Sunday, October 24, 2010

भारत की राजनीति में परिवारवाद

राजनीति का घरेलूकरण

राजकिशोर

बातचीत का प्रसंग यह था : भारत में साठ वर्षों से लोकतंत्र है। फिर भी क्या बात है कि जिधर देखो, उधर ही नेता लोग राजनीति का घरेलूकरण कर रहे हैं। उनके बेटे-बेटियाँ राजनीति में इस तरह आ रहे हैं जैसे यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। मजे की बात है कि इनमें से ज्यादातर ने आधुनिक शिक्षा पाई है, वे सॉफ्टवेयर इंजीनियर या एमबीए हैं, लेकिन इन पेशों में वे नहीं उतरते। वे सीधे राजनीति में जाते हैं और अपने पिता का उत्तराधिकार संभालते हैं। पति जेल में है, तो उसकी जगह पर पत्नी चुनाव लड़ रही है। क्या इससे हमारी राजनीति दूषित नहीं हो रही है?

यह सुनते ही वे तैश में आ गईं। उन्होंने कहा, आप लोग पागलों की तरह बात कर रहे हैं। जब शिक्षक का बेटा शिक्षक हो सकता है, डॉक्टर का बेटा डॉक्टरी कर सकता है, आईएएस का बेटी आइएस बन सकती है, तो राजनीति में ही क्या खास बात है? बाप नेता है, तो बेटे की शिक्षा-दीक्षा राजनीतिक वातावरण में होती है। वह जन्म से ही राजनीति का कखग समझने लगता है। फिर अगर वह प्रोफेशन के तौर पर राजनीति को अपनाता है, तो इसमें हर्ज क्या है? उसका जन्म पॉलिटिशियन के परिवार में हुआ है, क्या इसलिए पॉलिटिक्स में जाने का उसका हक मारा गया? यह तो सीधे-सीधे भेदभाव है। लोकतंत्र में किसी भी वर्ग के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। नहीं तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।

उन्हें मैंने ध्यान से देखा। वे मध्य वयस की आकर्षक और आधुनिक महिला थीं। जरूर कॉन्वेंट में पढ़ी होंगी। मन हुआ, पूछूं कि आप किसी राजनीतिक परिवार से तो नहीं हैं। दोस्तों की बैठक थी। इसलिए किसी पर कटाक्ष करना उचित नहीं था।

फिर भी मुझसे रहा न गया। मैंने कहा, डॉक्टर का बेटा यूं ही डॉक्टर नहीं बन जाता। वह पांच साल तक जम कर पढ़ाई करता है। कई-कई इम्तहान पास करता है। तब जा कर उसे रोगी की नब्ज पकड़ने का अधिकार मिलता है। यही बात वकालत, इंजिनियरिंग तथा अन्य पेशों पर भी लागू होती है। इसलिए उनकी तुलना राजनीति से नहीं हो सकती। राजनीति में उतरने के लिए कोई क्वालिफिकोशन तय नहीं की गई है। इसलिए लोगों ने उसे घरेलू बिजनेस बना रखा है। बाप चाहता है कि राजनीति करते हुए उसने जो कुछ भी हासिल किया है, वह सिर्फ उसके बेटे-बेटी को मिले। यह परिवारवाद देश के लिए बहुत खतरनाक है। इससे योग्यता की पूछ घटती है और अयोग्य लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। यह लोकतंत्र नहीं है। उसमें भितरघात है।

मेरे बगल में एक प्रोफेसर बैठे हुए थे। उन्होंने बातचीत में दखल दी, क्या आप कहना चाहते हैं कि राहुल गांधी में योग्यता नहीं है? मनमोहन सिंह तथा दूसरे अनेक नेता राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं, तो क्या यह उनकी बेवकूफी है? आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि देश की जनता भी राहुल गांधी के बारे में यही सोचती है। वे जहां भी जाते हैं, लोग उनकी आरती उतारते हैं।

मुझे जवाब देने की जरूरत नहीं पड़ी। जिस घर में हम बैठे हुए थे, उसकी मालकिन ने मुसकराते हुए कहा, शुक्ला जी, मेरा ही नहीं, सभी का खयाल यह है कि राहुल गांधी की यह आवभगत इसीलिए होती है कि वे राजीव गांधी के बेटे हैं। अगर उनकी जगह हमारे बगल के वर्मा जी का बेटा होता, तो उसे कोई नहीं पूछता। उसे अपनी पार्टी का जिला सचिव होने में कई साल लगते, जबकि राहुल गांधी को राजनीति में प्रवेश करते ही कांग्रेस पार्टी का महासचिव बना दिया गया। अपनी योग्यता साबित किए बगैर ही उन्हें एमपी का टिकट दे दिया गया और पहली बार में ही वे जीत भी गए। क्या यह सामंतवाद नहीं है ?’

अब फिर उस महिला की बारी थी जो राजनीति में परिवारवाद का समर्थन कर रही थीं। उन्होंने तीखी आवाज में कहा, राजनीति सभी लोग नहीं कर सकते। यह एक विशिष्ट पेशा है। राहुल का परिवार लगातार राजनीति में रहा है। इसलिए वे दूसरों से बेहतर नेता हो सकते हैं।

यह सुनते ही बैठक में हंसी की लहर दौड़ गई। कई आवाजें एक-दूसरे से टकराईं – पेशा ! हा हा ! फिर तो डकैती भी पेशा है। हा हा ! चोरी भी पेशा है।! शायद इलाहाबाद के एक जज ने कहा था कि आजकल खादी अपराधियों की वर्दी बन गई है।

इस मजाक में सभी शामिल थे। कोने में एक सज्जन खादी का कुरता-पाजामा पहने हुए थे। कलाई पर मंहगी-सी घड़ी थी। उंगलियों में तरह-तरह की अंगूठियां भी। वे भी ठहाका लगाने लगे। बैठक में राजनीति के वर्तमान चरित्र के बारे में सर्वसम्मति दिखाई पड़ी।

मुझे लगा कि मेरा तर्क भारी पड़ रहा है। तभी दूसरे कोने में बैठे एक शरीफ-से सज्जन ने शौक फरमाया, राजनीति से लोग चाहे जितना दुखी हों, पर फैक्ट यह है कि आज के नौजवान राजनीति में आना ही नहीं चाहते। वे अमेरिका-यूरोप जाना चाहते हैं, अपने करियर पर ध्यान देना चाहते हैं, अपने-अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं। ऐसी हालत में अगर राजनीतिक परिवारों की नई पीढ़ी राजनीति में आ रही है, तो इसमें बुराई क्या है? आखिर देश को अफसरों के भरोसे तो छोड़ा नहीं जा सकता। पॉलिटिशियन्स के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता।

मैंने कनखी से देखा, उस आकर्षक और आधुनिक महिला के चेहरे की चमक कुछ बढ़ गई थी। वे हलके-हलके मुसकरा रही थीं।

मैंने हस्तक्षेप करने का फैसला किया, नौजवान राजनीति में इसलिए नहीं आना चाहते क्योंकि यह बरदाश्त की सीमा से ज्यादा गंदी हो चुकी है। इस कीचड़ में कौन भला आदमी पैर रखना चाहेगा ? आज का पढ़ा-लिखा नौजवान डीसेंट माहौल में काम करना चाहता है। राजनीति में इसके लिए कोई गुंजायश नहीं रह गई है। यह चापलूसों का बाड़ा बन गया है। यहां कोई स्वाभिमानी आदमी टिक ही नहीं सकता।

मैंने पानी का गिलास हाथ में ले कर कुछ घूंट लिए और आगे कहा, नंबर एक। नंबर दो, किसी भी दल का बॉस नहीं चाहता कि राजनीति में पढ़े-लिखे, समझदार लोग आएं और सचमुच जन सेवा करें। अगर बड़ी संख्या में बेहतर मिजाज के लोग आते हैं, तो पार्टी का कैरेक्टर ही बदल जाएगा। गंदे लोगों के हाथ से पतवार छूट जाएगी। यह किसको गवारा होगा? इसीलिए शरीफ लोग राजनीति से दस हाथ दूर ही रहते हैं।

मेरे पास की एक अपेक्षाकृत युवा महिला बहस में कूद पड़ीं। उन्होंने कहा, आखिर कोई तो बात है कि हम खेलकूद के क्षेत्र में कीर्तिमान बनाते हैं, हमारे उद्योगपति विदेशों में जा कर अपना झंडा गाड़ रहे हैं, हमारे वैज्ञानिक और डॉक्टर अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा कमा रहे हैं, पर भारत के राजनीतिज्ञों के बारे में सोचते ही हम अपनी ही निगाह में गिर जाते हैं। दूसरे क्षेत्रों में देश आगे बढ़ रहा है, पर राजनीति के क्षेत्र में पीछे भाग रहा है।

गृह स्वामी अभी तक चुप थे। शायद शिष्टाचार की मांग थी कि वे दूसरों को बोलने का ज्यादा अवसर दें। लेकिन आखिर उन्हें बोलना ही पड़ गया, दोस्तो, इसका सबसे बड़ा कारण राजनीति में परिवारवाद का बोलबाला है। सभी राजनीतिक दल गिरोह बन चुके हैं। इसलिए इन तालाबों का पानी सड़ता जा रहा है। जो ताजा खून आता है, वह पुराने खून से भी ज्यादा संक्रामक होता है। इसीलिए राजनीतिक दलों में नीति और कार्यक्रम पर कोई बहस नहीं होती। विचारवान लोगों का तो प्रवेश ही निषिद्ध है। जो समझने-बूझने वाले लोग हैं, वे अपनी इज्जत बचाने की खातिर चुप्पी साधे रहते हैं। बेटे-बेटियों के आगे विद्वान मेढ़क नजर आते हैं। इस राजनीति में साधारण लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। जब लूट-खसोट ही राजनीति का पर्याय हो चुकी हो, तो जनता के हितों के बारे में कोई क्यों सोचे? मेरा तो खयाल है, इस समय हमारे नेता लोग ही देश के विकास में सबसे ज्यादा बाधक हैं। नेताओं के कारण नहीं, बल्कि नेताओं के बावजूद देश आगे बढ़ रहा है।

जन सभा की तरह जोरदार तालियां बजीं। इनमें एक ताली मेरी भी थी। तभी उस आकर्षक और आधुनिक महिला ने लगभग चीखते हुए कहा, अगर हमारे पॉलिटियिशन्स इतने ही बुरे हैं, अगर वे सिर्फ अपने और अपने परिवार के बारे में सोचते हैं, तो जनता उन्हें वोट क्यों देती है? जाहिर है, वोट पाए बिना कोई भी नेता ज्यादा दिनों तक अपना कारबार नहीं चला सकता। उसकी फर्म डूब जाएगी।

इसका उत्तर आया मेरे पास की उस अपेक्षाकृत युवा महिला की ओर से, मैडम, जनता इन ललमुंहों को वोट देने के लिए मजबूर है, क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है। जब भी कोई साफ-सुधरा विकल्प सामने आता है, जनता उसकी ओर ऐसे लपकती है जैसे बच्चा मां की ओर। पर उसकी भूख नहीं मिटती। नया विकल्प जल्द ही बासी पड़ जाता है। दरअसल, सच्चा और टिकाऊ विकल्प तब तक नहीं पैदा हो सकता जब तक राजनीति रेडिकल सुधार नहीं आता।

बीच की बड़ी मेज पर पकौड़ियों, नमकीन और काजू के साथ-साथ कांच के पतले खूबसूरत गिलास लग चुके थे। फिर बोतलें भी आ लगीं।

तभी गृहस्वामी का आठ साल का बच्चा दौड़ते हुए आया और सभी की ओर देखते हुए बोला, हल्ला-गुल्ला बंद करो। अपना ग्लास खाली करो।

हम मध्य वर्ग के अनुशासन-प्रिय लोग थे। हमने हल्ला-गुल्ला बंद कर दिया और चियर्स कहते हुए अपना-अपना गिलास उठा लिया। 000

Sunday, October 17, 2010

आधी शुद्ध आधा बेशुद्ध

राजकिशोर

एक लड़का था। मध्य वर्ग में भी जो मध्य वर्ग होता है, उसी वर्ग का। जब वह बड़ा होने लगा, तो अंग्रेजी माध्यम के एक नजदीकी स्कूल में उसका दाखिला करा दिया गया। स्कूल में फीस तगड़ी ली जाती थी, पर वह सांस्कृतिक मुफलिसी का शिकार था। वहां न अंग्रेजी अच्छी पढ़ाई जाती थी न हिन्दी। लड़के में प्रतिभा थी। एक शाम, जब नीम के पत्ते गिरने लगे और मन की उदासी बढ़ने लगी, उसकी कवि-प्रतिभा फूट पड़ी। उसने एक छोटी-सी कविता लिखी -

कितने अच्छे हैं मेरे पेरेंट्स

उन्होंने दिया मुझे बर्थ

मुसकाया स्काइ नाच उठी अर्थ

नाउ आइ एम टेन एंड वन

अपने पेरेंट्स का प्राउड सन

वे हैं मेरे बेस्ट फ्रेंड्स

जानते हैं लेटेस्ट ट्रेंड्स

उनकी कृपा से एव्रीथिंग आइ गॉट

जब मैं पूरा ग्रो कर जाऊंगा

आइ विल अर्न ए लॉट

अपनी कविता को कॉपी पर सजावटी अक्षरों में उतार कर वह सातवें आसमान की ओर उड़ चला। रात भर आधा सोता आधा जागता रहा। अगले दिन उसने अपनी अंग्रेजी शिक्षिका को अपनी कविता दिखाई। वह हंसने लगी। फिर संजीदा हो कर बोली, - बेटे, तुम्हें पूरी पोएम इंग्लिश में ही राइट करनी चाहिए थी। शिक्षिका ने पहली पंक्ति को इस तरह सुधारा - हाउ ग्रेट आर माइ पेरेंट्स और लड़के से कहा, बाकी तुम देख लेना। वहां से निराश हो कर लड़का हिन्दी शिक्षक के पास गया। वह भी हंसने लगा। बोला, अटेम्प्ट तो अच्छा है, पर तुम्हें पूरी कविता को हिन्दी में ही कंपोज करना चाहिए था।। हिन्दी शिक्षक ने पहली पंक्ति को इस तरह सुधारा - कितने भले हैं मेरे माता-पिता ।

वहां से भी दुखी हो कर लड़का टिफिन की घंटी के बाद ही, पेट दर्द का बहाना कर, घर लौट आया। अब वह अपनी कविता को कभी पूरी अंग्रेजी में तो कभी पूरी हिन्दी में लिखने की कोशिश करने लगा। लेकिन सब बेकार। अंत में उसने पाया कि न उसकी अंग्रेजी इतनी अच्छी है कि वह अपनी कविता को पूरी तरह अंग्रेजी में लिख सके, न उसकी हिन्दी इतनी अच्छी है कि वह उसे पूरी तरह हिन्दी में लिख सके। थक कर वह उस रात बिना खाए ही सो गया। अगले कई महीनों तक उसने कोई कविता नहीं लिखी।

जिस हिंग्लिश को बातचीत की भाषा के स्तर पर स्वीकार करने की तर्क-सम्मत-सी दिखती हुई वकालत सुरेश कुमार ने (जनसत्ता, 10 अक्टूबर 2010) की है, उसका एक नतीजा यही होने वाला है। यह सिर्फ मेरी कल्पना नहीं है, सुरेश जी भी संजीदा हो कर भविष्य की कल्पना करेंगे, तो उनके हाथ भी यही लगेगा। मैं जानता हूं कि वे भाषा के मामले में सक्षम और सुरुचि-संपन्न व्यक्ति हैं, तभी इतनी प्रांजल भाषा में उन्होंने यह टिप्पणी लिखी है। वे हिंग्लिश के बढ़ते हुए असर से खुद भी चिंतित हैं। वे बहुत साफ-साफ कहते हैं, 'हां, यह ठीक है कि हिंग्लिश की यह वकालत आधा सच है। बाकी आधा सच नकारात्मक ही है। शिक्षा विशारदों के अनुसार यह सामान्यतया "हिन्दी पर अधिकार, न अंग्रेजी पर अधिकार" की स्थिति है। इसे शिक्षा-व्यवस्था का अंग नहीं बनाया जा सकता - ऐसी हिन्दी सीखने-सिखाने का आदर्श नहीं बन सकती।' फिर भी, उनकी मान्यता यह है कि 'जिस प्रकार समाज में प्रचलित व्यवहारों में कुछ ही अनुकरणीय होते हैं, शेष अन्य को हम बर्दाश्त करते हैं, इस प्रकार हिंग्लिंश को भी हम बर्दाश्त करेंगे, करना पड़ेगा, पर उसके अनुकरण को भाषा सौष्ठव की दृष्टि से सब प्रयोजनों के लिए संस्थागत आधार पर प्रोत्साहित न करना ही उचित होगा।'

जाहिर है, सुरेश कुमार के इरादे में कोई खोट नहीं है। वे हिन्दी के शुभचिंतक हैं। वे उन लोगों के भी शुभचिंतक हैं जो परिस्थितिवश हिंग्लिश का प्रयोग कर रहे हैं। इस दुहरी प्रतिबद्धता की वजह से ही वे एक क्षेत्र हिन्दी को देते हैं जहां कोई भी समझौता उन्हें मंजूर नहीं है और एक क्षेत्र हिंग्लिश को, जहां कोई भी समझौता मान्य है। अगर सुरेश कुमार इस उदाहरण का आनंद ले सकें, तो मैं कहना चाहूंगा कि यह बंटवारा कुछ-कुछ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले की तरह है जिसे मान लेने पर विवादग्रस्त भूमि पर न मंदिर बन सकेगा न मस्जिद खड़ी की जा सकेगी। कई बार समाज न्यायालय से अधिक बुद्धिमान होता है। हिन्दी के इसी समाज का आग्रह है कि अगर बीस करोड़ लोगों की इस भाषा ने इस रपटीली राह पर चलना स्वीकार कर लिया, तो अंततः वह खत्म हो जाएगी, उसकी गिनती क्रियोल भाषाओं में होने लगेगी, जिसका मतलब यह है कि वह न इधर की रहेगी न उधर की, और शायर कहेंगे, सुनते हैं कि हिन्दी भी थी अच्छी-सी इक जुबान

मुद्दा साधु भाषा और जन भाषा का नहीं है। दोनों में हमेशा अंतर रहा है। मुद्दा सिद्धांत और व्यवहार का भी नहीं है। दोनों में फर्क जितना ज्यादा हो, जीवन उतना ही प्रदूषित होता है। मुद्दा यह है : क्या यह संभव है कि शिक्षित समाज में कुछ लोग हिन्दी लिखते और बोलते रहें तथा कुछ लोग हिंग्लिश का प्रयोग करते रहें ? द्वंद्व का यह दौर पढ़े-लिखों और कम या गैर-पढ़े-लिखों के बीच नहीं, बल्कि पढ़े-लिखों और पढ़े-लिखों के बीच है। यही, एक ही, वर्ग हिंग्लिश का जनक है। इस वर्ग की झूठी तारीफ में 'द्विभाषी संस्कृति' नामक एक विचित्र चीज की कल्पना की गई है। मैं नहीं जानता कि यह चिड़िया देश के किस भाग में पाई जाती है। अशोक वाजपेयी और कृष्ण कुमार जैसे विशिष्ट अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो जो लोग मुख्यतः अंग्रेजी में काम करते हैं, उनकी हिन्दी हांफती रहती है और जो मुख्यतः हिन्दी में काम करते हैं, उनकी अंग्रेजी को हिचकी आती रहती है। क्या हम उस दौर की असहाय प्रतीक्षा करते रहें जब हिन्दी 'द्विभाषी संस्कृति' की नकली आभा से चमकने लगेगी और अंत में खोटा सिक्का असली सिक्के को बाजार से बाहर कर देगा?

सुरेश कुमार व्यावहारिक समस्याओं का हल निकालने के लिए यह व्यावहारिक सुझाव देते हैं, 'अगर हम पाठ्य पुस्तकों की हिन्दी में विशिष्ट तकनीकी शब्दावली अंग्रेजी में (रोमन लिपि का प्रयोग करते हुए) रखें और सामान्य शब्दावली (बहुप्रचलित तकनीकी शब्दों के साथ) और वाक्य रचना हिन्दी में ही रहे तो क्या हमारे प्रशिक्षुओं का ज्ञान, व्यवहार की दृष्टि से अधिक कार्यसाधक न होगा? ... बोलें 'ग्लोबल वार्मिंग' और पढ़े-लिखें 'वैश्विक तापमान वृद्धि' तो क्या उनकी उलझन और बोझ नहीं बढ़ेंगे?' बढ़ेंगे, जरूर बढ़ेंगे। लेकिन यह बढ़ना वैसा ही होगा जैसे पहले तो किसी की टांग तोड़ दी जाए और जब डॉक्टर उसके लिए बैसाखी बनाने लगे, तो शिकायत की जाए कि इससे उस आदमी की उलझन और बोझ नहीं बढ़ेंगे? बेशक टूटे हुए पैरों को बैसाखी अच्छी लगती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बैसाखी का प्रचलन बढ़ाने के लिए लोगों की टांगें तोड़ना शुरू कर दिया जाए। फिर तो बाजार में बैसाखी ही बैसाखी दिखने लगेगी। अंत में बैसाखी उद्योग के हित में यह राष्ट्रीय नीति बनाई जाएगी कि जन्म लेते ही बच्चों के दोनों पैर काट दिए जाएं।

जाहिर है, सुरेश कुमार जैसे सुधी लोग इस दृश्य की कल्पना कर कांप उठेंगे। लेकिन हिंग्लिश को थोड़ी भी मान्यता मिल गई, तो वह बीस-तीस साल में ही हिन्दी को चट कर जाएगी। भाषा पहले बोली जाती है, फिर लिखी जाती है। लिखे जाने पर उसके मानक रूप स्थिर होते हैं। इसी मानक रूप से भाषा का विकास होता है। उसमें साहित्य और दर्शन की सृष्टि होती है। जब बोली जाने वाली भाषा आक्रामक रूप से अशुद्ध होने लगती है, तब समाज में शुद्ध भाषा की रक्षा वैसे ही की जाती है जैसे संस्कृत भाषा की रक्षा की गई है - उसके हाथ-पांव बांध कर। इसी प्रक्रिया में संस्कृत जानने वालों की संख्या कम होती गई और अब वह पोथियों में ही मिलती है। हिंग्लिशीकरण के बाद भी हिन्दी रहेगी, क्यों नहीं रहेगी, पर कुछ किताबों तक महदूद हो कर।

अंग्रेजी राज में हिंग्लिश की शुरुआत नहीं हुई, जब इसकी गुंजायश बहुत ज्यादा थी। यह शुरुआत आजादी के कई दशकों के बाद हुई, क्योंकि भारत का शासक वर्ग हिन्दी सीखने और उसका प्रयोग करने के लिए राजी नहीं था। यही दुर्दशा अन्य भारतीय भाषाओं की भी हुई। वे साधन-संपन्न लोगों द्वारा मजा लेने के लिए नौकरानियों से पैदा हुई संतानें हो गईं। अगर शुरू से ही भाषा नीति और शिक्षा नीति को आमूलचूल बदल कर उनका भारतीयकरण करने का व्यवस्थित प्रयास किया गया होता, तो आज हिन्दी के शिक्षित समाज में 'ग्लोबल वार्मिंग' जैसे शब्द नहीं सुने जाते। आखिर कोई तो बात होगी कि भारत के दस बड़े फिल्मी सितारों, दस बड़े खिलाड़ियों, दस बड़े उद्योगपतियों और दस बड़े मीडिया व्यक्तित्वों में आधे भी ऐसे नहीं हैं जो अपनी मातृभाषा में दस शुद्ध वाक्य बोल या लिख सकें। यही वे डॉक्टर बंधु हैं जो पहले आदमी की टांग तोड़ते हैं और फिर कहते हैं, बैसाखी का इस्तेमाल करने में बुराई क्या है; देखो, हम भी तो बैसाखी पर ही चल रहे हैं। 000

Monday, October 11, 2010

दलित राजनीति का नया चेहरा

दलितों का अंग्रेजी प्रेम

राजकिशोर

मैं अगर दलित होता, तो इस विषय पर लिखना मेरे लिए ज्यादा उचित होता। बेशक दलित मैं होना चाहता हूं, ताकि देश के इस सर्वाधिक वंचित और अपमानित समूह के लिए कुछ काम कर सकूं। लेकिन भारत की जाति व्यवस्था ऐसी है कि न कोई अपनी जाति निर्धारित कर सकता है और न अपनी जाति बदल सकता है। फिर भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूं और अधिकार भी कि इस विषय में अपने विचार रख सकूं कि दलितों की भलाई किसमें है। इस तरह के हस्तक्षेप दलित विचारकों को अच्छे नहीं लगते, यह जानते हुए भी मैं अपनी बात कहना चाहता हूं, क्योंकि यह मानने से मेरा सीधा इनकार है कि सिर्फ दलित ही दलितों के शुभचिंतक हो सकते हैं। उलटे मेरा मानना है कि दलित विचारक दलितों को गुमराह भी कर सकते हैं, जैसे सवर्ण विचारक सवर्णों को और पिछड़ावादी विचारक पिछड़ों को या हिन्दूवादी हिन्दुओं को और मुसलमान नेता मुसलमानों को गुमराह कर सकते हैं।

खबर यह है कि उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में अंग्रेजी देवी का मंदिर बनाया जा रहा है। इस मंदिर के लिए अंग्रेजी देवी की जो मूर्ति तैयार की गई है, उसकी शक्ल अमेरिका की स्टैट्यू ऑफ लिबर्टी से बहुत मिलती है। मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा 25 अक्टूबर को होना है। यह लॉर्ड मेकाले का जन्मदिन है। मैकाले को भारत में ब्रिटिश पद्धति की शिक्षा प्रणाली शुरू करने और अंग्रेजी का चलन बढ़ाने के लिए जाना जाता है। इसी आधार पर स्वतंत्र भारत के अंग्रेजीपरस्त वर्ग को मेकाले की मानस संतान कहा जाता है। अंग्रेजी देवी की स्थापना का उद्देश्य दलितों को यह संदेश देना है कि अंग्रेजी को अपनाने से ही उनका कल्याण हो सकता है।

दरअसल, यह पूरा कार्यक्रम दलित बुद्धिजीवी चंद्रभान प्रसाद की वैचारिक देन है जो कई वर्षों से मेकाले का जन्न दिवस मनाते आ रहे हैं। कई अन्य दलित बुद्धिजीवियों की तरह चंद्रभान प्रसाद मानते हैं कि एक समूह के रूप में दलितों को राजनीतिक मान्यता देने तथा उनके कल्याण के लिए निश्चित कदम उठाने का श्रेय भारत में अंग्रेजी शासन को ही है। चंद्रभान की यह उक्ति याद रखने लायक है कि अंग्रेज भारत में देर से आए और जल्दी चले गए। खुद डॉ. अंबेडकर का अंग्रेजों से कहना था कि दलित समस्या को सुलझाए बगैर आप भारत नहीं छोड़ सकते। अंग्रेज तो चले गए -- भारत की किसी भी समस्या को सुलझाए बिना, क्योंकि वे भारत का शोषण करने के लिए यहां आए थे न कि भारत कि समस्याओं को सुलझाने के लिए, पर अंग्रेजी फल-फूल रही है। अंग्रेजी ही भारत के प्रभु वर्ग की भाषा है। जैसे-जैसे इस प्रभु वर्ग भारत पर अपना कब्जा मजबूत कर रहा है और साधारण लोगों को और भी ज्यादा हाशिए पर धकेल रहा है, अंग्रेजी का पलड़ा भारी होता जाता है।

ऐसी स्थिति में, स्वाभाविक है कि अंग्रेजी को उन्नति की सीढ़ी मान लिया जाए। समाज के सभी हिस्से ऐसा ही मान कर चल रहे हैं, तो दलितों में यह भावना आना स्वाभाविक है। चंद्रभान प्रसाद इसी भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंग्रेजी ज्ञान से वे स्वयं भी लाभान्वित हुए हैं। जहां अधिकांश दलित लेखक, विचारक और कार्यकर्ता अपने-अपने राज्य तक सीमित हैं या भारत की सीमाओं को पार नहीं कर पाए हैं, वहीं चंद्रभान ने अपना अंतरराष्ट्रीयकरण कर लिया है। बताते हैं कि 30 अप्रैल को जब अंग्रेजी माता के मंदिर का शिलान्यास हुआ था, इस अवसर पर दो विदेशी पत्रकार भी आए थे।

दलित उभार में अंग्रेजी के उपयोग की निश्चित भूमिका है। अगर डॉ. अंबेडकर ने दलित प्रश्न को उठाने के लिए अंग्रेजी का उपयोग नहीं किया होता, तो उनकी आवाज में दम नहीं आ पाता। आज भी जो अंग्रेजी में अपनी बात नहीं रख पाते, उनकी कोई सुनता नहीं है। हालांकि इसके विपरीत उदाहरण भी हैं। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, मायावती, नीतीश कुमार आदि नेताओं को अंग्रेजी बहुत कम आती है, फिर भी उनकी गिनती सफल नेताओं में होती है। बस यह है कि सभी के लिए यह रास्ता खुला नहीं है। इसके अलावा, इस रास्ते से मुट्ठी भर लोग ही प्रभु वर्ग के सदस्य बन सकते हैं, साधारण जनता नहीं जिसका प्रतिनिधित्व करने का वे दम भरते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि क्या अंग्रेजी के आधार पर देश का निर्माण किया जा सकता है ? दुनिया में कोई भी ऐसा देश ऐसा नहीं है जिसने विदेशी भाषा में अपना निर्माण या पुनर्निर्माण किया हो। फिर भारत अपवाद कैसे हो सकता है? हमारा खयाल तो यही है कि यदि स्वतंत्र होते ही भारत के सार्वजनिक जीवन से अंग्रेजी को हटा दिया जाता तथा प्रशासन, शिक्षा, न्याय आदि का काम देशी भाषाओं में शुरू कर दिया गया होता, तो भारत आज एक विकासमान नहीं, विकसित देश होता।

अंग्रेजी-प्रेमी दलित विचारकों को, ऐसा लगता है, भारत के समग्र विकास में कोई रुचि नहीं है। उनकी दिलचस्पी सिर्फ दलितों के सशक्तीकरण में है। वे देखते हैं कि अंग्रेजी की महफिल में घुसने के बाद भारत का आदमी तेजी से तरक्की करने लगता है, इसलिए उन्हें लगता है कि दलितों की उन्नति का सच्चा रास्ता यही है। इस संदर्भ में निवेदन है कि यह रास्ता देश के सभी दलितों को कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकता। चंद्रभान प्रसाद ही बताएं कि उनके बचपन के संगी-साथियों में कितने लोग अंग्रेजी में दक्षता हासिल कर सके हैं। वर्तमान व्यवस्था में मुट्ठी भर लोग ही और फलस्वरूप मुट्ठी भर दलित ही अंग्रेजी का फायदा उठाने की स्थिति में आ सकते हैं। साधारण लोगों के हित में तो यही है कि देशी भाषाएं अंग्रेजी को अपदस्थ कर दें। ऐसा करने पर हमारा लोकतंत्र भी मजबूत होगाऔर वंचित लोग भी न्याय पाने या न्याय छीनने में सफल हो सकते हैं।

Sunday, October 10, 2010

कश्मीर समस्या की जड़ें

‘आतिशे-चिनार’ के आईने में कश्मीर
राजकिशोर


कश्मीर एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। यह दुर्भाग्य की बात है कि कश्मीर जब अपेक्षाकृत शांत रहता है, तब उस पर न तो बातचीत की जाती है और न लेख लिखे जाते हैं। जब कश्मीर का तापमान बढ़ता है, तब सभी चिंतित होने लगते हैं। इसी समय कश्मीर के आंदोलनकारियों को बातचीत का निमंत्रण भी दिया जाने लगता है। जैसे ही तनाव कुछ कम होता है, कश्मीर के प्रति पुरानी उदासीनता लौट आती है। यह भारतीय राजनीति का वही दमकलवाद है, जिसके फलस्वरूप देश की कोई भी बड़ी समस्या हल नहीं हो पा रही है।

कश्मीर की समस्या को समझने के लिए सबसे पहले कश्मीरी मुसलमानों की मनस्थिति को समझने की जरूरत है। इसके लिए इतिहास में जाना पड़ेगा। जम्मू और कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला ने, जिन्होंने लंबे जन संघर्ष के द्वारा प्रतिक्रियावादी डोगरा शासन से कश्मीर को मुक्त कराया और भारत में कश्मीर के विलय को संभव किया, अपनी आत्मकथा ‘आतिशे चिनार’ में कश्मीर के इतिहास की ऐसी बहुत-सी बातों का जिक्र किया है जिनसे कश्मीर की पीड़ा और क्षोभ को महसूस किया जा सकता है। हाल ही में मुझे इस महत्वपूर्ण पुस्तक का सारांश पढ़ने को मिला। यह सारांश मुहम्मद शीस खान ने तैयार किया है। यह वही शीस खान हैं जिन्होंने विचार और साहित्य के क्षेत्र में इकबाल के ऐतिहासिक योगदान से हिन्दी जगत को परिचित कराया है। पहले इन्होंने इकबाल की महत्वपूर्ण कृति ‘इस्लाम में धार्मिक चिंतन की पुनर्रचना’ का अत्यंत परिष्कृत अनुवाद किया, फिर उनके फारसी महाकाव्य ‘जावेदनामा’ का। उन्हीं के साक्ष्य से शेख अब्दुल्ला की कुछ टिप्पणियों को यहां पेश किया जा रहा है।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि कश्मीर के दमन का सिलसिला अकबर द ग्रेट के समय में ही शुरू हो गया था। अकबर ने एक फरमार के जरिए कश्मीरियों को हथियार बांधने से मना कर दिया। इस फरमान का उद्देश्य यही था कि कश्मीरी अपनी खोई हुई आजादी को प्राप्त करने की चेष्टा न करें। कश्मीर के परवर्ती शासकों – पठानों, सिखों और डोगरों – सभी ने अकबर के इस फरमान को जारी रखा। कश्मीरियों की निरुपायता की यह प्रक्रिया विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए डोगरा शासन में अमानवीयता की सीमा छूने लगी। डोगरों ने कश्मीर को अपने बाहुबल से हासिल नहीं किया था , बल्कि अमृतसर संधि के तहत खरीदा था, अतः वे निवेशित पूंजी को ब्याज सहित जल्दी से जल्दी वसूल करना चाहते थे। शाल बुनकरों के किसी और धंधे में जाने की मनाही कर दी गई। साथ ही, डोगरा शासकों ने अनेक कानूनी बारीकियों एवं विधानों द्वारा कश्मीरी मुसलमानों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर पाबंदियां लगा दीं। शिक्षा की तरह नौकरियों के द्वार भी मुसलमानों के लिए बंद थे। उच्च शिक्षा के लिए उन्हें लाहौर और अलीगढ़ की राह नापनी पड़ती थी। खुद शेख अब्दुल्ला को पहले लाहौर, फिर अलीगढ़ जाना पड़ा था। कश्मीर के कॉलेजों के दरवाजे उनके लिए बंद थे।

शेख अब्दुल्ला ने अपने सामंतवाद विरोधी आंदोलन के जरिए धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की स्थापना भी की। शेख साहब लिखते हैं, ‘हमारे आंदोलन का दायरा पहले तो मुसलमानों तक सीमित रहा। लेकिन जब आंदोलन के दरवाजे सब धर्मों के लिए खोल दिए गए तो एक संयुक्त मोर्चे की आवश्यकता महसूस हुई। यह मात्र धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक कोटि की ही हो सकता था। जीवन और आंदोलन के अनुभव ने हमें कायल कर दिया था कि अवाम के विभिन्न वर्गों में बुनियादी टकराव धर्मों का नहीं, बल्कि हितों का है। एक तरफ शोषण करने वाले थे और दूसरी तरफ वह जो शोषण का शिकार थे। हमारी लड़ाई की मंशा व मकसद मजलूम की हिमायत और जालिम की मुखालफत था।’ इसी वजह से मुस्लिम कांफ्रेंस का विस्तार कर उसे नेशनल कांफ्रेंस बना दिया गया। यही कश्मीर आंदोलन आज एक आतंकवादी-अलगाववादी संघर्ष में बदल गया है, तो इसके कारणों पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।

जब पाकिस्तान की शह पर कबायलियों ने कश्मीर पर हमला किया और शेख तथा उनके अनुयायी बहादुरी से उनका मुकाबला कर रहे थे, उस कठिन समय में महाराजा हरी सिंह ने क्या किया ? शीस खान अपने सारांश में लिखते हैं, ‘महाराज हरी सिंह का हीरे-जवाहरात से लद-फंद कर सौ से अधिक मोटरगाड़ियों के काफिले के साथ सपरिवार जम्मू भाग जाना, अपनी कश्मीरी प्रजा को विपत्ति के समय उसके हाल पर छोड़ देना, महाराजा और महारानी तारा देवी का जम्मू के उग्रवादियों को वहां के मुसलमानों के कत्ले-आम के लिए भड़काना, पाकिस्तान भेजने के झांसे से मुसलमानों को एक पार्क में इकट्ठा करवा कर , उसके बाद उन्हें एक ट्क में भर कर एक पहाड़ी के पास उतरवा कर मशीनगनों से उड़ा देना जैसी घटनाएं शेख अब्दुल्ला और उनके आंदोलन को झुलसाने के लिए काफी थीं।’

शेख साहब का कहना है कि 1953 से फरवरी 1964 तक उन्हें अकारण जेल में सड़ाने और उनकी अवामी नेतृत्व शक्ति को बर्दाश्त न कर सकने की पृष्ठभूमि में पं. नेहरू का दोहरा व्यक्तित्व था जो उनकी ग्रेटर इंडिया की परिकल्पना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीच दंगल का अखाड़ा बना रहा। वह दोस्तबाजी में अतिवाद की सीमा तक जा सकते थे, किंतु केवल उस स्थिति में जब उन्हें अपने राष्ट्र और अपने व्यक्तिगत हितों पर आंच लगती न मालूम होती थी। वह अपने अंतिम दिनों में अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने की बड़ी अभिलाषा रखते थे। उन्होंने 1964 में शेख की रिहाई के बाद अपने रंज और पछतावे की अभिव्यक्ति की। वे सच्चे दिल से कश्मीर की गुत्थी सुलझाने के लिए शेख की मदद हासिल करना चाहते थे। लेकिन इसके पहले ही मौत ने हस्तक्षेप कर दिया और उनकी दिल ही रह में रह गई। दुर्भाग्य यह है कि नेहरू के चले जाने के बाद भारत की किसी भी सत्ता ने कश्मीर समस्या को सुलझाने की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की। फलतः कश्मीर समस्या में नए-नए पेंच जुड़ते चले गए।

एक बार तो सरदार पटेल ने शेख अब्दुल्ला से यहां तक कह दिया, ‘बेहतर यही है कि हम एक-दूसरे से अलग हो जाएं।’ इस पर शेख साहब का जवाब था, ‘कश्मीर के लोगों ने आपके साथ उद्देश्य की समकक्षता के आधार पर हाथ मिलाया है। आप अब अपना हाथ खींच लेना चाहते हैं, तो आपका अधिकार है। लेकिन हमने आपसे व्यक्तिगत तौर पर हाथ नहीं मिलाया, बल्कि हिंदुस्तानी अवाम के साथ रिश्ता जोड़ा है। यह सवाल उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। हम भी अपना केस उनके सामने रखेंगे। आप भी अपना दृष्टिकोण उनके सामने रखिए। जो उनका फैसला होगा, वह हमें मंजूर होगा।’ 000