Saturday, March 3, 2012

विवाह में आर्थिक समता


जो पति का, वह पत्नी का भी
राजकिशोर

योजना आयोग एक ऐसा प्रस्ताव ले कर आया है जो भारत में पति-पत्नी के रिश्तों में रेडिकल परिवर्तन ला सकता है, लेकिन जो, पुरुषों की मानसिकता को देखते हुए,  कम से कम अगले बीस साल तक ठंडाघर में पड़ा रहेगा। आयोग चाहता है कि विवाह के बाद पति और पत्नी जो भी संपत्ति हासिल करें, उस पर दोनों का समान अधिकार हो। यह प्रस्ताव नया भले ही लगे, पर विवाह की अवधारणा में हमेशा मौजूद रहा है। यथार्थ तो यही है कि विवाह के बाद पति-पत्नी एक हो जाते हैं। लेकिन उनकी आर्थिक हैसियत एक नहीं हो जाती। पति राजा है तो वह राजा बना रहता है और पत्नी रंक है तो वह रंक बनी रहती है। राजा के साथ विवाह होने पर वह रानी की तरह रहने लगती है, लेकिन तभी तक जब तक राजा उस पर मेहरबान रहे। राजा के मुँह फेरते ही उसकी हालत बाँदी जैसी हो जाती है, क्योंकि राजा के खजाने पर उसका कोई कानूनी अधिकार नहीं होता। विवाह को जो ऊँचा स्थान सभी धर्मों और समुदायों में दिया गया है, विवाह के मंत्र जो कहते हैं, उसके साथ इस आर्थिक विषमता का कोई मेल नहीं है। परिणाम यह होता है कि विवाह होते तो  स्वर्ग में हैं, पर वैवाहिक जीवन नरक में बिताया जाता है। अगर विवाह संस्था को एक मानवीय संस्था बनाना है, तो हमें सब तरह की बराबरी पर विचार करना ही होगा।
          जिस विवाह में स्त्री और पुरुष की आर्थिक हैसियत अलग-अलग हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता। इस तरह के जो विवाह सफल दिखाई देते हैं, वे स्त्री की पराधीनता पर आधारित होते हैं। अधिकतर मामलों में चूँकि स्त्री का अपना कोई स्वतंत्र आर्थिक आधार नहीं होता, इसलिए वह अपने को पति से कई दर्जा नीचे मान कर चलती है। वह जानती है कि पति को अप्रसन्न करने के नतीजे कितने भयावह  हो सकते हैं। इस तरह विवाह के भीतर किसी तरह का लोकतंत्र नहीं रह जाता। हर मामले में पुरुष की ही मर्जी चलती है, क्योंकि पैसा उसके ही पास होता है और कुछ  खर्च करना हो तो पत्नी को उससे पैसा माँगना होता है। बहुतेरे मामलों में तो पत्नी को पता भी नहीं होता कि पति के पास कितना पैसा है। पुरुष उसे जितना बताना गवारा करे, उतना ही वह जानती है। इससे पारिवारिक जीवन में उसकी भूमिका बहुत सीमित हो जाती है। अकसर तो उसका मानसिक विकास भी नहीं हो पाता, क्योंकि वह वास्तविक दुनिया की कारगुजारियों से नावाकिफ  रह जाती है।
          परिवार की आर्थिक स्थिति में किसी प्रकार की सच्ची साझेदारी के अभाव में पत्नियों का अस्तित्व तक उनके अपने हाथ में नहीं रह जाता। चूँकि उनके पास अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए पैसा नहीं होता, इसलिए वे अपनी मर्जी का इस्तेमाल करना भी भूल जाती हैं। उन्हें सबसे बड़ा डर यह होता है कि पति छोड़ देगा, तो वे कहाँ जाएँगी ? पिता के परिवार में लौटना कोई सच्चा विकल्प नहीं है। वहाँ उसका स्वागत करने के लिए शायद ही कोई उत्सुक रहता हो। इसलिए स्त्री की मजबूरी हो जाती है कि वह किसी भी शर्त पर विवाह को टूटने न दे। इस बेबसी का सारा फायदा पुरुष को मिलता है और वह परिवार के सभ्य जंगल में शेर की तरह जीवन बिताता है। इसका असर बेटे-बेटियों पर भी पड़ता है। बेटियाँ जानती हैं कि परिवार की संपत्ति में उनकी कोई कानूनी हिस्सेदारी नहीं है। विवाह के समय माता-पिता से जो मिल जाए, वही उनका धन है और इस धन पर भी उस परिवार का कब्जा हो जाता है जहाँ वह ब्याह करके जाती है। इससे बेटियों के व्यक्तित्व में एक बेसहारापन अपने आप विकसित हो जाता है। दूसरी ओर, बेटे जानते हैं कि परिवार की संपत्ति में उन सब का बराबर हिस्सा है, इसलिए उनके व्यक्तित्व में अधिकार-चेतना होती है, जो उन्हें स्वतंत्र और स्वाभिमानी बनाती है। जिस समाज में बेटे-बेटियों का व्यक्तित्व अलग-अलग तथा परस्पर दिशाओं में विकसित होता हो, उस समाज में दांपत्य जीवन में सच्ची बराबरी कहाँ से आ सकती है, क्योंकि यही बेटे-बेटियाँ ही तो आगे चल कर पति और पत्नी की भूमिका निभाती हैं। विवाह का वर्तमान दस्तूर यह सुनिश्चित करता है कि बेटे-बेटियों को बचपन से  जो संस्कार मिलते हैं, वही आगे भी बने रहें। इस तरह मर्द मर्द ही रहता है और औरत के पास अपने औरतपन से छुटकारा पाने की कोई राह नहीं होती।
          स्पष्ट है कि पति-पत्नी  की आर्थिक हैसियत में फर्क को मामूली बात समझा जाता है, लेकिन व्यवहार में यह बात मामूली नहीं रह जाती। इसका असर पूरे सामाजिक ढाँचे पर पड़ता है। एक आधी आबादी का दूसरी आधी आबादी से रिश्ता बिगड़ा का बिगाड़ा रह जाता है। फिर भी, यह हमें यह एक स्वाभाविक स्थिति लगती है, क्योंकि हम बचपन से ही यही देखते हैं और सोचते हैं कि यह न केवल स्वाभाविक है, बल्कि आदर्श भी है। आदतें अकसर हमारी चेतना के विस्तार  में अवरोधक बन जाती हैं। कह सकते हैं कि स्त्री-पुरुष की भौतिक विषमता हमारी सबसे सबसे तगड़ी आदत है। दूसरी आदतें टूट चुकी हैं या टूट रही हैं – राजतंत्र नहीं रहा, जातियों की ऊँच-नीच को चुनौती मिल रही है, सभी को शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिल चुका है, अछूतपन के समर्थन में कोई चूँ तक नहीं कर सकता, दलित सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बन सकता है। लेकिन स्त्री-पुरुष को बराबरी का हक न देने की हजारों वर्ष पुरानी आदत अभी भी हमें जकड़े हुए है। इस अस्वस्थ आदत को  पारिवारिक संपत्ति में बराबरी का अधिकार जरूर धक्का पहुँचाएगा।
          सच पूछिए तो इससे पुरुष समाज को भी कम फायदा नहीं है। विशेषाधिकार आदमी को बड़ा नहीं, छोटा बनाता है। परिवार में लोकतंत्र नहीं होने से समाज में भी लोकतंत्र नहीं हो पाता। चूँकि पुरुष परिवार के भीतर आर्थिक विषमता को पालता है, इसलिए सामाजिक स्तर पर मौजूद आर्थिक विषमता को चुनौती देने की बात उसके मन में ही नहीं आती। परिवार में पुरुष और स्त्री के बीच जो असमान संबंध होता है, वह असमान संबंध समाज में पुरुषों के बीच भी कायम रहता है। पुरुषों का बड़ा हिस्सा पुरुषों के एक छोटे-से हिस्से की पत्नी की तरह जीवन बिताता है। ठीक ही माना जाता है कि स्त्री मुक्ति में पुरुष मुक्ति के तत्व भी छिपे हुए हैं। जब स्त्री अपनी दिखाई पड़नेवाली जंजीरों से आजाद हो जाएगी, तब पुरुष भी अपनी न दिखनेवाली जंजीरों से मुक्त हो सकेगा।
          लेकिन यह समस्या का पूरा हल नहीं है। पूरा हल इसलिए नहीं है कि भारत में संपत्ति है कितने परिवारों के पास? अधिकांश स्त्रियाँ अपने पुरुषों की दरिद्रता में ही साझा कर रही हैं। इसलिए योजना आयोग के इस प्रस्ताव से जो सुविधा उच्च और मध्य वर्ग को मिल जाएगी, वह गरीब परिवारों तक नहीं पहुँचेगी। इसलिए योजना बना कर बड़े पैमाने पर संपत्ति का निर्माण और उसका साझा वितरण ही नए समाज की नींव बन सकता है। व्यापक समस्याओं के आंशिक समाधान नहीं होते।   

           

विपक्ष की भूमिका पर


प. बंगाल के वामपंथी चुप क्यों हैं
राजकिशोर

आजकल यह प्रश्न मुझे परेशान किए हुए है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी चुप क्यों है?  एक लंबे समय तक लगातार सत्ता में रहने के बाद मिली चुनावी पराजय से उन्हें साँप सूँघ गया हो, तो यह बहुत ही स्वाभाविक घटना है। दरअसल, किसी भी राजनीतिक दल को बहुत दिनों तक न तो सत्ता में रहना चाहिए और न ही विपक्ष में। दोनों ही हालात में उसके चरित्र में विकृति आ जाती है। आत्मनिरीक्षण की क्षमता (जो वैसे भी नेताओं और राजनीतिक संगठनों में कम होती है) तो खत्म हो ही जाती है और वे सत्ता में रहे तो राजा की तरह और विपक्ष में रहे तो बागी की तरह आचरण करने लगते हैं। इसलिए सीपीएम और उनके साथी दल पश्चिम बंगाल में अगर अच्छा काम कर रहे थे, तब भी उन्हें एक छोटा-सा ब्रेक मिलना चाहिए था। मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि कोई भी अच्छी पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रह जाती है, तो उसे स्वेच्छा से पाँच वर्ष के लिए सत्ता में आने से इनकार कर देना चाहिए, ताकि वह एक स्वाभाविक संगठन बनी रह सके। इसलिए प. बंगाल में कम्युनिस्टों की हार को मैं उनके लिए टॉनिक समझता हूँ।
          लेकिन ऐसा लगता है कि जिसके लिए सत्ता या सत्ता की उम्मीद ही एकमात्र टॉनिक हो चुकी है, वे सत्ता के इंटरवल का रचनात्मक इस्तेमाल करने में असमर्थ हो जाते हैं। हार से अगर प. बंगाल के वामपंथियों को सचमुच साँप सूँघ गया था, तो एक-दो महीने के बाद तो उन्हें होश में आ जाना चाहिए था और वामपंथी को जो शोभा देता है या उससे जिसकी अपेक्षा की जाती है, वैसा कामकाज शुरू कर देना चाहिए था। क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि नई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से कोई बड़ी भूल हो तो वे धरना, जुलूस, हड़ताल वगैरह की तैयारी करें? क्या विरोध करने के अलावा विरोधी दल का कोई और काम नहीं होता?
          हमारे देश की राजनीति में प्रतिपक्ष की भूमिका को ले कर कई मूर्खतापूर्ण भ्रांतियाँ जड़ जमा चुकी हैं। पश्चिमी देशों में अगर विरोधी दल आम तौर पर निष्क्रिय रहते हैं या उनकी सक्रियता संसद में ही दिखाई पड़ती है, तो इसका कारण है। उन समाजों में यह मान लिया गया है कि राजनीतिक दलों के लिए समाज के स्तर पर कुछ खास करने को रह नहीं गया है। जो भी करना है, सत्ता में जा कर करना है या सत्ता पक्ष की नीतियों का विरोध करके या उन्हें विफल बता कर या बना कर करना है। लेकिन भारत तो अभी भी एक बनता हुआ देश है। इसे एक अच्छा, कुशल और रहने लायक देश बनाने के लिए हम सभी को बहुत कुछ करना पड़ेगा।  बेशक कुछ मामलों में स्थितियाँ सुधर रही हैं, लेकिन बहुत-से मामलों में स्थितियाँ बिगड़ भी रही हैं। इसलिए सत्ता में रहते हुए और तब भी जब सत्ता छिन चुकी हो, राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए काफी कुछ करणीय बचा रह जाता है।
इस सिलसिले में गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम की बरबस याद आती है। कांग्रेस का मुख्य काम स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना था। लेकिन जब सत्याग्रह या असहयोग आंदोलन नहीं चल रहा होता था, तो कांग्रेस के कार्यकर्ता तरह-तरह के रचनात्मक कार्यक्रमों में जुटे रहते थे। जैसे खादी का प्रचार-प्रसार करना, सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध काम करना, शराब की दुकानों पर पिकेटिंग करना, गाँव या नगर की सफाई में हाथ बँटाना, अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी का प्रचार करना, गो सेवा, लघु उद्योगों की स्थापना इत्यादि। बल्कि गांधी जी तो अकसर कहा करते थे कि रचनात्मक कार्य मुझे स्वतंत्रता के लिए संघर्ष से भी ज्यादा प्रिय है। वे मानते थे कि भारत के लोग यदि सजग, विवेकवान और आत्मनिर्भर हो जाएँ तो स्वाधीनता अपने आप आ जाएगी – उसके लिए अलग से कुछ करना नहीं होगा।
          हमारे वामपंथी गांधी जी को तो कुछ समझते ही नहीं हैं। लेकिन अगर वे अपना और देश का भला चाहते हैं, तो कम से कम इस मामले में वे गांधी जी से बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपनी हार पर वामपंथियों की मुख्य टिप्पणी यह थी कि हम इसलिए हारे, क्योंकि हम जनसाधारण से कट गए थे। अगर यह उन्होंने सिर्फ दूसरों को सुनाने के लिए नहीं कही थी, तो उन्हें जनसाधारण से जुड़ने के लिए अब पूरे पाँच वर्ष का मौका मिला है। इस अवधि का उपयोग वे अपनी-अपनी पार्टियों को सुधारने के लिए तथा राज्य की जनता में आधुनिक एवं प्रगतिशील चेतना भरने तथा उनके दुख-कष्ट दूर करने के लिए बखूबी कर सकते हैं।
          मेरे खयाल से, कम्युनिस्टों का पहला काम अपने को कम्युनिस्ट बनाने का है। हालत यह है कि कम्युनिस्ट हैं, लेकिन उनके विचारों या आचरण में उनके कम्युनिस्ट होने की कोई झलक दिखाई नहीं पड़ती। मेरा तो पक्का खयाल है, जो नेता या कार्यकर्ता 1977 के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों में आए हैं, वे ठीक से जानते भी नहीं कि साम्यवाद क्या है, उसकी मूल स्थापनाएँ क्या हैं तथा  किसी साम्यवादी को किस तरह का जीवन बिताना चाहिए। सत्ता के झोंकों  ने कम्युनिस्ट आदर्शों को कूड़े के ढेर पर फेंक दिया है। इसलिए कम्युनिस्ट पार्टियों को पाँच वर्ष की इस अवधि का उपयोग सबसे पहले अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को झाड़ने-पोंछने में करना चाहिए। बाकायदा अध्ययन कक्षाएँ चलाई जाएँ और समय-समय पर शिविर लगाए जाएँ, जैसा 1977 के पहले होता था। इस प्रक्रिया में दो बातें अपने आप होंगी – बेईमान और भ्रष्ट तत्वों की छँटाई और नए आदर्शवादी लोगों, खासकर युवाओं, की भरती।  जब तक यह नहीं होता, कम्युनिस्ट पार्टियों में नई जान नहीं आ सकती।
          लेकिन यह काम तब तक भली भाँति नहीं हो सकता जब तक कम्युनिस्ट या वामपंथी दलों के लोग जनसाधारण के दुख-कष्ट को दूर करने के लिए सक्रिय नहीं होते। जनसाधारण से जुड़ने का मतलब सिर्फ जन आंदोलन की शुरुआत करना नहीं है। यह भी उतना ही जरूरी और अहम काम है कि निरक्षरों को पढ़ाइए, समाज में प्रगतिशील चेतना का संचार कीजिए, अंधविश्वासों और रूढ़ियों से लड़िए, जहाँ-जहाँ शोषण और अत्याचार हो रहा है, वहाँ-वहाँ संगठन बनाइए और शोषितों तथा अत्याचार के शिकार लोगों को मुक्ति दिलाइए। गुंडागर्दी से लड़िए और नागरिक जीवन में निर्भयता लाइए। स्कूलों, अस्पतालों, कारखानों, दुकानों, जेलों की स्थितियों को मानवीय बनाने के लिए संघर्ष कीजिए। इस रीति-नीति पर चल कर ही आप लोग अपने को बेहतर राजनीति-कर्मी बना सकते हैं और जनता का प्रेम तथा विश्वास जीत सकते हैं। मेरा मानना है, साम्यवाद अभी भी संभावना है। अगर किसी ने उसे मरणांतक चोट पहुँचाई है तो वे साम्यवादी ही हैं। अब साम्यवादी ही संजीवनी रस की खोज कर सकते हैं और साम्यवाद को नया जीवन दे सकते हैं।  

राजनीति नई वर्दी वही


नेता की पोशाक
राजकिशोर

उत्तर प्रदेश को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी राहुल गांधी की परीक्षा भूमि माना जा रहा है। राहुल ने यह परीक्षा भूमि स्वयं चुनी है। वे राजनीति में नए हैं और राजनीति करने की उनकी अपनी शैली है। विधान सभा चुनाव के परिणाम बताएँगे कि राहुल गांधी को कितने नंबर मिलते हैं। उनके साथ ही, एक और नया राजनीतिक व्यक्तित्व इस चुनाव में महत्वपूर्ण ढंग से उतरा है। वे हैं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह के उत्तराधिकारी अखिलेश सिंह। बताया जा रहा है कि निकट भविष्य में वे एक ताकतवर नेता के रूप में उभरेंगे। कहिए तो, राहुल गांधी और अखिलेश सिंह, इन दोनों नेताओं के बीच समानता कहाँ है?
          राहुल और अखिलेश, दोनों युवा हैं। दोनों आधुनिक हैं। दोनों का पालन-पोषण एक आधुनिक वातावरण में हुआ है। सुरक्षा कारणों से राहुल की कॉलेज की पढ़ाई ज्यादा नहीं हो पाई, पर बताया जाता है, उनकी दृष्टि में नयापन है। दूसरी ओर, अखिलेश ऑस्ट्रेलिया में ऊँची पढ़ाई करके आए हैं। उनकी दृष्टि में भी नयापन है, ऐसा कहा जाता है। मुलायम सिंह एक जमाने में कंप्यूटर का विरोध करते थे। अखिलेश कंप्यूटर को आधुनिक जीवन का अनिवार्य अंग मानते हैं। दोनों युवा नेताओं के बीच कुछ और समानताएँ भी होंगी।
          यहाँ जिस समानता की चर्चा करना चाहता हूँ, वह है उनकी पोशाक। दोनों ही सफेद खादी से बना कुरता-पाजामा पहनते हैं। यह भारत में नेता की पोशाक है। भारतीय जीवन की तरह ही भारतीय राजनीति से भी धोती विदा ले रही है। गांधी खुद धोती पहनते थे। उनके साथ के कुछ और नेता भी धोती पहनते थे, जैसे राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद, कृपलानी आदि। लेकिन जवाहरलाल ने पैंट-शर्ट छोड़ी तो धोती को अपनाने के बजाय पाजामा-कुरता पहनना शुरू कर दिया। लोहिया और जयप्रकाश जैसे उस समय के युवा नेताओं ने भी कुरता-पाजामा अपनाया। नेताओं के लिए यह नई पोशाक थी और इससे आधुनिकता झलकती थी।
स्वतंत्र भारत में धोती बनी रही – अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, ज्योति बसु, नरसिंह राव आदि। लेकिन नई पीढ़ी का झुकाव या तो कुरता-पाजामा की ओर  था या फिर पैंट-कोट की तरफ। यह बंद गले का कोट एक अजीब ढंग की पोशाक है। भारत के ज्यादातर मंत्री और  नेता औपचारिक मौकों पर यही पोशाक पहनते हैं। दूसरा विकल्प है खादी का सफेद कुर्ता-पाजामा। यह भी सत्ता की पोशाक है। भले ही किसी विपक्षी नेता ने इसे पहन रखा हो, पर इससे रुआब टपकता है।
मेरे मन में सवाल उठता रहता है, राजनीति में आनेवाली युवा पीढ़ी अदबदा कर खादी के कुर्ता-पाजामे को ही क्यों चुनती है? भारत वह नहीं रहा जो था। भारत की राजनीति वह नहीं रही जो थी। फिर भी सत्ता की वही, एक पोशाक क्यों चल रही है? राहुल गांधी की मजबूरी समझ में आती है। जब गांधी जी ने कांग्रेस का नेतृत्व सँभाला, तब उन्होंने खादी को स्वाधीनता संघर्ष का एक मुख्य प्रतीक बनाया। कांग्रेस के प्रत्येक सदस्य के लिए खादी पहनना अनिवार्य कर दिया गया।  तभी से कांग्रेस की संस्कृति में खादी की केंद्रीयता बनी हुई है। हर तरह से आधुनिक बनने को व्यग्र कांग्रेस पोशाक के मामले में परंपराबद्ध बनी हुई है। 
          लेकिन अखिलेश सिंह की मजबूरी क्या है? बेशक समाजवादी कांग्रेस से ही निकले थे। वे कांग्रेस से नफरत करते थे, पर गांधी जी से प्यार करते थे। उन्होंने गांधी जी से बहुत कुछ लिया भी, जैसे सादगी का अर्थशास्त्र, अहिंसा में विश्वास और सत्याग्रह। वे भी खादी का कुरता-पाजामा ही पहनते थे। लेकिन समाजवादी परिवारों की नई पीढ़ी के सामने ऐसी कोई विवशता नहीं है। सादगी की संस्कृति में उसका विश्वास नहीं है। अहिंसा के प्रति भी वह हृदय से प्रतिबद्ध नहीं है। वह नए जमाने के चाल-चलन को अपनाए हुए है। खादी के प्रचार-प्रसार में भी उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर खादी के कुरता-पाजामे के प्रति उसका आकर्षण क्यों बना हुआ है? क्या वह राजनीति के लिए नए मुहावरों की तलाश नहीं कर सकती? अगर माध्यम ही संदेश है, तो संदेश तो लगातार बदल रहा है, फिर भी माध्यम में परिवर्तन क्यों नहीं आता?
          धोती में समस्या है। वही समस्या साड़ी में है। वे आधुनिक समय की पोशाक नहीं हो सकतीं। वैसे, गुंजाइश दोनों में है। धोती को गांधी जी की शैली में और साड़ी को महाराष्ट्रीय ढंग से, जिसमें लाँग निकाली जाती है, पहना जाए तो साइकिल, मोटरवाली या बना मोटरवाली, बाइक चलाते समय कोई दिक्कत होगी न बस में सफर करते हुए। लेकिन सार्वजनिक जीवन में यह शैली अपनाने के लिए कौन तैयार होगा? इसीलिए पैंट-शर्ट का चलन बढ़ता जा रहा है, जो पोशाक की दुनिया में  यूरोप की देन है। भारत में तो  आधुनिकता के साथ इसका रिश्ता एकदम पक्का हो चुका है। निवेदन है कि कुरता-पाजामा शैली और उपयोगिता के मामले में पैंट-शर्ट से किसी भी दृष्टि से पीछे नहीं है। इनकी सिलाई आसान है और सिलवाई भी कम लगती है।  फिर यह पैंट-शर्ट से प्रतिद्वंद्विता क्यों नहीं कर सकती?
राहुल गांधी और अखिलेश सिंह को खादी के कुरता-पाजामे में देख कर बहुत प्रसन्नता होती, अगर वे खादी और कुरता-पाजामे का प्रचार-प्रसार कर रहे होते। लेकिन खादी या उसका  अर्थशास्त्र इन दोनों में से किसी को भी पसंद नहीं है। तो फिर खादी का दिखावा क्यों? मैं तो कहूँगा, खादी की पोशाक आज के नेता के साथ विद्रूप ही करती है, क्योंकि खादी के साथ गांधी युग की यादें जुड़ी हुई हैं। इसी तरह, इन दोनों में से कोई भी युवा नेता कुरता-पाजामे का ब्रांड राजदूत नहीं बनना चाहता। सो होता यह है कि नेता तो कुरता-पाजामे में या पैंट-बंद  गले के कोट में दिखाई देता है और उसे चारों तरफ से घेरे हुए अधिकारी पैंट-शर्ट-टाई में। क्या यह दृश्य हास्यास्पद नहीं है? लेकिन जब राजनीति के हर धरातल पर द्वैध है, तो पोशाक ही इसका अपवाद कैसे हो सकती है?

संसद की प्रासंगिकता


क्या संसद एक समस्या है?
राजकिशोर

सुनने में बात बहुत बुरी लगती है और जो लोग संसदीय लोकतंत्र को मानते हैं, उनके कानों में तो यह बात जहर की तरह लगेगी। लेकिन जो चाहते हैं कि संसद सिर्फ नाम के वास्ते न रहे, बल्कि जन कल्याण की एक संस्था के रूप में काम करे, उन्हें यह कहने में संकोच नहीं हो सकता कि यह संसद एक समस्या है। संसद एक समस्या है, कहना एक बात है और यह कहना बिलकुल दूसरी बात कि यह संसद एक समस्या है। संसद एक समस्या है, यह वे कहेंगे जो संसदीय लोकतंत्र को नहीं मानते। ये फासीवादी हो सकते हैं, डिक्टेटर हो सकते हैं और कम्युनिस्ट भी हो सकते हैं। इन तीनों ही विचारधाराओं को, जिनमें से दो स्पष्ट रूप से जन विरोधी हैं और एक अपनी जनवादिता के कारण इस निष्कर्ष पर पहुँची है, बालिग मताधिकार पर आधारित तथा बहुदलवादी  जनतंत्र नहीं चाहिए, क्योंकि इससे उनके कार्यक्रम को ठेस पहुँचती है। हिटलर, मुसोलिनी, खोमैनी आयतुल्लाह तथा तमाम तरह के तानाशाह संसद से नफरत करते हैं, क्योंकि संसद की स्वतंत्रता और उसके माध्यम से होनेवाला जन प्रतिनिधित्व उनके एकाधिकारवादी शासन की इजाजत नहीं देता। इसी तरह, सोवियत संघ की संसद भी जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करती थी न चीन की संसद ऐसा करती है। सोवियत संघ की संसद में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जाते थे और चीन की संसद में भी ऐसे ही लोग जाते हैं, पर जनता को सिर्फ सरकारी दल के सदस्यों में से ही किसी को चुनने की छूट होती है। इस तरह वह जन प्रतिनिधि खुद नहीं चुनती, बल्कि जन प्रतिनिधि उस पर आरोपित कर दिया जाता है। ऐसी व्यवस्थाओं में संसद निश्चय ही एक समस्या होती है। यों भी कह सकते हैं कि इन व्यवस्थाओं में संसद अपने आपमें समस्या नहीं, बल्कि एक बड़ी समस्या – राजनीतिक व्यवस्था का जन-आधारित न होना – का अंग होती है।
          भारत में भी एक संसद हुआ करती थी, जिसे संसद नहीं, सेंट्रल असेंबली कहते थे। इसका गठन ब्रिटिश सरकार अपना क्रूर शासन चलाने के लिए करती थी। इसी असेंबली में जन विरोधी कानून पास किए जाते थे। शहीदे-आजम भगत सिंह ने इसी सेंट्रल असेंबली में बम विस्फोट किया था – बहरे कानों को सुनाने के लिए कि हिंदुस्तान अब विदेशी गुलामी को सहने के लिए तैयार नहीं है तथा एक स्वाधीन, लोकतांत्रिक और शोषणविहीन समाज चाहता है। भगत सिंह की यह आवाज सिर्फ उनकी आवाज नहीं थी, बल्कि देश भर की आवाज थी। इसीलिए ब्रिटिश शासन को कुछ ही वर्षों के बाद भारत से कूच करना पड़ा और संप्रभु भारत की अपनी संसद अस्तित्व में आई।
          जनता के मन में आजकल यह सवाल उठने लगा है कि हमारी इस संसद की उपयोगिता क्या है, क्या वह संविधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रही है, क्या उसके सदस्य संविधान के लक्ष्यों को पूरा करने में लगे हुए हैं, तो यह स्वाभाविक ही है। इस बात को फिलहाल जाने दिया जाए कि इमरजेंसी के उन्नीस महीनों में हमारी संसद ने एक बंदी संस्था की तरह आचरण किया, क्योंकि उस पर एक खास शासक की एकाधिकारवादी आकांक्षाओं का पहाड़ टूट गिरा था। उन उन्नीस महीनों को छोड़ कर हमारी संसद हमेशा स्वतंत्र और संप्रभु रही है तथा उसके चुनाव भी समय पर और नियमित रूप से होते रहे हैं। चुनावों में जो भी धाँधलियाँ होती रही हों, पैसे का जैसा भी बोलबाला रहा हो, लेकिन एक विशिष्ट और सीमित अर्थ में यह मानने में कठिनाई नहीं है कि संसद की सदस्यता उन्होंने ही हासिल की है जिन्हें चुनाव मैदान में बहुमत हासिल हुआ। बेशक यह बहुमत तकनीकी तौर पर ही बहुमत कहा जा सकता है, क्योंकि 1952 के पहले संसदीय चुनाव से  अभी तक ऐसे सांसदों की संख्या दस प्रतिशत भी नहीं होगी, जिन्हें उनके चुनाव क्षेत्र के कुल मतदाताओं के पचास प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं ने अपना मत दिया हो। फिर भी ब्रिटेन की जिस संसदीय प्रणाली का हमने अंधानुकरण किया है, उसमें मतदाताओं के वास्तविक बहुमत का समर्थन प्राप्त करना जरूरी नहीं है, इतना काफी है कि आपने अपने प्रत्येक प्रतिद्वद्वी से कुछ अधिक वोट प्राप्त किया हो। आपको एक वोट भी ज्यादा मिल गया तो आपको विजेता घोषित कर दिया जाएगा।
          इन सीमाओं के बावजूद हमारी संसद एक जन हितैषी संस्था के रूप में काम कर सकती थी और अब भी कर सकती है। वास्तव में हमारी संसद ने दर्जनों ऐसे कानून बनाए भी हैं जिनसे नागरिकों को शक्ति मिली है, उनका भला हुआ है और अन्याय का विरोध करने की उनकी शक्ति बढ़ी है। लेकिन संसद ने ही भारत सुरक्षा अधिनियम और टाडा जैसे कानून भी बनाए हैं जिनसे नागरिकों की स्वतंत्रता खंडित हुई है। संसद ने एक जमाने में जहाँ जमींदारी खत्म की थी और कोयला खानों तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, वहीं ऐसे कानून भी बनाए हैं जो सरकारी संपत्ति को प्राइवेट हाथों में सौंपने की सुविधा प्रदान करते हैं। इसी संसद ने मंडल आयोग की सिफारिशों को मान्य किया था, तो यही संसद हर साल ऐसे बजट पास करती है जिनसे महँगाई बढ़ती है और जनता की क्रयशक्ति कम होती है। इस संसद ने सूचना का अधिकार कानून पास किया, तो यही संसद लोकपाल विधेयक पास करने से इनकार कर रही है।
          इस तरह, हम यह नहीं कह सकते कि हमारी संसद ने कुछ किया ही नहीं। शिकायत यह है कि उसने बहुत कुछ ऐसा भी किया जो करने योग्य नहीं था। इससे भी बड़ी बात यह है कि उसने वह बहुत कुछ नहीं किया जो उसे, एक लोकतांत्रिक संस्था होने के कारण, करना ही चाहिए था। सरकार संसद के प्रति जिम्मेदार है, लेकिन  संसद किसके प्रति जिम्मेदार है? वह सबसे पहले देश के संविधान के प्रति जिम्मेदार है और देश की जनता के प्रति जिम्मेदार है। जनता को यह अधिकार है कि वह उसका सच्चा प्रतिनिधित्व न करनेवाले सांसदों को दुबारा संसद में न भेजे। जनता अपने इस लोकतांत्रिक अधिकार (और कर्तव्य) का प्रयोग करती भी रही है, पर उसकी समस्या यह रही है कि साँपनाथ के बदले वोट देने के लिए उसे नागनाथ ही मिलते हैं।
          संसद अगर आज सभी सोचने-विचारनेवाले लोगों को समस्या नजर आ रही है, तो इसीलिए कि वह अपना संवैधानिक कर्तव्य पूरा करने में रुचि नहीं ले रही है। संसद में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनके व्यक्तित्व पर तरह-तरह के दाग हैं। भारत की पहली संसद के कितने सदस्यों को जेल जाना पड़ा था? मौजूदा संसद के कितने सदस्य जेल जा चुके हैं? इसका मतलब यह नहीं है कि संसद ही समस्या है। वास्तव में वह संसद एक राष्ट्रीय समस्या है जो एक संसद के रूप में काम करने में विफल और असमर्थ जान पड़ती है। संसद का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन बुरी संसद का विकल्प एक अच्छी संसद है। इसलिए वास्तविक रूप से विचार का विषय यह है कि वर्तमान राजनीतिक प्रणाली और चुनाव पद्धति में ऐसे कौन-से परिवर्तन किए जाएँ जिससे ऐसी संसद बन सके जिसे जनता प्यार करती हो, जिसकी जनता इज्जत करती हो और जिससे जनता यह उम्मीद रखती हो कि वह उसके सुख-दुख की साथी होगी।