Wednesday, June 24, 2009

माओवादियों पर पाबंदी

लालगढ़ के बाद क्या


लालगढ़ को सशस्त्र बल द्वारा मुक्त कराना मेरी एक पुरानी धारणा की पुष्टि करता है। बहुत दिनों से मुझे यह लग रहा है कि अगर देश के भीतर कोई क्षेत्र मुक्तांचल बन जाता है, जहां पुलिस की चलती है प्रशासन की, तो इसका मुख्य कारण यह है कि राज्य और केंद्र सरकारें उस क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहतीं। यह मुक्तांचल चाहें नक्सलवादियों द्वारा स्थापित किया गया हो, चाहे गुंडा तंत्र द्वारा अथवा किसी डकैत गिरोह द्वारा। राज्य चाहे तो ऐसे किसी भी क्षेत्र को दो-चार दिनों से ले कर महीने-दो महीने तक की गंभीर कार्रवाई में भारतीय संविधान के दायरे में ला सकता है। इस धारणा के समर्थन में सबसे पहले वीरप्पन का नाम लिया जाना चाहिए, जो लंबे समय तक कर्नाटक और तमिलनाडु के जंगलों में बिना किसी चुनौती के अपना राज चलाता रहा। जब उसकी उपस्थिति राज्य के लिए सचमुच असह्य हो गई, तो उसे मारने में महीना भर भी नहीं लगा। हाल में हुई इस तरह की घटना चित्रकूट में बहुत समय से मनमानी कर रहे डाकू घनश्याम केवट को घेर कर उसका एनकउंटर है। केवट वीरप्पन जैसा महाबली नहीं था। फिर भी उसे तब तक बरदाश्त किया जाता रहै जब तक राज्य सरकार के लिए वह असह्य नहीं हो गया। चाहे जिस कारण से भी हो, लालगढ़ की स्वायत्तता के तब तक सहन किया गया जब तक यह राजनीतिक नजरिए से ठीक था। जब मामला जीरो टॉलरेंस के दायरे में गया, तब राज्य सरकार ने केंद्रीय बलों की सहायता से कई दिनों में ही वारा-न्यारा कर दिया।

सवाल लाजिम है कि सरकारों में हिंसा और आतंकवाद द्वारा स्थापित मुक्तांचलों के प्रति यह उदासीनता क्यों देखी जाती है। जब कुछ सौ प्रदर्शनकारी अपनी लोकतांत्रिक मांगों के समर्थन में छोटा-मोटा जुलूस निकालते हैं, तो यह राज्य को अपने लिए एक बड़ी चुनौती प्रतीत होती है और क्रूर दमन का फैसला करते हुए उसे कुछ मिनट भी नहीं लगते। वरुण गांधी जैसा छोटा-मोटा और नया-नया खिलाड़ी जब कुछ उत्तेजक भाषण देता है, तो राज्य सरकार को वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक लगने लगता है। बताते हैं कि देश का एक उल्लेखनीय हिस्सा नक्सलवादी प्रभाव में है। पर इस प्रभाव को खत्म करने के लिए तो राज्य सरकारें परेशान हैं और केंद्र सरकार। माजरा क्या है?

माजरा यह है कि ये सभी इलाकें भारतीय राज्य के लिए फालतू इलाके हैं जहां से तो कुछ राजस्व मिलता है और इससे कुछ फर्क पड़ता है कि इन इलाकों पर किसका कब्जा है। ये इलाके दरअसल राज्य के लिए एक बोझ हैं, क्योंकि वहां की जावन स्थितियों को बेहतर करने के लिए राज्य को सिर्फ खर्च ही खर्च करना है। जो गाय दूध नहीं देती, उसे फालतू में एक्स्ट्रा चारा खिलाते रहने में कौन-सी बुद्धिमानी है? इसलिए राज्य का नजरिया यह रहा है कि यहां चाहे जिसका राज हो, हमें क्या मतलब? राज्य तब थोड़ी-बहुत कार्रवाई करने के लिए विवश हो जाता है जब हिंसा की चिनगारियां उसके खास लोगों तक पहुंचने लगती हैं। लालगढ़ भी ऐसा ही इलाका है, जहां भूख और वस्त्रहीनता का स्थायी वातावरण रहा है। जब लालगढ़ की चिनगारियां दूर तक पहुंचीं और प. बंगाल के मुख्यमंत्री और एक केंद्रीय मंत्री को बारूदी सुरंगों के ऊपर से गुजरना पड़ा, तब कुछ करना जरूरी हो गया। लालगढ़ की एक खूबी यह भी थी कि वहां मार्क्सवाद की ही एक और धारा प्रभावशाली होने लगी थी और सवाल यह पैदा हो गया था कि आज लालगढ़ तो कल बंगालगढ़। यह ओम (ऑफिशियल मार्क्सवाद) को कैसे बर्दाश्त हो सकता था?

लालगढ़ के बाद उचित कदम यह था कि देश के अन्य नक्सल-प्रभावित इलाकों को भी आजाद कराने का उपक्रम शुरू कर दिया जाता। छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और बिहार की सरकारें, अपनी-अपनी बुद्धि और आवश्यकता के अनुसार इस दिशा में कोशिश करती रही हैं। इस कोशिश के चलते आंध्र प्रदेश सरकार को थोड़ी शाबाशी मिली है, छत्तीसगढ़ सरकार को काफी बदनामी झेलनी पड़ी है और बिहार सरकार के बारे में कोई धारणा नहीं बनाई जा सकी है, क्योंकि वहां नक्सलवाद का दमन अभी शैशवावस्था में है। उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड, मध्य प्रदेश आदि की सरकारें अभी भी उदासीनता के उसकी स्टेज में हैं जिसका जिक्र उपर किया गया है। यह केंद्र सरकार का राजनैतिक और नैतिक, दोनों प्रकार का कर्तव्य था कि वह देश भर में राजनीतिक चेतना जाग्रत कर और प्रभावित राज्यों की सरकारों से संवाद कर एक बृहत कार्रवाई प्रारंभ कर देती। राष्ट्रपति जी ने मनमोहन सिंह की इस सरकार की प्राथमिकताओं की घोषणा करते हुए पहले सौ दिनों का जो कार्यक्रम बताया था, उसमें नक्सलवाद की चुनौती का सामना करना भी था।

लालगढ़ में केंद्र सरकार की सशस्त्र कार्रवाई की सफाई देते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बताया कि प. बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को केंद्रीय बलों की मांग के लिए पत्र लिखे जाने पर अर्धसैनिक बलों को रवाना किया गया। तो क्या जब तक कोई राज्य सरकार नक्सलवाद का सफाया करने के लिए केंद्र से अर्धसैनिक सहयोग नहीं मांगेगी, तब तक केंद्र इस समस्या से मुंह मोड़े रहेगा? क्या नक्सल-प्रभावित इलाके सिर्फ राज्य सरकार की जिम्मेदारी हैं ? वहां केंद्र की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है? क्या केंद्र इन राज्य सरकारों से यह नहीं कह सकता कि अगर आप इन इलाकों में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करते, तो मजबूर हो कर हमें यह काम करना पड़ेगा?

नहीं, केंद्र ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि उसे इस तरह की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है। उसके लिए इतना ही काफी है कि नक्सल-प्रभावित इलाके उसके लिए कोई चुनौती बनें। लेकिन केंद्र को यह दिखाना पड़ता है कि हम किसी राज्य विशेष के साथ पक्षपात नहीं करते। हमारे लिए तो सभी राज्य सरकारें बराबर हैं। यह साबित करने के लिए ही माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित किया गया है। माओवादियों को या उनसे राजनीतिक सहानुभूति रखनेवालों को इससे बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं है। यह तो सिर्फ एक कानून है। अगर कानून बनाने से ही सब कुछ हो जाता, तो देश भर में दलित उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, वेश्यागमन, दहेज हत्याएं, बलात्कार, तस्करी, भिक्षावृत्ति, गुंडागर्दी, रंगदारी, टैक्स चोरी आदि कभी के रुक जाते। इस नए प्रतिबंध से होगा यह कि राज्य सरकारों को कुछ और अधिकार मिल जाएंगे, जिनका इस्तेमाल बिनायक सेन जैसे भले आदमियों को परेशान करने में हो सकता है। राज्य सरकारें चाहतीं, मेरा मतलब है सचमुच चाहतीं, तो इस प्रतिबंधक कानून के बगैर भी माओवादियों को संविधान के दायरे में ला सकती थीं। इसलिए अगर कोई पूछता है कि लालगंज के बाद क्या, तो जवाब हाजिर है, ठेंगा!