसे देखो, वही गांधी जी के संदेश की चिरंतन प्रासंगिकता का चारण गान किए जा रहा है। इस सिलसिले में गांधी का यह वाक्य भुला दिया जाता है कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। गांधीवाद को गांधी के बाहर खोजना नादानी है। यह विद्वत्ता की चीज नहीं, बरतने की चीज है। गांधी की प्रशंसा इस बात में नहीं है कि उनके जीवन या विचारों पर कितने सफेद पन्ने स्याह किए गए। जो गांधी की राह पर चलने की यथासाध्य कोशिश करेगा, वही गांधीवादी होने का यत्किंचित दावा कर सकता है। गांधी पेन इसका एक उदाहरण है। अगर हम गांधी पेन के पीछे कार्यरत विचार से सहमत हैं, तो गांधी सड़क, बस, गांधी रेल, गांधी घर, गांधी ऑफिस, गांधी सभागार, गांधी सिनेमाघर, गांधी कार, गांधी अखबार आदि की भी कल्पना कर सकते हैं। यह विचार आग की तरह फैलता है तो भारत में न अतिशय गरीबी रहेगी न अतिशय अमीरी। 000

3 comments:

समय चक्र said...

प्रयोग करो फेंको मत,
बहुत खूब बढ़िया

बसंत आर्य said...

कलम को लेकर इतनी चिंता. आखिर एक कलमकार जो ठहरे. कलमघसीट नहीं

arun prakash said...

मैंने तो ५० - ५० रुपये की निब वाली कलमो को खरीद कर बच्चो को दिया लेकिन सत्यानाश हो स्कूल वालों का जो इसे मान्यता नहीं दिए सो मुझे ही प्रयोग करना पड़ा भाई लोग इसे देख कर ऐसा चौंकते है जैसे ये किसी अजायब घर से लाइ गयी हो या मैं परले दर्जे का कंजूस हूँ खैर जो भी हो कलम का प्रयोग हो रहा है तथा दूसरे को प्रेरित भी कर रहा हूँ विगत १ साल से लेकिन जेल के दीवाने माने तो ना
आपने मेरी बात को ही लिख दिया है अब दुबारा इसी टापिक पर लिखना चाहू तो आप भी येही कहेंगे की ये टापिक चुराया गया
प्रभावशाली तरीके से एक समस्या को उठाया गया यही हाल सभी प्राडक्ट जो प्लास्टिक के पाउचों में लिपटे हैं जिसके प्रयोग के बाद पौच मिटटी को ख़राब कर रहे हैं कब हम चेतेंगे